खुशी का विस्तार है परिवार

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- सुमनलता

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समाजशास्त्र बताता है कि परिवार इंसान की पहली पाठशाला है। वह जो कुछ भी अच्छा या बुरा सीखता है, परिवार से ही सीखता है। मनोचिकित्सक जब किसी मुश्किल केस को हल करते हैं तो परिवार पर ज्यादा तवज्जो देते हैं। संक्षेप में परिवार हमारी नींव में, आचरण में और फिर हमारे पूरे जीवन में झलकता और छलकता है।

परिवार एक विचार है, सुरक्षा और जीवनशैली है। इसमें होने और रहने का एक तरीका है, जिसे हम पारिवारिक संस्कार कहते हैं। यह "मैं" से निकलकर "हम" तक फैलता है।

पारिवारिक संस्कृति का मतलब साथ-साथ रहने का आनंद, निर्भरता और निश्चिंतता का सुख, सुरक्षा का आश्वासन, संस्कारों और संवेदनाओं की सहभागिता। साथ रहने और जोड़ते चलने का संबल है परिवार। इसी पर आगे आपका चरित्र, आकांक्षा, अपेक्षा और प्राथमिकता का निर्धारण निर्भर करता है।

शहरीकरण के साथ-साथ आए बदलावों ने परिवारों को तोड़ जरूर दिया है, लेकिन उसकी भावना अब भी जीवित है। तभी तो होली या फिर दिवाली के आसपास कोई कहीं भी रह रहा हो, कितना ही व्यस्त हो, अपने परिवार के पास पहुँचना चाहता है। इस दौरान बसों और ट्रेनों की भीड़ देखकर हमें एहसास होता है कि परिवारों का होना मात्र सांस्कृतिक जरूरत नहीं, बल्कि यह इंसानी वजूद का अहम हिस्सा है।

त्योहारों को साथ मनाना... मतलब साथ-साथ खुश होना, खुशी को बाँटना। यह खुद से बाहर खुद के होने या स्व का विस्तार है। अरस्तू परिवार के विस्तार को ही समाज मानते हैं तो फिर यह दुनिया की पहली या प्रारंभिक इकाई है। यही हमें मानवीय गुणों से समृद्ध करती है।

परिवार में रहना हमें सहिष्णुता सिखाता है। हम अपने छोटे-छोटे स्वार्थों और छोटी जरूरतों के प्रति आक्रामकता का परित्याग परिवार में रहकर ही सीख पाते हैं और आश्चर्य यह है कि हमें यह अहसास भी नहीं होता है कि हमने कुछ त्यागा है, ऐसा नहीं है कि यह एकाएक होता है। एक पूरी प्रक्रिया के तहत एक बच्चा पारिवारिक संस्कृति के इस स्तर तक पहुँचता है। कहा जा सकता है कि आपका चरित्र आपके परिवार का आईना है।

इसमें ही इंसान असहमत होते हुए भी सहमत होता है। इसमें ही वह प्रेम और उदारता सीखता है। इसमें ही वह खुद के अतिरिक्त दूसरों को स्वीकारता है और प्रेम करता है। यही वह जगह है, जहाँ व्यक्ति मैं से हम तक का सफर तय करता है। इसी से आगे स्वस्थ, सुखी और संतुष्ट समाज की तरफ जाता रास्ता खुलता है।

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