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मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावी नतीजे क्या अगले पीएम की राह तय करेंगे?

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BBC Hindi

, बुधवार, 23 अगस्त 2023 (10:55 IST)
सलमान रावी ,बीबीसी संवाददाता, भोपाल से
इस साल के अंत तक मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के अलावा दक्षिण भारतीय राज्य तेलंगाना और मिज़ोरम में विधानसभा के चुनाव होंगे। इन चुनावों को लेकर राजनीतिक सरगर्मियां तेज़ हो गई हैं। भारतीय जनता पार्टी ने दो राज्यों में अपने उम्मीदवारों की पहली सूची भी जारी कर दी है, जिससे हलचल काफ़ी बढ़ गई है।
 
हालांकि अभी कांग्रेस ने अपने उम्मीदवारों की सूची जारी नहीं की है, लेकिन चुनाव की तारीख़ की घोषणा होने के काफ़ी पहले भारतीय जनता पार्टी ने मध्य प्रदेश में 39 और छत्तीसगढ़ में 21 उमीदवारों की लिस्ट जारी कर अटकलों के बाज़ार को और भी ज़्यादा गर्म कर दिया है।
 
मध्य प्रदेश में विधानसभा की 230 सीटें हैं जबकि छत्तीसगढ़ में 90। राजस्थान की विधानसभा की 200 सीटें हैं।
 
कुछ विश्लेषक इसे भारतीय जनता पार्टी की ‘रणनीति’ मान रहे हैं तो कुछ इस क़दम की अपनी तरह से व्याख्या भी कर रहे है। कुछ इसे ‘जल्दबाज़ी में उठाया गया क़दम’ भी कह रहे हैं।
 
हिमाचल और कर्नाटक में हुए विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस को मिली जीत को भी कुछ विश्लेषक इस जल्दबाज़ी का कारण मान रहे हैं।
 
ये चुनाव, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस, दोनों के लिए बहुत मायने रखते हैं क्योंकि पिछले विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस को मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जीत हासिल हुई थी।
 
इन राज्यों में किसी तीसरी राजनीतिक शक्ति की ग़ैर-मौजूदगी में मुक़ाबला कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच आमने-सामने का है।
 
जहाँ छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकारें पाँच सालों तक चलीं, वहीं मध्य प्रदेश में उनकी सरकार तब गिर गई जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने संगठन से बग़ावत करके अपने समर्थकों के साथ भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया।
 
कांग्रेस के 22 विधायक उनके साथ भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे, सरकार गिर गई जिसके बाद भारतीय जनता पार्टी फिर से मध्य प्रदेश की सत्ता में लौट आई।
 
आम चुनाव पर कितना असर?
हिंदी पट्टी के विधानसभा के चुनावों के नतीजों पर पूरे देश की नज़र रहेगी क्योंकि इनके परिणाम आते ही आने वाले लोकसभा के चुनावों में क्या कुछ होगा इसके कुछ तो संकेत मिलने लगेंगे। तो क्या ये मान लिया जाए कि इन राज्यों के परिणामों से समझा जा सकेगा कि आम चुनावों में ऊँट किस करवट बैठ सकता है?
 
कांग्रेस पर नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई ऐसा नहीं मानते। वो कहते हैं कि विधानसभा के चुनावों का ‘वोटिंग पैटर्न’ आम चुनावों से बिलकुल अलग होता है और ज़रूरी नहीं है कि राज्यों के चुनावों के नतीजों से इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सके कि कुछ ही महीनों के बाद होने वाले आम चुनावों पर इनका कितना असर पड़ेगा।
 
किदवई ने वर्ष 2014 के आम चुनावों का उदाहरण दिया और कहा, “उस समय नरेंद्र मोदी की लहर पर सवार भारतीय जनता पार्टी ने आम चुनावों में एक तरह से ‘स्वीप’ कर दिया था। भारी बहुमत के साथ केंद्र में उसकी सरकार बनी लेकिन उसके तुरंत बाद दिल्ली में विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें आम आदमी पार्टी को भारी बहुमत मिला था। तो ये कहना मुश्किल है कि पांच राज्यों और ख़ास तौर पर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा के चुनावों के परिणामों का असर आम चुनावों पर पड़ेगा।”
 
उन्होंने ओडिशा की भी मिसाल दी जहाँ विधानसभा में तो बीजू जनता दल यानी बीजेडी जीतती है जबकि लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी को अच्छी-ख़ासी सीटें मिल जाती हैं।
 
राजनीतिक टिप्पणीकार विद्याभूषण रावत अलग राय रखते हैं। वो कहते हैं कि 2018 कई राज्यों के विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस को जीत हासिल हुई थी लेकिन वर्ष 2019 में हुए आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को भारी सीटें इसलिए मिलीं थीं कि कांग्रेस में अंदरूनी कलह चल रही थी। मगर वो कहते हैं, इस बार के विधानसभा के चुनाव बहुत मायने रखेंगे और उसके नतीजे भी आम चुनावों को प्रभावित करेंगे।
 
कैसे? ये पूछे जाने पर वो कहते हैं, “पिछले आम चुनावों में कांग्रेस कमज़ोर थी। राहुल गाँधी के नेतृत्व पर सवाल उठ रहे थे, मगर इन कुछ एक सालों में राहुल में राजनीतिक परिपक्वता देखने को मिली। अगर हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में कांग्रेस का बेहतर प्रदर्शन रहता है या वो जीत हासिल करती है तो जो विभिन्न विपक्षी दलों का नया गठबंधन, जो राष्ट्रीय स्तर पर बना है, उसमें कांग्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी और इससे भारतीय जनता पार्टी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। लेकिन अगर कांग्रेस इन तीन राज्यों में कामयाब नहीं होती है तो आम चुनावों में भाजपा को एक तरह से ‘वाक ओवर’ मिल जाएगा यानी दिल्ली की सत्ता में फिर वापसी का उनका रास्ता आसान हो जाएगा।”
 
राजनीतिक विश्लेषक और उज्जैन स्थित ‘मध्य प्रदेश इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस एंड रिसर्च’ के निदेशक यतिंदर सिंह सिसोदिया कहते हैं कि इन तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि गुजरात और उत्तर प्रदेश के बाद लोकसभा में अगर भाजपा को सबसे ज़्यादा सीटें मिलीं थीं तो वो इसी इलाके से मिलीं थीं।
 
बीबीसी से बात करते हुए वो कहते हैं, “अगर तीन राज्यों में भाजपा का ख़राब प्रदर्शन होता है तो फिर उसके पास सिर्फ़ उत्तर प्रदेश, असम, गुजरात और उत्तराखंड जैसे राज्य ही रह जायेंगे। इन तीन राज्यों में सिर्फ़ दो ही राजनीतिक दलों का दबदबा रहा है इसलिए लोकसभा चुनावों में विपक्ष की एकता पर यहाँ के नतीजों का असर ज़रूर पड़ेगा।”
 
सिसोदिया के अनुसार लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के दो कार्यकाल उसके इतिहास के सबसे स्वर्णिम कार्यकाल हैं जब पूर्ण बहुमत के साथ वो सत्ता में बनी रही। वहीं कांग्रेस के लिए आज़ादी के बाद ये राजनीतिक दौर सबसे निचले पायदान पर है इसलिए वो कहते हैं कि कांग्रेस और भाजपा, दोनों के लिए इन विधानसभा के चुनावों के नतीजे बहुत मायने रखेंगे।
 
राजस्थान
राजस्थान की राजनीति बड़े दिलचस्प मोड़ पर आकर खड़ी हुई है जहाँ कांग्रेस के नेता सचिन पायलट और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच रस्साकशी चलती ही आ रही है। वहीं भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को पार्टी ने चुनाव की किसी भी समिति से दूर ही रखा है। दोनों प्रमुख संगठनों की अंदरूनी कलह अब जनता के सामने है।
 
वैसे जानकार कहते हैं कि राजस्थान में दोनों ही दलों का पलड़ा ऊपर-नीचे होता रहता है, राजस्थान की जनता ने ऐतिहासिक तौर पर लंबे समय से किसी पार्टी को दूसरा मौक़ा नहीं दिया है।
 
मसलन, वर्ष 2008 और 2018 के आम चुनावों में कांग्रेस को जीत मिली थी लेकिन 200 सीटों वाली विधानसभा में उसे बहुमत के लिए ज़रूरी 101 सीटें नहीं मिल पाई थीं। निर्दलीय और दूसरे छोटे दल के विधायकों के समर्थन से कांग्रेस ने सरकार चलाई।
 
चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि जहाँ वर्ष 2008 में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच वोटों का अंतर सिर्फ़ 3 प्रतिशत था, ये अंतर वर्ष 2018 में सिर्फ़ एक प्रतिशत पर आ गया था, यानी कांटे की टक्कर।
 
लेकिन जब वर्ष 2013 में भारतीय जनता पार्टी को जीत हासिल हुई थी तो उस समय दोनों दलों के बीच वोटों का अंतर 10 प्रतिशत का था, तब कांग्रेस को सिर्फ़ 21 सीटें मिलीं थीं जबकि भारतीय जनता पार्टी की झोली में 163 सीटें आयीं थी। ये प्रचंड बहुमत था।
 
राजस्थान में फिलहाल दोनों ही दल अपने पत्ते खोलने में कोई जल्दबाज़ी नहीं दिखा रहे हैं और एक एक क़दम बहुत नाप-तौलकर रख रहे हैं। वैसे भी राजस्थान में हर पांच सालों के बाद सत्ता परिवर्तन का एक रिवाज चला आ रहा है और विश्लेषक कहते हैं कि इसलिए कांग्रेस के सामने इस बार के चुनावों में काफ़ी चुनौतियां हैं, पार्टी की अंदरूनी कलह जो सार्वजनिक है और सत्ता विरोधी भावना भी है।
 
मध्य प्रदेश
भारतीय जनता पार्टी ने जिन 39 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की है इनमें अधिकतर वो सीटें हैं जिन पर क्षेत्र के दिग्गजों ने कांग्रेस के टिकट पर जीत हासिल की है। इनमें 38 सीटों पर कांग्रेस के विधायक हैं जबकि एक सीट बहुजन समाज पार्टी के पाले में है। ये इलाके मूलतः आदिवासी बहुल या अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़े वर्ग की ज़्यादा आबादी वाले हैं।
 
प्रदेश कांग्रेस कमिटी के मीडिया प्रकोष्ठ के अध्यक्ष केके मिश्रा ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि जिन सीटों पर उम्मीदवारों की सूची भाजपा ने जारी की है ये वो सीटें हैं जिन पर कांग्रेस के मौजूदा विधायक हैं। और सभी अपने-अपने क्षेत्र में बड़ा प्रभाव रखते हैं जैसे राऊ की सीट से जीतू पटवारी जो राहुल गाँधी की 'भारत जोड़ो यात्रा' में उनके साथ आगे-आगे नज़र आए।
 
इसी तरह कसरावद से पूर्व मंत्री सचिन यादव, सोनकच्छ से सज्जन सिंह वर्मा और झाबुआ से मध्य प्रदेश में कद्दावर आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया जैसे विधायक हैं जिन्हें हरा पाना मुश्किल है।
 
भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता हितेश वाजपेयी पार्टी के इस क़दम को ‘चुनावी रणनीति’ की संज्ञा देते हुए स्वीकार करते हैं कि ये वो सीटें हैं जहां उनके उम्मीदवारों का अच्छा प्रदर्शन नहीं रहा है।
 
वो कहते हैं, “इन सीटों पर कांग्रेस के जीते हुए विधायकों को चुनाव की तैयारी करने का पर्याप्त समय मिला इसलिए हमने भी इन सीटों पर उम्मीदवारों की सूची इसलिए जारी कर दी ताकि वो कांग्रेस से लोहा लेने के लिए ज़मीनी स्तर पर काम करना शुरू कर दें। हर चुनाव की अपनी अलग तासीर होती है। उसी के हिसाब से चुनाव लड़ने की रणनीति भी बनाई जाती है। हम भी ऐसा ही कर रहे हैं।”
 
वरिष्ठ पत्रकार संजय सक्सेना कहते हैं कि हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हार से सबक़ लेते हुए भाजपा हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों में ‘किसी तरह का जोखिम’ नहीं उठाना चाहती है।
 
बीबीसी से बात करते हुए वो कहते हैं, “संभवत: इसीलिए चुनाव आयोग ने मतदान की तारीक़ों की बेशक घोषणा नहीं की हो, दो राज्यों में प्रत्याशियों की पहली सूची जारी करके भाजपा यह संकेत देने की कोशिश की है कि वह चुनाव की तैयारियों में कांग्रेस से बहुत आगे है।”
 
भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में पिछले विधानसभा चुनावों में यानी 2018 में कांटे की टक्कर थी। वो बात और है कि कांग्रेस की झोली में 114 सीटें आयीं थीं जबकि भाजपा को 109 सीटें मिलीं थीं लेकिन दोनों ही दलों का ‘वोट शेयर’ लगभग बराबर का ही था, भाजपा का वोट शेयर 41.02 प्रतिशत था, वहीं कांग्रेस का 40.89 प्रतिशत था।
 
लेकिन पूर्ववर्ती चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के बीच वोट शेयर का भारी अंतर रहा है। यतिंदर सिंह सिसोदिया कहते हैं कि वोट शेयर में सिर्फ़ एक प्रतिशत अंतर ही कई सीटों के नतीजों को प्रभावित कर सकता है इसलिए दोनों ही दल पूरी ज़ोर आज़माइश कर रहे हैं।
 
छत्तीसगढ़
पिछले विधानसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार इतनी करारी थी कि वो 90 में से 15 सीटों पर सिमट गई थी। वर्ष 2000 में मध्य प्रदेश से अलग होकर अस्तित्व में आए इस प्रदेश में भाजपा की इतनी करारी हार पहले कभी नहीं हुई थी।
 
छत्तीसगढ़ में पिछले विधान सभा के चुनावों में भाजपा का वोट शेयर भी बहुत ज़्यादा नीचे गिरा। 2018 के विधानसभा के चुनावों में भाजपा का वोट शेयर घटकर 32.29 पर आ गया था जबकि कांग्रेस ने 68 सीटें जीतीं थीं और उसका वोट शेयर 43.04 था।
 
इससे पहले 2008 और 2013 के विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत हुई थी मगर कांग्रेस के साथ उसकी कांटे की टक्कर रही।
 
चुनावों की घोषणा से पहले ही भाजपा ने 21 सीटों पर अपने उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है जिसमे सबसे महत्वपूर्ण नाम है सांसद विजय बघेल का जिनको पाटन विधानसभा सीट से टिकट दिया गया है। ये सीट मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पिछले विधानसभा चुनाव में जीती थी। विजय बघेल दुर्ग से भाजपा के सांसद हैं और वो कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के रिश्तेदार भी हैं।
 
दूसरी सीट है रामानुजगंज की जहां राज्यसभा के सांसद रहे चुके रामविचार नेताम को पार्टी ने उम्मीदवार घोषित किया है। नेताम क़द्दावर आदिवासी नेता हैं और वो भारतीय जनता पार्टी के अनुसूचित जनजाति मोर्चा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं।
 
छत्तीसगढ़ कांग्रेस कमिटी के प्रवक्ता आरपी सिंह कहते हैं कि मध्य प्रदेश की तरह ही भाजपा ने उन सीटों के उम्मीदवारों की घोषणा की है जहाँ वे हार गए थे।
 
बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने इन उम्मीदवारों को ‘बलि के बकरे’ की संज्ञा दी और दावा किया कि छत्तीसगढ़ ऐसा राज्य है जहां कांग्रेस ‘सबसे ज़्यादा मज़बूत’ स्थिति में है।
 
इस पर छत्तीसगढ़ भाजपा के वरिष्ठ नेता अजय चंद्राकर का कहना था कि संगठन ने इन सीटों पर पहले ही उम्मीदवारों की घोषणा की है ताकि उन्हें तैयारी करने का पूरा मौक़ा मिले। वो कहते हैं कि विजय बघेल को उम्मेदवार बनाए जाने के बाद अब देखना ये होगा कि मुख्यमंत्री उसी सीट से लड़ते हैं या वो अपने लिए कोई दूसरी सीट ढूंढेंगे।
 
हालांकि पहली सूची के बाद छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश दोनों जगह भाजपा के अंदर से विरोध के स्वर मुखर होने लगे हैं। मध्य प्रदेश में तो पार्टी के नेताओं ने सड़क पर उतारकर विरोध प्रदर्शन भी किया है।
 
वरिष्ठ पत्रकार संजय सक्सेना कहते हैं कि इसीलिए भाजपा ने इतने पहले सूची जारी की है ताकि विरोध से समय रहते निपटा जा सके। उनका कहना है कि अगर आखिरी क्षणों में सूची जारी होती तो विद्रोह और विरोध से संगठन को निपटना मुश्किल हो जाता।
 

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