ग़ालिब की ग़ज़ल और अशआर के मतलब (6)

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मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना काम आऊँ
गर मैंने की थी तौबा, साक़ी को क्या हुआ थ ा

Aziz AnsariWD
बड़ी हैरत की बात है ‍कि मुझ जैसा शराब पीने वाला मयख़ाने से बगैर शराब प िए वापस चला जाए। माना के मैंने शराब पीने से तौबा कर ली थी मगर साक़ी ने न पिलाने की तौबा तो नहीं की थी। साक़ी को मेरी तौबा को भूल कर मुझे शराब पिलाना चाहिए थी।

है एक तीर जिसमें दोनों छिदे पड़े हैं,
वो दिन गए के अपना दिल से जिगर जुदा था।

अब हम अपने दिल और जिगर में फ़र्क़ नहीं कर सकते। क्योंकि मेहबूब के तीर-ए-नज़र के एक वार ने दोनों को एक साथ घायल कर दिया है। अब ऐसा लगता है कि एक ही तीर में दोनों छिदे हुए हैं और दोनों की हालत एक जैसी है।

दरमांदगी में ग़ालिब कुछ बन पड़े तो जानूँ,
जब रिश्ता बेगिरह था, नाख़ुन गिरह कुशा था।

जब हम मुसीबतों के फंदे में फँसे हुए नहीं थे तब उन्हें खोलने की ताक़त हम में थी लेकिन अब वो बात नहीं। अब हमारे नाख़ुनों में इतनी ताक़त नहीं के वो गिरह खोल सकें। और अब हमारे रिश्तों में गिरह भी ख़ूब पड़ गईं हैं लेकिन हम बेकस-ओ-लाचार होकर रह गए हैं। काश ऐसा कुछ हो जाए कि मैं इन मुसीबतों से छुटकारा पा जाऊँ।

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