नया भारत रच रही हैं फुन्दीबाई

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- लोकेन्झसिंह को ट

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आदिवासी फुन्दीबाई प्रतिबद्ध महिला सरपंच हैं, जो उच्च जाति के दबदबे वाले क्षेत्र में साहस के साथ न केवल कार्य कर रही हैं, वरन अपने क्षेत्र में स्कूल वाली बाई के नाम से भी विख्यात हो गई हैं।

नाम है फुन्दीबाई! सहजता से चौंकने वाली बात है कि कौन फुन्दीबाई...? फुन्दीबाई नए भारत के सृजनकारों में से एक हैं। अब तो आपका प्रश्न और भी सुर्ख होगा कि फुन्दीबाई और सृजनकार... कौन, कैसे...? फुन्दीबाई को समझने से पहले आइए थोड़े से पूर्वागृहों से दूर हो लें। यह आवश्यक नहीं है कि सृजन करने का लक्ष्य बहुत बड़ा हो या कोई महान कृति, कार्य हो। प्रत्येक सृजन जो जीवन को उल्लास दे, जीने का ढंग दे, सहारा दे वह भी श्रेष्ठ सृजन है। यदि सृजन लोकोपयोगी है तो और भी बेहतर। जो सृजन समाज व राष्ट्र को उन्नति के मार्ग पर पहुँचाए, वह सर्वश्रेष्ठ सृजन है।

बस हम इसी सरल-से सृजन की बात कर रहे हैं और आदिवासी फुन्दीबाई ऐसी ही प्रतिबद्ध महिला सरपंच हैं, जो उच्च जाति के दबदबे वाले क्षेत्र में साहस के साथ न केवल कार्य कर रही हैं, वरन अपने क्षेत्र में स्कूल वाली बाई के नाम से भी विख्यात हो गई हैं। हम बहुत बड़े बदलावों की उम्मीद बगैर धैर्य के करने के आदी हो चुके हैं और ऐसे में छोटे बदलाव हमारे लिए अक्सर तुच्छ होते हैं, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बड़े बदलावों के पीछे इन्हीं छोटे-छोटे प्रयासों का हाथ होता है। फुन्दीबाई हमारे उसी बदलाव की भूमिका को अपने ढंग से रच रही हैं।

सारंगी जिला झाबुआ की सरपंच बनीं फुन्दीबाई, खुद पढ़ी-लिखी नहीं होने से अशिक्षा से होने वाली हानियों से परिचित थीं, अतः फुन्दीबाई ने
  आदिवासी फुन्दीबाई प्रतिबद्ध महिला सरपंच हैं, जो उच्च जाति के दबदबे वाले क्षेत्र में साहस के साथ न केवल कार्य कर रही हैं, वरन अपने क्षेत्र में स्कूल वाली बाई के नाम से भी विख्यात हो गई हैं      
सर्वप्रथम शिक्षा को ही अपने एजेंडे में लिया और विशेषकर बालिका शिक्षा को प्राथमिकता दी। जब हम उनकी पंचायत में पहुँचे तो पूरे तीन वर्ष उनके कार्यकाल को हो चुके थे और पहला प्रश्न पूछते ही उन्होंने अपनी भोली बोली में जवाब दिया-'वगर भणेली सोरी, लाकड़ा नी लोगई बणी जावे' मतलब बगैर पढ़ी-लिखी लड़की एक काठ (लकड़ी) की पुतली बनी रहती है। उनकी अपनी फिलॉसफी है कि एक लड़की के पढ़ने से तीन घर सुधर जाते हैं। एक तो उसका मायका, दूसरा उसका खुद का घर यानी ससुराल और तीसरा उसकी होने वाली लड़की का घर।

उन्होंने अपनी पंचायत में ऐसी लड़कियों की सूची बनवाई जो स्कूल नहीं जा रही थीं और फिर उनके माता-पिता को प्रेरित करने का अभियान चलाते हुए उन्हें स्कूल जाने के लिए तैयार कर ही लिया। उन्हें समय जरूर लगा, परंतु उनकी कोशिश में रंग भर चुके थे। आज सारंगी में बालिकाओं ने हायर सेकंडरी की कक्षाओं में कदम रख दिया है और इस वर्ष करीब 22 बालिकाओं को स्कूल जाने के लिए शासकीय योजनाओं के चलते साइकल मिल चुकी है। फुन्दीबाई के हौसले और प्रयास का परिणाम तब निकलता हुआ दिखाई देता है कि जब पंचायत की बालिका से हम पूछते हैं कि वह क्या बनना चाहती है, तो वह दबंगता से कहती है- डॉक्टर...!

पंचायत के सभी स्कूलों में फुन्दीबाई स्वयं भ्रमण करती हैं और मध्यान्ह भोजन की गुणवत्ता से लेकर शिक्षा की गुणवत्ता जैसे पहलुओं तक को छूती हैं। जब हम उनसे मिलने पहुँचे थे तो वे स्वयं एक स्थान पर सफाई कर रही थीं। पूछने पर वे बताती हैं कि वानिकी विकास के लिए हमने पंचायत से प्रयास किए हैं और पौधों के बचाव के लिए कोई और नहीं मिला तो वे स्वयं ही कार्य में लग गईं। उनके चेहरे पर पसीने की बूँदों में सूर्य की किरणों से टकराकर इंद्रधनुष के सात रंग दिखाई दे रहे थे। ये वही रंग हैं जो उनके अरमानों में हैं। अनायास गाँधी की 'नई तालीम' भी याद आ गई, जिसमें उन्होंने व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा के बारे में कहा है।

अपनी तीन लड़कियों को भरपूर शिक्षा दे रहीं फुन्दीबाई स्वयं भी अपना अक्षर ज्ञान बढ़ा रही हैं। कम उम्र में विवाह के सामाजिक दबाव के
  पंचायत के सभी स्कूलों में फुन्दीबाई स्वयं भ्रमण करती हैं और मध्यान्ह भोजन की गुणवत्ता से लेकर शिक्षा की गुणवत्ता जैसे पहलुओं तक को छूती हैं। जब हम उनसे मिलने पहुँचे थे तो वे स्वयं एक स्थान पर सफाई कर रही थीं      
बावजूद वे अपनी लड़कियों को उच्च शिक्षा दिलवाने का ख्वाब रखती हैं। कम उम्र में विवाह की इस कुरीति के साथ-साथ वधू-मूल्य की परंपरा को भी कम करवाने के प्रयास में समाज से सीधे-सीधे लड़ रही हैं। वधू-मूल्य के तहत भील आदिवासी परंपरा में लड़के वालों की ओर से लड़की पक्ष को मूल्य चुकाने को कहा जाता है।

जीवन को जीना और जीवन को ढोना एक सिक्के के दो पहलू हैं। प्रत्येक जीव अपना अस्तित्व इन्हीं में खोज लेता है। सृजनशीलता का निरंतर प्रवाह जीवन को जीने के लिए प्रेरित करता है, वहीं 'जैसा है वैसा चलने देने' वाला जीवन सृजनशीलता के अभाव को प्रकट करता है। कई बार परिस्थितियाँ ऐसी रहती हैं, जो मानव को सृजनशीलता से विलग ही कर देती हैं। वहाँ जीवन को ढोना ही महत्वपूर्ण कार्य समझा जाता है।

एक और स्थिति होती है जीवन की, जहाँ सृजन तो होता है परंतु विसंगतियों का सृजन। देव व असुरों के मध्य विभेद का यह बिंदु भी प्रमुख रहा है। एक सृजन सद्कार्यों के लिए व दूसरा विध्वंस के लिए। फुन्दीबाई एक ऐसी ही प्रतीक हैं। तमाम विसंगतियों से निकलकर सर्वश्रेष्ठ सृजन कर देना ही हमारी छुपी महानता को प्रकट करता है। यही हमारे आदर्श के रूप में स्थापित भी होना चाहिए। आदर्शों की कमी का संकट आज हमारे चारों ओर विद्यमान है, लेकिन साथ ही साथ कई आदर्श हमारे चारों ओर स्थापित भी तो हो रहे हैं, बस देर इस बात की है कि उन्हें हमें पहचानना है और अपनाना है।
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