अकबर इलाहाबादी---शायर भी, सिपाही भी

Webdunia
शनिवार, 28 जून 2008 (11:18 IST)
- अज़ीज़ अंसार ी

हर शायर अपने हालात से मुतास्सिर होकर जब अपनी सोच और अपनी फ़िक्र को अल्फ़ाज़ का जामा पहनाता है तो वो तमाम हालात उसके कलाम में भी नुमायाँ होने लगते हैं। 1857 के इंक़िलाब के बाद जो हालात हिदुस्तान में रुनुमा हुए उनसे उस दौर का हर शायर मुतास्सिर हुआ। अकबर इलाहाबादी ने उन हालात का कुछ ज़्यादा ही असर लिया।

अपने मुल्क और अपनी तहज़ीब से उन्हें गहरा लगाव था। वो खुद अंग्रेज़ी पढ़े लिखे थे और अंग्रेज़ों की नौकरी भी करते थे। लेकिन इंग्लिश तहज़ीब को पसन्द नहीं करते थे। उन्हें एसा महसूस होने लगा था कि अंग्रेज़ धीरे धीरे हमारी ज़ुबान हमारी तहज़ीब और हमारे मज़हबी रुजहानात को गुम कर देना चाहते हैं।

इंग्लिश कल्चर की मुखालिफ़त का उन्होंने एक अनोखा तरीक़ा निकाला। मुखालिफ़त की सारी बातें उन्हों ने ज़राफ़त के अन्दाज़ में कहीं। उनकी बातें बज़ाहिर हंसी मज़ाक़ की बातें होती थीं लेकिन ग़ौर करने पर दिल-ओ-दिमाग़ पर गहरी चोट भी करती थीं।

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत हैं मगर आराम के साथ

चार दिन की ज़िन्दगी है कोफ़्त से क्या फ़ाएदा
खा डबल रोटी, कलर्की कर, खुशी से फूल जा

शौक़-ए-लैला-ए-सिविल सर्विस ने इस मजनून को
इतना दौड़ाया लंगोटी कर दिया पतलून को

अज़ीज़ान-ए-वतन को पहले ही से देता हूँ नोटिस
चुरट और चाय की आमद है, हुक़्क़ा पान जाता है

क़ाइम यही बूट और मोज़ा रखिए
दिल को मुशताक़-ए-मिस डिसोज़ा रखिए

रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में
कि अकबरनाम लेता है खुदा का इस ज़माने में

मज़हब ने पुकारा ऎ अकबर अल्लाह नहीं तो कुछ भी नहीं
यारों ने कहा ये क़ौल ग़लत, तंख्वाह नहीं तो कुछ भी नही

हम ऎसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़बती समझते हैं
कि जिनको पढ़ के बेटे बाप को खबती समझते हैं

शेख जी घर से न निकले और मुझसे कह दिया
आप बी.ए. पास हैं तो बन्दा बी.बी. पास है

तहज़ीब-ए-मग़रबी में है बोसा तलक मुआफ़
इससे आगे बढ़े तो शरारत की बात है

ज़माना कह रहा है सब से फिर जा
न मस्जिद जा, न मन्दिर जा, न गिरजा

अंग्रेज़ों के खिलाफ़ लड़ाई लड़ने का ये भी एक तरीक़ा था। ये तो वो कलाम है जो छप कर अवाम के सामने आया। अकबर के कलाम का एक बड़ा ज़खीरा एसा भी है जो शाए नहीं हुआ है। शाए न होने की एक अहम वजह उसका सख्त होना भी है।

पकालें पीस कर दो रिटियाँ थोड़े से जौ लाना
हमारा क्या है ए भाई न मिस्टर हैं न मौलाना

ग़ज़ल : अकबर इलाहाबादी
उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऎं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर

तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर

न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दो गे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर

हक़ीक़त में मैं एक बुल्बुल हूँ मगर चारे की ख्वाहिश में
बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर

निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनू है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर

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