माघी पूर्णिमा : सत्कर्मों का महापर्व

सत्यनारायण कथा श्रवण का दिन

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- आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी
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शास्त्रों में माघ स्नान एवं व्रत की बड़ी महिमा बताई गई है। माघ की प्रत्येक तिथि पुण्यपर्व है उनमें भी माघी पूर्णिमा को विशेष महत्व दिया गया है। माघ मास की पूर्णिमा तीर्थस्थलों में स्नान दानादि के लिए परम फलदायिनी बताई गई है। तीर्थराज प्रयाग में इस दिन स्नान, दान, गोदान एवं यज्ञ का विशेष महत्व है।

संगमस्थल पर एक मास तक कल्पवास करने वाले तीर्थयात्रियों के लिए आज की तिथि एक विशेष पर्व है। माघी पूर्णिमा को एक मास का कल्पवास पूर्ण भी हो जाता है। इसी प्रकार श्रद्धालूजन अपने क्षेत्र की नदियों एवं पवित्र सरोवरों में माघी पूर्णिमा को स्नान का पूण्य प्राप्त करते हैं।

प्रयाग राज में इस पुण्य तिथि को सभी कल्पवासी गृहस्थ प्रातः काल गंगास्नान कर गंगा माता की आरती और पूजा करते हैं तथा अपनी-अपनी कुटियों में आकर हवन करते हैं, फिर साधु सन्यासियों तथा ब्राह्मणों एवं भिक्षुओं को भोजन कराकर स्वयं भोजन ग्रहण करते हैं और कल्पवास के लिए रखी गई खाने-पीने की वस्तुएं, जो कुछ बची रहती हैं, उन्हें दान कर देते हैं और गंगाजी की रेणु कुछ प्रसाद रोली एवं रक्षासूत्र तथा गंगाजल लेकर पुनः गंगा माता के दरबार में उपस्थित होने की प्रार्थना कर अपने-अपने घरों को जाते हैं।

माघी पूर्णिमा को कुछ धार्मिक कर्म संपन्न करने की भी विधि शास्त्रों में दी गई है। प्रातः काल नित्यकर्म एवं स्नानादि से निवृत्त होकर भगवान विष्णु का विधि पूर्वक पूजन करें। फिर पितरों का श्राद्ध करें। असमर्थों को भोजन, वस्त्र तथा आय दे। तिल, कम्बल, कपास, गुड़, घी, मोदक, फल, चरण पादुकाएं, अन्न और दृब्य आदि का दान करके पूरे दिन का व्रत रखकर विप्रों, तपस्वियों को भोजन करना चाहिए और सत्संग एवं कथा-कीर्तन में दिन-रात बिताकर दूसरे दिन पारण करे।

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माघ शुक्ल पूर्णिमा को यदि शनि मेष राशि पर, गुरु और चन्द्रमा सिंह राशि पर तथा सूर्य श्रवण नक्षत्र पर हों तो महामाघी पूर्णिमा का योग होता है। यह पुण्यतिथि स्नान-दानादि के लिए अक्षय फलदायिनी होती है। परम वैष्णव संत रविदास जी की जयंती भी माघी पूर्णिमा ही है।

यद्यपि प्रत्येक महीने की पूर्णिमा को सनातन धर्मावलम्बी श्रद्धालु लोग सत्यनारायण भगवान का व्रत रखकर सायं काल कथा श्रवण करते हैं लेकिन माघी पूर्णिमा को सत्यनारायण व्रत का फल अनन्त गुना फलदायी कहा गया है। वाल्मीकि रामायण में सत्य के अलौकिक प्रभाव को दर्शानेवाला एक उदाहरण है- जानकी जी को बचाने के प्रयास में रावण के भीषण प्रहारों से क्षत-विक्षत एवं मरणासन्न जटायु को देखकर श्रीराम करुणार्द्र हो उठते हैं और नया शरीर लेकर प्राणधारण करने को कहते हैं। परंतु जीवन के प्रति उसकी अरुचि देखकर अन्ततः उसे दिव्यगति के साथ उत्तम लोक प्रदान करते हैं-

या गतिर्यज्ञशीलानामाहिताग्रेश्च या गतिः। अपरावर्तिनां या च या च भूमिप्रदायिनाम्‌। मया त्वं समनुज्ञातो गच्छ लोकाननुत्तमान्‌ ।

यहां यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि मोक्ष प्रदान करने की सामर्थ्य विष्णु भगवान में ही है, फिर मनुष्यरूप में विराजमान श्रीराम ने जटायु को मोक्ष किस प्रकार दे दिया? वस्तुतः इस जिज्ञासा का समाधान मनीषी आचार्य इस प्रकार करते हैं कि श्रीराम के मानवीय गुणों में सत्य सर्वोपरि था और सत्यव्रत का पालन करने वाले व्यक्ति के लिए समस्त लोकों पर विजय पा लेना अत्यंत सहज हो जाता है। इसलिए श्रीराम ने विष्णु होने के कारण से नहीं, अपितु मनुष्य को देवोपम बना देने वाले अपने सत्यरूपी सद्गुण के आधार पर जटायु को मोक्ष प्रदान किया।

सत्येन लोकांजयति द्विजान्‌ दानेन राघवः। गुरूछुषया वीरो धनुषा युधि शात्रवान्‌॥
सत्यं दानं तपस्त्यागो मित्रता शौचमार्जवम्‌। विद्या च गुरुशुषा धु्रवाण्येतानि राघवे ॥

इस प्रकार सत्य को नारायण मानकर अपने सांसारिक व्यवहारों में उसे सुप्रतिष्ठित करेन का व्रत लेने वालों की कथा है- श्रीसत्यनारायण व्रत कथा। सत्य को अपनाने के लिए किसी मुहूर्त की भी आवश्यकता नहीं है। कभी भी, किसी भी दिन से यह शुभ कार्य प्रारंभ किया जा सकता है- 'यस्मिन्‌ कस्मिन्‌ दिने मर्त्यो भक्तिश्रद्धासमन्वितः' - लेकिन पूर्णिमा, एकादशी और संक्रांति विशेष पुण्य काल होने से इस दिन सनातन धर्मावलम्बी सत्यनारायण व्रत करते हैं।

आवश्यकता है केवल व्यक्ति के दृढ़ निश्चय की और उसके परिपालन के लिए संपूर्ण समर्पणभाव की। सूत्र है कि मनुष्य ज्यों ही सत्य को अंगीकार कर लेता है उसी पल से सुख एवं समृद्धि की वर्षा प्रारंभ होने लगती है।

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