रविवार व्रत से पाएं सूर्य भगवान की कृपा

पौष में रविवार व्रत से होती हैं मनोकामना पूर्ण

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- आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी
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भारतीय उपासना पद्धति बड़ी विराट एवं मनोवैज्ञानिक है। इसमें तिथि, वार, नक्षत्र, संक्रांति के साथ-साथ हर महीने अलग-अलग देवी-देवताओं की उपासना से जुड़े हुए हैं। पौष का महीना प्रचंड शीत ऋतु का होता है। इस महीने सूर्य की उपासना वह भी विशेष कर रविवार को करने से उपासक का तन-मन और भाव तीनों की शुद्धता हो जाती है।

पौष के रविवार को सूर्य की उपासना के लिए सूर्योदय से पहले जागना चाहिए। स्नान एवं संध्या वंदन के बाद तांबे के कलश अथवा किसी भी धातु के पात्र में जल भरकर उसमें रोली, अक्षत और लाल रंग के फूलों को डालकर इस प्रकार से अर्घ्य देना चाहिए कि जल की धारा के बीच से उगते हुए सूर्य का दर्शन करना चाहिए। दिनभर व्रत रखकर सायंकाल अग्निहोत्र आदि कर बिना नमक का भोजन करना चाहिए। इस प्रकार इस महीने प्रत्येक रविवार को सूर्य की उपासना करने से दैविक, दैहिक और भौतिक तीनों कष्टों से छुटकारा मिल जाता है। उपासक की बुद्धि सूर्य के प्रकाश की तरह प्रखर हो जाती है।

वस्तुतः चराचर के प्रकाशक देवता होने से सूर्य को सविता कहते हैं। गायत्री मंत्र इसी 'सविता' की उपासना का मंत्र है। साक्षात्‌ सृष्टिकर्ता विधाता जो न केवल पृथ्वी, अंतरिक्ष और द्युलोक को प्रकाशित करते हैं अपितु चराचर जगत्‌ को नियंत्रित भी करते हैं। समस्त देवताओं के मुखिया भगवान भास्कर अपने धाता स्वरूप से संपूर्ण जगत को धारण करने तथा सबको कर्म जगत में प्रेरित करने के लिए वंदनीय हैं।

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जगत की समस्त घटनाएं तो सूर्य देव की ही लीला विलास हैं। एक ओर जहां भगवान सूर्य अपनी कर्म सृष्टि सर्जना की लीला से प्रातः काल में जगत को संजीवनी प्रदानकर प्रफुल्लित करते हैं तो वहीं दूसरी ओर मध्या-काल में स्वयं ही अपने महेश्वर स्वरूप से तमोगुणी लीला करते हैं। मध्या-काल में आप अपनी ही प्रचंड रश्मियों के द्वारा शिवरूप से संपूर्ण दैनिक कर्म सृष्टि की रजोगुण रूपी कालिमा का शोषण करते हैं।

जिस प्रकार परमात्मा अपनी ही बनायी सृष्टि का आवश्यकतानुसार यथा समय अपने में ही विलय करता है। ठीक उसी प्रकार भगवान आदित्य मध्या-काल में अपनी ही रश्मियों द्वारा महेश्वरूप में दैनिक सृष्टि के विकारों को शोषित कर कर्म जगत को हष्ट पुष्ट स्वस्थ और नीरोग बनाते हैं। जगत कल्याण के लिए भगवान सूर्य की यह दैनिक विकार शोषण की लीला ही भगवान नीलकण्ठ के हलाहल पान का प्रतीक है।

संत प्रह्लाद ब्रह्मचारी के शब्दों में दिन भर सारे जगत में प्रकाश और आनंद बिखेरकर सायंकाल अस्ताचल की ओर जाने वाले भगवान भास्कर का सौंदर्य भी अद्भुत है। सायं संध्या योगियों के ब्रह्म साक्षात्कार का सोपान है। इसमें संध्या वंदन करने वाले भक्तजन ऐसे जान पड़ते हैं मानो अबाधरूप से आगे बढ़ते हुए इस अंतकाररूप समुद्र में शीघ्र ही लुप्त हुए हजार किरणों के धारक सूर्यरूपी रत्न को प्राप्त करने के लिए उपाय ही सोच रहे हैं।

निःसंदेह सांध्य बेला प्राणिमात्र के लिए मन के उपरांत विश्राम का संदेश लेकर आती है। ऐसा लगता है मानो संध्या सुंदरी का संदेश पालन करते हुए स्वयं भगवान सूर्य अपनी किरणों को भी समेटते हुए विष्णुरूप से पूरी सृष्टि के पालन की लीला करने की तैयारी कर रहे हैं।

प्रगाढ़ निद्रा मग्न सारा संसार ऐसा प्रतीत होता है मानो विष्णु सूर्य स्वयं लीलामय तमस्वरूप परम प्रशांत सिंधु में समस्त सृष्टि को अपने ही साथ लेकर विश्रम कर रहे हैं। सतोगुणी विष्णु सूर्य का पश्चिम दिशा में छिप जाना एक अखंड योग का परिचालक है। भगवान प्राणिमात्र को निद्रा देवी के अधीनकर सारे संसार की विस्मृति जीव जगत को दिलाकर विश्राम योग के द्वारा असीम सामर्थ्य, अखंड योग, नित नव प्रेम की योग्यता प्रदान करते हैं।

इस प्रकार एक-एक क्षण और एक-एक कण को अपनी लीला से नियंत्रित करने वाले भगवान सूर्य न केवल प्रातः मध्याह्न, सायं के कारण से रज, तम, सत का प्रतिनिधित्व करते हैं अपितु उन गुणों के धारक ब्रह्मा, महेश एवं विष्णु के रूप में नित्य निरंतर जीव जगत का कल्याण करते हैं। सूर्य की कृपा बिना किसी भेदभाव के सब पर समान रूप से होती है। भगवान सूर्य इतने दयालु हैं कि अर्घ्य एवं नमस्कार मात्र से ही अपने भक्तों के वश में हो जाते हैं।

अपने-अपने ईष्ट देवों गणेश, शिव, विष्णु आदि का ध्यान भी सूर्यमंडल में करने का शास्त्रीय विधान है। 'उदये ब्रह्मणो रूपं मध्याह्ने तु महेश्वरः। अस्तकाले स्वयं विष्णुस्त्रिमूतिश्च दिवाकरः॥' इस उपासना में सूर्य के विविध रूपों का ध्यान और पूजन का फल मिलता है जिसमें धाता सूर्य, अर्यमा सूर्य, मित्र सूर्य, वरुण सूर्य, इन्द्र सूर्य, विवस्वान्‌ सूर्य, पूषा सूर्य, पर्जन्य सूर्य, अंशुमान्‌ सूर्य, भग सूर्य, त्वष्टा सूर्य, विष्णु सूर्य के साथ समस्त चराचर को भाषित करने वाले 'प्रभाकर नमोस्तुते' से प्रणाम करना चाहिए।

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