मुहब्बत

Webdunia
शनिवार, 19 सितम्बर 2009 (17:04 IST)
निदा फ़ाज़ल ी

पहले वो रंग थी
फिर रूप बनी
रूप से जिस्म में तब्दील हुई
और फिर
जिस्म से बिस्तर बनकर
घर के कोने में लगी रहती है!
जिस को
कमरे में घुटा सन्नाटा
वक़्त बेवक़्त उठा लेता है
खोल लेता है, बिछा लेता है

एक मुलाकात
नीम तले दो जिस्म अजाने
चमचम बहता नदिया जल
उड़ी-उड़ी चेहरों की रंगत
खुले-खुले जुल्फों के बल
दबी-दबी कुछ गीली साँसें
झुके-झुके से नैन-कमल

नाम उसका... दो नीली आँखें
जात उसकी... रस्ते की रात
मजहब उसका... भीगा मौसम
पता... बहारों की बरसात

कहीं कहीं से
कहीं-कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है
तुम को भूल न पाएँगे हम ऐसा लगता है
ऐसा भी इक रंग है जो करता है बातें भी
जो भी इसको पहन ले वो अपना-सा लगता है
तुम क्या बिछुड़े भूल गए रिश्तों की शराफत हम
जो भी मिलता है कुछ दिन ही अच्छा लगता है
अब भी यूँ मिलते हैं हमसे फूल चमेली के
जैसे इन से अपना कोई रिश्ता लगता है
और तो सब कुछ ठीक है, लेकिन कभी-कभी यूँ ही
चलता फिरता शहर अचानक तन्हा लगता है।

फ्रीज़ शॉट
वक़्त ने मेरे बालों में
चाँदी भर दी
इधर-उधर
जाने की आदत कम कर दी
आईना जो करता है
सच कहता है
एक-सा चेहरा मोहरा किस का
रहता है
कभी अँधेरा कभी सवेरा है जीवन
आज और कल के बीच का
फेरा है जीवन
इसी बदलते वक़्त के सहारा में
लेकिन!
कहीं किसी घर में
इक लड़की ऐसी है
बरसों पहले जैसी थी वो
अब भी बिल्कुल वैसी है

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