कर्म ही ईश्वर की सच्ची सेवा...

भाग्य और कर्म का महत्व

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महर्षि वाल्मीकि के अनुसार पूर्व जन्म में किया हुआ कर्म ही भाग्य कहलाता है। इसलिए पुरुषार्थ किए बिना भाग्य का निर्माण नहीं हो सकता।

हमारे पौराणिक ग्रंथ बतलाते हैं कि मनुष्य के भीतर की आत्मा उसके भाग्य से भी अधिक शक्तिशाली है। किंतु इसके साथ ही कर्म को भी अत्यधिक महत्व दिया है। सही तरीके से किया गया कर्म ध्यान बन जाता है।

पूर्ण निष्ठा से किया गया कर्म हमारी चेतना का विकास भी करता है। अतः हमें अपने कर्म ऐसे करने चाहिए जैसे कि हम प्रार्थना करते हैं। यदि सही तरीके से पूर्ण निष्ठा के साथ कर्म किया जाए तो व्यक्ति की प्रगति दस गुना अधिक होती है। अतएव प्रत्येक व्यक्ति को कर्म केवल व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि से नहीं बल्कि ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना से करना चाहिए।

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किसी कर्म के प्रति हमारी दृष्टि यह होनी चाहिए कि हम उसे अच्छे से अच्छा करें। इन दिनों इस भावना का सर्वत्र अभाव दिखाई पड़ता है। कर्म को किसी भी प्रकार से निपटाने की भावना अहितकर है। कर्म में पूर्णता हमारा लक्ष्य होना चाहिए।

आज जब हमारा देश एक नाजुक दौर से गुजर रहा है, सही समय पर सही तरीके से कार्य करने की बड़ी आवश्यकता है। दुर्भाग्यवश आज ऐसा नहीं हो रहा। हम जो भी कर्म करें उसे पूर्णता के साथ करें। यही ईश्वर की सच्ची सेवा है।

कर्म करते हुए कई कठिनाइयां भी आती हैं, किंतु ऐसे समय में हमें शांत भाव से अपने भीतर देखना चाहिए। तब रास्ता निकल आएगा।

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कर्म से पलायन करके कोई भी व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माण नहीं कर सकता। न वह जीवन में सफल हो सकता है और न सुखी रह सकता है। कर्म करते हुए हमारी दृष्टि वर्तमान पर होनी चाहिए।

न तो हमें अतीत में देखना है और न भविष्य की चिंता करनी है। अपने वर्तमान कर्म को संभालने से भविष्य अपने आप संवर जाएगा।

आज हिन्दुस्तान का आकाश शब्दों के शोर से भरा हुआ है, किंतु हमें केवल बड़ी-बड़ी बातें ही नहीं करनी चाहिए बल्कि अधिक से अधिक कर्म करना चाहिए। यही भाग्य निर्माण की सच्ची राह है। यही समय की पुकार भी है।

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गीता में तीन प्रकार के कर्म बताए गए हैं- सात्विक, राजसी और तामसिक। तामसिक कर्मों से जीवन की अधोगति होती है और सात्विक कर्मों से सद्गति।

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि निःस्वार्थ कर्म हमें व्यक्तिगत रोगों से भी छुटकारा देता है।

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