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मोमिन की ग़ज़लें
अजीज अंसारी
Aziz Ansari
WD
अगर ग़फ़लत से बाज़ आया जफ़ा की
तलाफ़ी की भी तो ज़ालिम ने क्या की
मूए-आग़ाज़-ए-उलफ़त में हम अफ़सोस
उसे भी रेह गई हसरत जफ़ा की
कभी इनसाफ़ ही देखा न दीदार
क़यामतक्सर उस कू में रहा की
शब-ए-वस्ल-ए-अदू क्या क्या जला हूँ
हक़ीक़त खुल गई रोज़-ए-जज़ा की
चमन में कोई उस कू से न आया
गई बरबाद सब मेहनत सबा की
किया जब इलतिफ़ात उसने ज़रा सा
पड़ी हमको हुसूल-ए-मुद्दुआ की
कहा है ग़ैर ने तुम से मेरा हाल
कहे देती है बेबाकी अदा की
तुम्हें शोर-ओ-फ़ुग़ाँ से मेरे क्या काम
ख़बर लो अपनी चश्म-ए-सुरमासा की
जफ़ा से थक गए तो भी न पूछा
के तूने किस तवक़्क़ो पर वफ़ा की
कहा उस बुत से मरता हूँ तो मोमिन
कहा मैं क्या करूँ मरज़ी ख़ुदा की
2. वो जो हम में तुम में क़रार था, तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का, तुम्हें याद हो के न याद हो
वो जो लुत्फ़ मुझपे थे पेशतर, वो करम के था मेरे हाल पर
मुझे याद सब है ज़रा ज़रा, तुम्हें याद हो के न याद हो
कोई बात ऎसी अगर हुई, के तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयाँ से पहले ही बोलना, तुम्हें याद हो के न याद हो
कभी हम में तुम में भी चाह थी, कभी हम से तुम से भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना, तुम्हें याद हो के न याद हो
जिसे आप गिनते थे आशना, जिसे आप कहते थे बावफ़ा
मैं वही हूँ मोमिन-ए-मुबतिला, तुम्हें याद हो के न याद हो
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