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नज़्म : मज़हब-ए-शायराना
Webdunia
बुधवार, 6 अगस्त 2008 (15:58 IST)
शायर : चकबस् त
कहते हैं जिसे अब्र वो मैखाना है मेरा
जो फूल खिला बाग़ में पैमाना है मेरा
कैफ़ियत-ए-गुलशन मेरे नश्शे का आलम
कोयल की सदा नारा-ए-मसताना है मेरा
पीता हूँ वो मय नश्शा उतरता नहीं जिसका
ख़ाली नहीं होता है वो पैमाना है मेरा
दरिया मेरा आईना है लहरें मेरे गेसू
और मौज-ए-नसीम-ए-सहरी शाना है मेरा
हर ज़र्रा-ए-ख़ाकी है मेरा मूनिस-ओ-हमदम
दुनिया जिसे कहते हैं वो काशाना है मेरा
जिस जा हो ख़ुशी है वो मुझे मंज़िल-ए-राहत
जिस घर में हो मातम वो अज़ाख़ाना है मेरा
जिस गोशा-ए-दुनिया में परिस्तिश हो जहाँ की
काबा है वही और वही बुतख़ाना है मेरा
मैं दोस्त भी अपना हूँ, अदू भी हूँ मैं अपना
अपना है कोई और न बेगाना है मेरा
आशिक़ भी हूँ, माशूक़ भी ये तुरफ़ा मज़ा है
दीवाना हूँ मैं जिसका वो दीवाना है मेरा
ख़ामोशी में याँ रहता है तक़रीर का आलम
मेरे लब-ए-ख़ामोश पे अफ़साना है मेरा
कहते हैं खुदी किसको ख़ुदा नाम है किसका
दुनिया में फ़क़त जलवा-ए-जानाना है मेरा
मिलता नहीं हरएक को वो नूर है मुझमें
जो साहिब-ए-बीनश हो वो परवाना है मेरा
शायर का सुख़न कम नहीं मजज़ूब की बड़ से
हरएक न समझेगा वो अफ़साना है मेरा
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