गीता-ईदुज़्ज़ुहा : करें सत्कर्म को प्रेरित

Webdunia
- अजहर हाशमी

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नौ दिसंबर को ईदुज्जुहा (इस्लाम धर्मावलंबियों का त्योहार) है और गीता जयंती (सनातन धर्मावलंबियों का पर्व) भी। समय की सड़क पर 9 दिसंबर के पड़ाव पर इन दो त्योहारों का एकसाथ होना इस बात का संकेत है कि मोह का त्याग (कुर्बानी) करके ही मानवता की मंजिल पर पहुँचा जा सकता है, लेकिन लगातार कर्म करते रहना शर्त है। कर्म से तात्पर्य है सत्कर्म अर्थात नेक अमल।

पवित्र कुरान में अमल को 'व अमेलुस्सालेहाते' कहा गया है तो पावन श्रीमद् भगवद् गीता में 'कर्मण्येवाधिकारस्ते'। मोह का त्याग ही नेक अमल की सीढ़ी है। दोनों त्योहारों के एकसाथ होने में कुदरत का निजाम कुछ बोल रहा है। सौहार्द और सद्भाव माहौल में घोल रहा है। त्योहार के तराजू पर समान तौल रहा है।

सौहार्द-सद्भाव के इस संदेश को समझने के लिए ऐतिहासिक छानबीन भी जरूरी है और वैज्ञानिक विश्लेषण भी। सबसे पहले हम ईदुज्जुहा की तारीखी पड़ताल करते हैं जिसका लब्बे-लुआब यह है कि पैगम्बर हजरत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) अपने बेटे हजरत इस्माइल (अलैहिस्सलाम) को बेहद प्यार करते थे। उन्हें नूर-ए-चश्म (आँखों का नूर) कहकर पुकारते थे। उन्हें (हरजत इस्माइल को) आँखों से ओझल नहीं होने देते थे यानी बेटे ने हजरत इब्राहीम (अलै.) को मोहयुक्त कर रखा था।
  पवित्र कुरान में अमल को 'व अमेलुस्सालेहाते' कहा गया है तो पावन श्रीमद् भगवद् गीता में 'कर्मण्येवाधिकारस्ते'। मोह का त्याग ही नेक अमल की सीढ़ी है।      


ख्वाब में खुदा (अल्लाह) ने जब उनसे अपने बेटे की कुर्बानी (बलिदान) करने को कहा तो शशोपंज (अंतर्द्वंद्व) के बाद उन्होंने मोह का त्याग कर दिया और शैतान को लानत (भर्त्सना) भेजते हुए अल्लाह से किया गया वादा निभाने के लिए ज्यों ही अपने बेटे का बलिदान करना चाहा, त्यों ही अल्लाह के खास फरिश्ते जिब्राइल ने आकर उनसे कहा कि 'आप (इब्राहीम अलैहिस्सलाम) इम्तिहान में कामयाब हो गए हैं। अल्लाह ने आपके मोह-त्याग को पसंद किया है और आपके द्वारा किए गए बेटे के बलिदान को प्राणों को कष्ट पहुँचाए बिना स्वीकार कर लिया है।'

यानी हजरत इस्माइल के स्थान पर एक दुम्बा भेज दिया गया और कुर्बानी भी पूरी हो गई। इस ऐतिहासिक वृत्तांत का वैज्ञानिक पहलू यह है कि नैसर्गिक अर्थात कुदरती तौर पर बाप का बेटे से मोह होता है। बेटे की हिफाजत के लिए बाप अपनी जान पर खेल जाता है, मगर बेटे पर आँच नहीं आने देता। हजरत इब्राहीम (अलै.) भी पुत्र मोह से ग्रस्त थे, लेकिन अल्लाह से किया वादा निभाने और अपना फर्ज निभाने के लिए उन्होंने पुत्रमोह का तो त्याग किया ही, पुत्र की कुर्बानी (बलिदान) के लिए भी तैयार हो गए। यह दृष्टांत दिखलाता है कि अपने वचन का पालन करो और नेक अमल करने में किसी भी प्रकार का मोह आड़े आता हो तो उस मोह को त्याग दो। इस प्रकार त्याग का जज्बा सिखाती है ईदुज्जुहा।

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ठीक यही बात गीता जयंती के प्रसंग में भी बावन तौला पास्ती सही है। ऐतिहासिक पड़ताल से पता चलता है कि महाभारत में युद्ध करने से विषादयुक्त अर्जुन यह कहकर इंकार करता है कि 'सभी योद्धा मेरे सगे-संबंधी हैं, यदि इनसे युद्ध करूँगा तो मेरे हाथों इनके मारे जाने से मुझे पाप लगेगा'। स्वजनों के प्रति अर्जुन को मोहग्रस्त देखकर ही योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं, ' कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' (अर्थात कर्म पर तेरा अधिकार है फल पर नहीं)। इस प्रकार अर्जुन का मोह भंग होता है। अपने मोहरूपी विकार का त्याग करके अर्जुन युद्ध करने का कर्म करता है।

कुल मिलाकर यह कि ईदुज्जुहा भी मोह का त्याग (कुर्बानी) करके कर्म का संदेश दे रही है तो गीता जयंती भी इसी मंतव्य को रेखांकित कर रही है। वक्त के इस इशारे को हम समझें और मोह तथा ऐसे ही अन्य विकारों की कुर्बानी करके मिल-जुलकर प्रेम के पुल तथा सौहार्द के सेतु बनाएँ। सुकून सौहार्द में है फसाद में नहीं। खुशी त्याग में है स्वार्थ में नहीं।
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