गुजरात में था अफ्रीकी मूल के लोगों का राज्य

Webdunia
बुधवार, 29 मार्च 2017 (12:32 IST)
- विकास पांडे (बीबीसी मॉनिटरिंग)
 
वो चाहे कारोबार की बात हो या संगीत की...चाहे धर्म की हो या कला की या फिर वास्तुकला की, भारत और अफ़्रीका का साझा इतिहास रहा है। लेकिन इन दोनों क्षेत्रों के ऐतिहासिक जुड़ाव के बारे में बहुत कम चर्चा सुनने को मिलती है।
 
दिल्ली समेत भारत के दूसरे शहरों में अफ्रीकी मूल के छात्रों पर कई बार हुए हमलों से ये ज़ाहिर होता है कि बहुत कम लोग इस ऐतिहासिक जुड़ाव के बारे में जानकारी रखते हैं। हाल ही में 'स्कॉमबर्ग सेंटर फॉर रिसर्च इन ब्लैक कल्चर ऑफ़ दी न्यूयॉर्क पब्लिक लाइब्रेरी' की ओर से भारत के इतिहास में अफ्रीका की भूमिका पर दिल्ली में एक प्रदर्शनी आयोजित की गई।
 
इस पेंटिंग में दिख रहा जलाशय 17वीं सदी में अफ्रीकी किन्नर मलिक संदल ने बनवाया था। छोटे बालों वाले इन अफ्रीकियों को भारत में 'हब्शी' के नाम से जाना जाता है। इनमें से ज्यादातर लोग 'हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका' से इस उपमहाद्वीप से आए थे।
 
स्कॉमबर्ग सेंटर के डॉक्टर सिल्वियाने ए डियोफ़ कहती हैं कि अफ्रीकी भारत में अपनी दिलेरी और प्रशासकीय क्षमता के बल पर कामयाब रहे। उन्होंने कहा, "अफ्रीकी पुरुषों को खास तरह के कामों के लिए लगाया जाता था। वे सैनिक, सुरक्षा गार्ड या फिर अंगरक्षक के तौर पर तैनात किए जाते थे। वे तरक्की की सीढ़िया चढ़ते हुए जनरल, एडमिरल और प्रशासक तक के ओहदे पर भी पहुंचे।"
 
17वीं सदी में ही कपड़े पर की गई इस चित्रकारी में दक्कन के सुल्तान अब्दुल्लाह कुत्ब शाह की जुलूस देखा जा सकता है। पेंटिंग में अफ्रीकी गार्डों को सुल्तान की फौज के हिस्से के तौर पर देखा जा सकता है।
 
प्रदर्शनी से जुड़ी केनेथ रॉबिन्स कहते हैं, "भारतीयों के लिए ये अहम है कि वे ये समझें कि अफ्रीकी भारत के कई सल्तनतों का खास हिस्सा रहे हैं और इनमें से तो कुछ ने अपना वंश भी शुरू किया था।" उन्होंने बताया, "शुरुआती प्रमाणों से पता चलता है कि अफ्रीकियों के भारत आने का सिलसिला चौथी सदी में ही शुरू हो गया था। लेकिन वे वास्तव में 14वीं से 17वीं सदी के बीच बतौर कारोबारी, कलाकार, शासक, वास्तुकला और सुधारक के तौर पर पनपे।"
 
1887 की ये सिदी डमाल की पेंटिंग कच्छ से है जिसमें मुस्लिम सिदी लोगों का लोक नृत्य देखा जा सकता है। यह नृत्य शैली पूर्वी अफ्रीका से भारत आई थी। दक्षिण भारत के दक्कन क्षेत्र के सल्तनतों के अलावा अफ्रीकी मूल के लोगों को पश्चिमी के तटीय इलाकों में भी तवज्जो दी गई। उनमें से कुछ अपना पारंपरिक संगीत और इस्लाम का सूफी मत भारत लेकर आए थे।
 
रॉबिन्स बताते हैं कि दक्कन के सुल्तानों ने अफ्रीकी सैनिकों पर भरोसा जताया क्योंकि उत्तर भारत के मुगल शासकों ने उन्हें अफगानिस्तान समेत मध्य एशिया के दूसरे देशों के लोगों को सेना में भर्ती करने की इजाज़त नहीं दी थी।
 
शवों के अंतिम संस्कार करने की जगह की ये तस्वीर संदल ने ही 1597 में बीजापुर में बनाई थी। बीजापुर अब दक्षिणी कर्नाटक में पड़ता है।
डॉक्टर डियोफ़ कहती हैं कि भारत के शासकों ने अफ्रीकी मूल के लोगों और उनकी काबिलियत पर भरोसा जताया। 
 
वह कहती हैं, "यह सही है, खासकर उन इलाकों में जहां आनुवांशिक तौर पर लोग कमज़ोर थे और वहां अलग अलग धड़ों के बीच सत्ता का संघर्ष चल रहा था। जैसा कि दक्कन के इलाके में था।"
 
1590 की बनी ये पेंटिंग दिखलाती है कि एक भारतीय शहज़ादा इथोपिया या पूर्वी अफ्रीका की ज़मीन पर खाना खा रहा है। अफ्रीकी मूल के लोग अपना संगीत भी भारत लेकर आए थे। अफ्रीकी सुरक्षा गार्डों को इस तस्वीर में देखा जा सकता है। यह तस्वीर 1904 में हैदराबाद में ली गई थी।
 
मलिक अम्बर उन ताकतवर इथोपियाई नेताओं में से थे जो जिन्हें खूब शोहरत मिली। ये 1548 से 1626 के दौरान की बात है। पश्चिमी भारत के औरंगाबाद ज़िले के पास खुल्दाबाद में मलिक अम्बर की कब्र आज भी है।
 
यह तस्वीर साचिन के नवाब सिदी हैदर खान की है।गुजरात के साचिन में 1791 में अफ्रीकी मूल के लोगों ने एक राज्य स्थापित किया था।
डॉक्टर डियोफ़ बताती हैं कि उनके पास अपना घुड़सवार फौज थी, एक बैंड था, जिसमें अफ्रीकी लोग शामिल थे, हथियार थे, मुद्रा थी और स्टाम्प पेपर भी थे।
 
उन्होंने कहा कि 1948 में जब देसी रजवाड़ों का भारत में विलय हो रहा था तो साचिन का भारत में विलय कर दिया गया। उस वक्त साचिन की 26000 आबादी थी जिसमें 85 फीसदी हिंदू और 13 फीसदी मुसलमान थे।
 
वे कहती हैं कि भारत के अतीत से जुड़े इन अफ्रीकी शख्सियतों को भुलाया नहीं गया है लेकिन उनकी अपनी पारंपरिक पहचान क्या था, इसे या जानबूझ कर या फिर अनजाने में मिटा दिया गया।
 
डॉक्टर डियोफ़ पूछती हैं, "उदाहरण के लिए, जिन लोगों ने मलिक अम्बर के बारे सुन रखा है, वे अमूमन ये नहीं जानते कि वह एक इथोपियाई था। क्या इसका मतलब यह होता है कि उन लोगों का मूल इतना गैरजरूरी था कि उसका जिक्र करना बेकार समझा जाए या फिर अफ्रीकी योगदान को बहुत सोच समझकर खारिज किया गया।"
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