छत्तीसगढ़ के बस्तर में बसाए गए बांग्लादेशी शरणार्थियों और स्थानीय आदिवासियों के बीच संघर्ष बढ़ता जा रहा है। आदिवासियों का आरोप है कि 1960-70 के दशक में बसाए गए शरणार्थी आज कई इलाकों में बहुसंख्यक हो गए हैं और वे आदिवासियों के अधिकारों पर कब्जा कर रहे हैं।
जबकि बंग समाज का मानना है कि शरणार्थियों के नाम पर कुछ आदिवासी नेता राजनीति कर रहे हैं। पिछले साल नवंबर में ही छत्तीसगढ़ सरकार ने बंगाली समाज की छह जातियों को पिछड़ा वर्ग में शामिल करने का आदेश दिया है। लेकिन बस्तर के अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग के लोग इसके ख़िलाफ़ हैं और इस मुद्दे पर सड़कों पर भी आंदोलन हो चुका है।
बीते बुधवार को बस्तर के सात ज़िलों में सर्व आदिवासी समाज ने जब बंद का आयोजन किया तो आदिवासी लड़कियों के साथ सुरक्षाबलों द्वारा कथित यौन प्रताड़ना और औद्योगिक विकास तो मुद्दा था ही, 1960-61 और फिर 1971-72 में बांग्लादेश से आए शरणार्थियों के खिलाफ लड़ाई भी बंद का बड़ा मुद्दा था।
विरोध की वजह
बंद का मिलाजुला असर नज़र आया। अलग-अलग क्षेत्र से आने वाली ख़बरों के अनुसार कई इलाकों में दुकानें पूरी तरह बंद रहीं तो कहीं-कहीं यातायात भी प्रभावित हुआ। सर्व आदिवासी समाज के नेता राजाराम तोड़ेम का आरोप था कि बस्तर में जितने लोगों को 60 और 70 के दशक में बसाया गया था, उनकी बजाय लाखों दूसरे लोगों ने बस्तर में घुसपैठ कर अपनी जगह बना ली।
आदिवासी नेताओं का तर्क है कि 60 और 70 के दशक में बसाए गए लोगों की संख्या महज 503 थी। दशकीय वृद्धि के हिसाब से यह आंकड़ा चार दशकों में लगभग 50 हज़ार होनी थी लेकिन केवल पखांजूर तहसील में ही इनकी जनसंख्या डेढ़ लाख के आसपास है।
राजाराम तोड़ेम कहते हैं, "विदेशी लोगों ने ज़मीनें ख़रीद ली, आदिवासियों के संसाधनों पर कब्ज़ा कर लिया। अब आदिवासी कहां जाएं।"
तोड़ेम की नाराज़गी को पिछले महीने स्थानीय आदिवासी और बांग्लादेशी शरणार्थियों के बीच की लड़ाई से भी जोड़कर देखा जा सकता है, जब विश्व आदिवासी दिवस पर दोनों समुदायों के बीच जमकर मारपीट हुई और फिर मुक़दमा भी दर्ज़ हुआ।
राजनीति
लेकिन बंग समाज के प्रदेश अध्यक्ष असीम राय पूरे प्रकरण से दुखी हैं। राय का कहना है कि कुछ आदिवासी नेता बंग समाज और आदिवासियों के बीच फूट डालकर अपनी राजनीति कर रहे हैं। भाजपा से जुड़े राय ने बीबीसी से बातचीत में कहा, "आदिवासी समाज और बंगाली समाज के लोग बरसों से मिल जुलकर रहते आये हैं। लेकिन कुछ ऐसे नेता, जिनका कोई राजनीतिक आधार नहीं बचा है, वे दोनों समुदायों को लड़ाने की कोशिश कर रहे हैं।"
बुधवार के बस्तर बंद और आदिवासी बनाम बांग्लादेशी शरणार्थियों के मुद्दे पर हमने राज्य सरकार के मंत्री और अफसरों से बातचीत करने की कोशिश की लेकिन इस मुद्दे पर किसी की प्रतिक्रिया हमें नहीं मिल पाई। लेकिन छत्तीसगढ़ की राजनीति की समझ रखने वालों का मानना है कि बस्तर में कमज़ोर पड़ती भाजपा, आने वाले विधानसभा चुनाव में इसे भी एक बड़ा मुद्दा बनाने की तैयारी में है।
ज़ाहिर है, कुछ विधानसभा क्षेत्रों में निर्णायक वोट बैंक साबित होने वाले बंगाली समाज की नाराज़गी कोई भी उठाने के लिये तैयार नहीं है और आदिवासियों को तो नाराज़ करने का कोई सवाल ही नहीं उठता।