औरत! तेरी कोई नस्ल नहीं...!

अमृता प्रीतम

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अर्द्ध-नारीश्वर का फलसफ़ा इस बात की तस़दीक है कि दुनिया का पहला शायर सिर्फ़ मर्द नहीं था, औरत भी थी। ईसा से दो-ढाई हजार साल पहले या चार हजार साल पहले ऋग्वेद की रचना हुई और उसमें रोमिशा, लोपामुद्रा, इंद्राणी, सूर्या, सावित्री- यानी सत्ताईस ब्रह्मवादिनियों की रचनाएँ शामिल हैं।

उपनिषद् काल की गार्गी, मैत्रेयी, रामायण की अनुसूया, महाभारत की सुलभा ऐतिहासिक नाम हैं।

फिर वक्त आया जब अर्द्ध-नारीश्वर का फ़लसफ़ा खो गया और दासता पैदा हुई।

शिव-शक्ति जैसा चिंतन खो गया, तो जड़ता पैदा हुईशक्ति खो गई - तो उसके प्रति कर्म में से खौफ़ पैदा हुआ।

धर्म खो गया - तो उसके प्रतिकर्म में से मजहब पैदा हुआ।

आत्मा खो गई - तो शरीर एक वस्तु बन गया

बेचने और खरीदने की वस्तु...

शारीरिक और मानसिक दासता का इतिहास बहुत लंबा है, लेकिन साथ ही जद्दोजहद का इतिहास है, जो दुनिया की हर, अहसानमंद औरत ने अपनी कलम से भी लिखा और आँसुओं से भी...

इतिहास में जिस शायरा का जिक्र विस्तार से मिलता है, वह यूनान की शायरा सैफ़ो थीं - 610-580 ईसा पूर्व है। कहा जाता है कि सैफ़ो को यूनान छोड़कर सिसली में रहना पड़ा था और उसकी जिंदगी में, उसकी शायरी का कोई मजमूआ नहीं शाया हो सका। तीन या चार सौ साल बाद उसकी शायरी को खोज-खोजकर नौ संग्रह छापे गए। जापान का सदियों से मशहूर नाविल 'गेंजी की कहानी' एक औरत ने लिखा था, जिसका असली नाम आज तक कोई नहीं जानता। उसने वह नाविल नायिका मुरासाकी शिकिबू के नाम से लिखा था। सामाजिक हालात जरूर कुछ ऐसे रहे होंगे कि एक औरत अपनी रचना पर अपना नाम नहीं लिख सकी।

फ्रांस की लेखिका जार्ज सैंड के लिए थियेटर और साहित्य में इतनी कशिश थी कि उन्होंने रंगीन कपड़े उतारकर, खुले स्लेटी रंग के मर्दाना कपड़े पहन लिए। उनके अल्फाज हैं - 'मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि यह खुशियाँ एक बिचारी औरत के लिए नहीं होती...'

अँगरेजी साहित्य की ब्रांटे बहनों ने एक स्वप्न देखा था लेखक बनने का। यह शार्लोत, एमिली और ऐनौ तीनों नज़्में लिखती रहीं, लेकिन जब तीनों ने मिलकर पहली किताब शाया की, तो तीन मर्द नामों से। उनके अलफ़ाज हैं - 'हम जानती हैं, लोगों को शायर के तौर पर औरत का काम गवारा नहीं...'

आज उर्दू की अफ़साना-निगार इस्मत चुगताई कहती हैं - 'आगरे की मुर्दा गलियों में पहली बार मुझे अपने औरत होने का सदमा हुआ कि ख़ुदा ने औरत क्यों पैदा की? इस मरी पिटी मजबूर गुलाम हस्ती की क्या जरूरत थी।'

पिछले दिनों मराठी की एक शायरा सुशील पगारिया से बात हुई तो कहने लगीं 'औरत के न पाँव होते हैं, न पंख, न कोई धरती चलने के लिए, न कोई आसमान उड़ने के लिए...।'

कुछेक साल हुए जब डोगरी की शायरा पद्मा सचदेव को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था, तो उन्हें बंबई ऑल इंडिया रोडियो के स्टेशन डायरेक्टर का फ़ोन आया - 'पद्माजी! आकाशवाणी को आप पर गर्व है' - तो पद्मा की आँखें आँसुओं से भर आईं। याद आया जिन दिनों वे जम्मू रेडियो पर काम करती थीं, जब कवि सम्मेलनों में जाने लगीं, तो कुछ लोगों ने जम्मू रेडियो को दरख़्वास्त दी कि पद्मा को नौकरी से निकाल दिया जाए क्योंकि उनके रहने से आकाशवाणी का नाम बदनाम होगा...। पद्मा ने इसी दर्द को अलफ़ाज दिए - 'मेरे पंख छोटे हैं, उड़ान बहुत ऊँची है, मैं आसमान को कैसे थाम लूँ, चाँदनी को कैसे गले से लगाऊँ...'

और लिखा - टेढ़ी सिलाई, उधड़ा हुआ बखिया - यह जीना क्या जीना है।'

आज पाकिस्तान की शायरा सारा शगुफ़्ता जलते हुए अक्षरों में जो वक़्त की दास्तान लिख रही हैं, इससे इंसान का इतिहास शर्मिंदा है।

इज्जत का सबसे छोटा और सबसे बड़ा हवाला - औरत है
इज्जत के ताबूत में क़ैद की कीलें गाड़ी गईं
औरत! तू कोख में से बच्चे जनती है
इसीलिए आज तेरी कोई नस्ल नहीं...
तुम अपने जिस्म से औरत को नहीं नाप सकते...
मैं घर नापती हूँ तो ईंट हाथ में आती है
मैं आसमान बेचकर - चाँद नहीं कमाती...
मैं जमीन से ज्यादा जाग गई हूँ...

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