कम्प्यूटर ने काटी कठपुतली की डोर

भूखमरी के बीच जी रहे कलाकार

Webdunia
गुरुवार, 8 मई 2008 (21:16 IST)
आधुनिकता की आंधी लोकजीवन का मनोरंजन करने वाली कठपुतली का वजूद भी उड़ाने की तैयारी में है। इससे जुड़े कलाकारों की माने तो वे दिन दूर नहीं, जब इसका नाच किताबों के पन्नों में ही दर्ज होकर रह जाएगा।

बच्चों को शिक्षाप्रद संदेश देने के साथ उनका दिल बहलाने वाले कठपुतली कलाकार मशीनरी युग में भुखमरी के कगार पर पहुँच गए हैं।

बच्चों के मनोरंजन का अब मुख्य साधन बन बैठे कम्प्यूटर और टीवी के आगे कठपुतली के प्रमुख पात्र मियाँ गुमसुम तथा बत्तोरानी गु म ह ो ग ए हैं। इनकी कहानियाँ अब सिर्फ बुजुर्गों की जुबाँ पर ही रह गई हैं।

इस माध्यम से जुड़े कलाकार रघुवीर ने बताया कभी घर बैठे लोग काम देने आते थे। सरकारी विभा ग, कंपनियाँ और स्कूलों के लोग महीने पहले बुकिंग कर अग्रिम पैसा दे जाते थे। अँगुलियों से सजीव-सा दृश्य उत्पन्न करने वाले कलाकार कठपुतलियों के माध्यम से नुक्कड़ नाटक अथवा मेले में लोगों का मनोरंजन कर परिवार चल ा थे ।

समय का चक्र ऐसा घूमा कि बच्चे टीवी और क्म्प्यूटर में मस्त हो गए और प्रचार-प्रसार के लिए कंपनियों द्वार ा अन्य तरीके अपनाने से कठपुतली कलाकार दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो गए। कठपुतली का खेल बीते दिनों की बात हो गई है।

रघुवीर ने बताया अब गिने-चुने कलाकार ही बचे हैं, जिन्हें रोजी-रोटी के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है। अधिकांश कलाकारों ने इससे खुद को दूर कर परिवार के पालन-पोषण के लिए रिक्शे या अन्य साधनों को अपना लिया है।

रघुवीर के अनुसार शिक्षा का घोर अभाव होने से हम कहीं बाहर काम भी नहीं कर सकते। बढ़ती उम्र में बाहर जाकर कमाने से अच्छा है कि पुश्तैनी धंधे को किसी तरह अपनी जिंदगी तक निभा दें।

उन्होंने कहा कि आर्थिक तंगी को देखते हुए अपने परिजनों को दूसरे रोजगार की सलाह दी है। कठपुतली से पहले अच्छी आय हो जाती थी, तो बच्चे चौथी पाँचवी तक पढ़ा लिए, लेकिन अब पेट ही नहीं भरता तो पढ़ाई कैसे होगी।

उन्होंने कहा कि जैसे तमाम कलाएँ समाप्त हो गईं, उसी प्रकार लगता है कठपुतली का नाच भी किताबों के पन्नों में दर्ज होकर रह जाएगा।

रघुवीर के मुताबिक वे अभी अपने पारंपरिक धंधे में ही लगे हैं, लेकिन परिवार के अन्य सदस्य घास के हाथी-घोड़ा बेचकर थोड़ा-बहुत कमा लेते हैं। उन्होंने रूँधे गले से कहा कि इस काम को करते हुए उनकी पाँच पीढ़ियाँ गुजर चुकी हैं।

नहीं बचे कद्रदान- एक अन्य वयोवृद्ध कलाकार जागेश्वर प्रसाद का कहना है कि उनके समय में मेलों तथा बड़े रंगारंग कार्यक्रमों की रौनक कठपुतली वाले ही हुआ करते थे। उनका तमाशा देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। ये कलाकार अपने कार्यक्रम के दौरान इन बेजुबानों की मदद से बहुत कुछ कह जाते थे, लेकिन अब कलाकारों के कद्रदान नहीं बचे।

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