संध्या वंदन में पूजा, आरती, प्रार्थना या करें ध्यान?

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
FILE
संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। संधिकाल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे संधि 5 वक्त (समय) की होती है, लेकिन प्रात:काल और संध्‍याकाल- उक्त दो समय की संधि प्रमुख है अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय। वेदों के अनुसार इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।

संध्या वंदन है सभी का कर्तव्य
हर हिन्दू के पांच नित्य कर्तव्य

संध्योपासना के 5 प्रकार हैं- (1) प्रार्थना, (2) ध्यान, (3) कीर्तन, (4) यज्ञ और (5) पूजा-आरती। व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है। लेकिन इन पांचों में किसका ज्यादा महत्व है, यह भी जानना जरूरी है।

बहुत से लोग पूजा को पाखंड मानते हैं, क्योंकि पूजा के अब मनमाने तरीके विकसित हो चले हैं। बहुत से लोग यज्ञ करने को भी पाखंड मानते हैं, क्योंकि यज्ञ भी अब मनमाने और कभी भी कहीं भी होने लगे हैं। बहुत से लोग अब कीर्तन में भी नहीं जाते, क्योंकि कीर्तन का स्वरूप बिगाड़कर फिल्मी कर दिया गया है। कीर्तन या भजन क्यों किया जाता था इसका महत्व भी समाप्त हो गया है। प्रार्थना और ध्यान अब मंदिरों में नहीं, बड़े आश्रमों में या योगा क्लास में होता है।

 

अगले पन्ने पर यज्ञ कब और क्यों...

 


FILE
वेदानुसार यज्ञ 5 प्रकार के होते हैं- (1) ब्रह्मयज्ञ, (2) देवयज्ञ, (3) पितृयज्ञ, (4) वैश्वदेव यज्ञ, (5) अतिथि यज्ञ। उक्त 5 यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। वेदज्ञ सार को पकड़ते हैं, विस्तार को नहीं।

(1) ब्रह्मयज्ञ : वेदों का अध्ययन करना और सिर्फ ब्रह्म (ईश्वर) को ही मानना-पूजना ब्रह्मयज्ञ है।

(2) देवयज्ञ : सत्संग और अग्निहोत्र कर्म करना देवयज्ञ है। खुली जगह पर हवन करने को अग्निहोत्र कर्म कहते हैं। इस कर्म को करने का समय और नियम होता है। मूलत: यज्ञ को सभी संस्कारों के समय ही किया जाता है। यज्ञ के कुछ प्रकार हैं।

(3) पितृयज्ञ : माता-पिता की सेवा करना ही पितृयज्ञ है। संतान उत्पन्न करने से भी पितृयज्ञ संपन्न होता है। इसी से 'पितृ ऋण' भी चुकता होता है। इसके अंतर्गत ही श्राद्ध कर्म किया जाता है।

(4) वैश्वदेव यज्ञ : इसे पंचभूत यज्ञ भी कहते हैं। सभी प्राणियों तथा वृक्षों को अन्न-जल देना ही वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है अर्थात जो कुछ भी हम खाते हैं उसका कुछ अंश पहले उसी अग्नि में होम करें जिससे भोजन पकाया। फिर कुछ अंश गाय, कुत्ते और कौवे को दें।

(5) अतिथि यज्ञ : अतिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल देना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। यह सबसे बड़ा पुण्य है।

अगले पन्ने पर जानिए पूजा कब और क्यों...


पूजा-आरती : पूजा को नित्यकर्म में शामिल किया गया है। पूजा करने के पुराणिकों ने अनेक मनमाने तरीके विकसित किए हैं। पूजा किसी देवता या देवी की मूर्ति के समक्ष की जाती है जिसमें गुड़ और घी की धूप दी जाती है, फिर हल्दी, कंकू, धूप, दीप और अगरबत्ती से पूजा करके उक्त देवता की आरती उतारी जाती है। पूजा में सभी देवों की स्तुति की जाती है। अत: पूजा-आरती के ‍भी नियम हैं। नियम से की गई पूजा के लाभ मिलते हैं।

12 बजे के पूर्व पूजा और आरती समाप्त हो जाना चाहिए। दिन के 12 से 4 बजे के बीच पूजा या आरती नहीं की जाती है। रात्रि के सभी कर्म वेदों द्वारा निषेध माने गए हैं, जो लोग रात्रि को पूजा या यज्ञ करते हैं उनके उद्देश्य अलग रहते हैं। पूजा और यज्ञ का सात्विक रूप ही मान्य है।

कैसे करें पूजन

पूजा से वातावरण शुद्ध होता है और आध्यात्मिक माहौल का निर्माण होता है जिसके चलते मन और मस्तिष्क को शांति मिलती है। पूजा संस्कृत मंत्रों के उच्चारण के साथ की जाती है। पूजा समाप्ति के बाद आरती की जाती है। यज्ञ करते वक्त यज्ञ की पूजा की जाती है और उसके अलग नियम होते हैं। पूजा करने से देवता लोग प्रसन्न होते हैं। पूजा से रोग और शोक मिटते हैं और व्यक्ति को मुक्ति मिलती है।

पूजा के 5 प्रकार :
1- अभिगमन : देवालय अथवा मंदिर की सफाई करना, निर्माल्य (पूर्व में भगवान को अर्पित (चढ़ाई) की गई वस्तुएं हटाना)। ये सब कर्म 'अभिगमन' के अंतर्गत आते हैं।

2- उपादान : गंध, पुष्प, तुलसी दल, दीपक, वस्त्र-आभूषण इत्यादि पूजा सामग्री का संग्रह करना 'उपादान' कहलाता है।

3- योग : ईष्टदेव की आत्मरूप से भावना करना 'योग' है।

4- स्वाध्याय : मंत्रार्थ का अनुसंधान करते हुए जप करना, सूक्त-स्तोत्र आदि का पाठ करना, गुण-नाम आदि का कीर्तन करना, ये सब स्वाध्याय हैं।

5- इज्या : उपचारों के द्वारा अपने आराध्य देव की पूजा करना 'इज्या' के अंतर्गत आती है।

अगले पन्ने पर, कीर्तन या भजन कब और क्यों...


कीर्तन : ईश्वर, भगवान, देवता या गुरु के प्रति स्वयं के समर्पण या भक्ति के भाव को व्यक्त करने का एक शांति और संगीतमय तरीका है कीर्तन। इसे ही भजन कहते हैं। भजन करने से शांति मिलती है। भजन करने के भी नियम हैं। गीतों की तर्ज पर निर्मित भजन, भजन नहीं होते। शास्त्रीय संगीत अनुसार किए गए भजन ही भजन होते हैं। सामवेद में शास्त्रीय सं‍गीत का उल्लेख मिलता है। नवधा भक्ति में से एक है कीर्तन।

अद्भुत औषधि है कीर्तन...!

मंदिर में कीर्तन सामूहिक रूप से किसी विशेष अवसर पर ही किया जाता है। कीर्तन के प्रवर्तक देवर्षि नारद हैं। कीर्तन के माध्यम से ही प्रह्लाद, अजामिल आदि ने परम पद प्राप्त किया था। मीराबाई, नरसी मेहता, तुकाराम आदि संत भी इसी परंपरा के अनुयायी थे।

कीर्तन के दो प्रकार हैं- देशज और शास्त्रीय। देशज अर्थात लोक संगीत परंपरा से उपजा कीर्तन जिसे 'हीड़' भी कहा जाता है। शास्त्रीय अर्थात जिसमें रागों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। संतों के दोहे और भजनकारों के पदों को भजन में गाया जाता है।

अगले पन्ने पर, प्रार्थना क्यों और कब...


प्रार्थना : नवधा भक्ति में से एक है प्रार्थना। प्रार्थना को उपासना, आराधना, वंदना, अर्चना भी कह सकते हैं। इसमें निराकार ईश्वर या देवताओं के प्रति कृतज्ञता और समर्पण का भाव व्यक्त किया जाता है। इसमें भजन या कीर्तन नहीं किया जाता। इसमें पूजा या आरती भी नहीं की जाती। प्रार्थना का असर बहुत जल्द होता है। समूह में की गई प्रार्थना तो और शीघ्र फलित होती है। सभी तरह की आराधना में श्रेष्ठ है प्रार्थना। वे‍दों की ऋचाएं प्रकृति और ईश्वर के प्रति गहरी प्रार्थनाएं ही तो हैं। ऋषि जानते थे प्रार्थना का रहस्य।

प्रार्थना क्या है, क्यों करें प्रार्थना?

प्रार्थना का प्रचलन सभी धर्मों में है, लेकिन प्रार्थना करने के तरीके अलग-अलग हैं। तरीके कैसे भी हों जरूरी है प्रार्थना करना। प्रार्थना योग भी अपने आप में एक अलग ही योग है, लेकिन कुछ लोग इसे योग के तप और ईश्वर प्राणिधान का हिस्सा मानते हैं। प्रार्थना को मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त करने की एक क्रिया भी माना जाता है।

कैसे करें प्रार्थना : ईश्वर, भगवान, देवी-देवता या प्रकृति के समक्ष प्रार्थना करने से मन और तन को शांति मिलती है। मंदिर, घर या किसी एकांत स्थान पर खड़े होकर या फिर ध्यान मुद्रा में बैठकर दोनों हाथों को नमस्कार मुद्रा में ले आएं। अब मन-मस्तिष्क को एकदम शांत और शरीर को पूर्णत: शिथिल कर लें और आंखें बद कर अपना संपूर्ण ध्यान अपने ईष्ट पर लगाएं। 15 मिनट तक एकदम शांत इसी मुद्रा में रहें तथा सांस की क्रिया सामान्य कर दें।

भक्ति के प्रकार : 1.आर्त, 2.जिज्ञासु, 3.अर्थार्थी और 4.ज्ञानी
प्रार्थना के प्रकार : 1.आत्मनिवेदन, 2.नामस्मरण, 3.वंदन और 4. संस्कृत भाषा में समूह गान।

प्रार्थना के फायदे : प्रार्थना में मन से जो भी मांगा जाता है वह फलित होता है। ईश्वर प्रार्थना को 'संध्या वंदन' भी कहते हैं। संध्या वंदन ही प्रार्थना है। यह आरती, जप, पूजा या पाठ, तंत्र, मंत्र आदि क्रियाकांड से भिन्न और सर्वश्रेष्ठ है।

प्रार्थना से मन स्थिर और शांत रहता है। इससे क्रोध पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इससे स्मरण शक्ति और चेहरे की चमक बढ़ जाती है। प्रतिदिन इसी तरह 15-20 मिनट प्रार्थना करने से व्यक्ति अपने आराध्य से जुड़ने लगता है और धीरे-धीरे उसके सारे संकट समाप्त होने लगते हैं। प्रार्थना से मन में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है तथा शरीर निरोगी बनता है।

अंत में ध्यान....


' भीतर से जाग जाना ध्यान है। सदा निर्विचार की दशा में रहना ही ध्यान है।' हमारे ऋषि-मुनियों ने पूजा, आरती, यज्ञ और प्रार्थना आदि में सबसे ऊपर रखा है ध्यान को। ध्यान से सभी प्रकार के कष्ट मिट जाते हैं और ध्या के माध्यम से ही मोक्ष मिलता है।

ध्यान की परिभाषा : तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम।। 3-2 ।।-योगसूत्र अर्थात- जहां चित्त को लगाया जाए उसी में वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। धारणा का अर्थ चित्त को एक जगह लाना या ठहराना है, लेकिन ध्यान का अर्थ है जहां भी चित्त ठहरा हुआ है उसमें वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। उसमें जाग्रत रहना ध्यान है।

ध्यान पर संपूर्ण जानकारी...

ध्यान का अर्थ : ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। एकाग्रता टॉर्च की स्पॉट लाइट की तरह होती है जो किसी एक जगह को ही फोकस करती है, लेकिन ध्यान उस बल्ब की तरह है जो चारों दिशाओं में प्रकाश फैलाता है। आमतौर पर आम लोगों का ध्यान बहुत कम वॉट का हो सकता है, लेकिन योगियों का ध्यान सूरज के प्रकाश की तरह होता है जिसकी जद में ब्रह्मांड की हर चीज पकड़ में आ जाती है।

क्रिया नहीं है ध्यान : बहुत से लोग क्रियाओं को ध्यान समझने की भूल करते हैं- जैसे सुदर्शन क्रिया, भावातीत ध्यान और सहज योग ध्यान। दूसरी ओर विधि को भी ध्यान समझने की भूल की जा रही है।

बहुत से संत, गुरु या महात्मा ध्यान की तरह-तरह की क्रांतिकारी विधियां बताते हैं, लेकिन वे यह नहीं बताते हैं कि विधि और ध्यान में फर्क है। क्रिया और ध्यान में फर्क है। क्रिया तो साधन है साध्य नहीं। क्रिया तो ओजार है। क्रिया तो झाड़ू की तरह है।

आंख बंद करके बैठ जाना भी ध्यान नहीं है। किसी मूर्ति का स्मरण करना भी ध्यान नहीं है। माला जपना भी ध्यान नहीं है। अक्सर यह कहा जाता है कि पांच मिनट के लिए ईश्वर का ध्यान करो- यह भी ध्यान नहीं, स्मरण है। ध्यान है क्रियाओं से मुक्ति। विचारों से मुक्ति।
Show comments

Buddha purnima 2024: भगवान बुद्ध के 5 चमत्कार जानकर आप चौंक जाएंगे

Buddha purnima 2024: बुद्ध पूर्णिमा शुभकामना संदेश

Navpancham Yog: सूर्य और केतु ने बनाया बेहतरीन राजयोग, इन राशियों की किस्मत के सितारे बुलंदी पर रहेंगे

Chankya niti : करोड़पति बना देगा इन 4 चीजों का त्याग, जीवन भर सफलता चूमेगी कदम

Lakshmi prapti ke upay: माता लक्ष्मी को करना है प्रसन्न तो घर को इस तरह सजाकर रखें

भगवान श्री बदरीनाथजी की आरती | Shri badrinath ji ki aarti

श्री बदरीनाथ अष्टकम स्तोत्र सर्वकार्य सिद्धि हेतु पढ़ें | Shri Badrinath Ashtakam

23 मई 2024 : आपका जन्मदिन

श्री बदरीनाथ की स्तुति | Badrinath ki stuti

23 मई 2024, गुरुवार के शुभ मुहूर्त