अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के 30 दिन बाद धंधा हुआ मंदा और हवा में फैला ख़ौफ़

BBC Hindi
शुक्रवार, 17 सितम्बर 2021 (12:59 IST)
सिकंदर किरमानी (बीबीसी संवाददाता, मज़ार-ए-शरीफ़)
 
उज़्बेकिस्तान की तरफ से सीमा पार कर कुछ मालवाहक गाड़ियां अफ़ग़ानिस्तान यानी नए बने 'इस्लामिक अमीरात' की तरफ आ रही हैं। अफ़ग़ानिस्तान से सटी उज़्बेकिस्तान की सीमा पर दूर से ही उज़्बेक राष्ट्रीय झंडे का पास तालिबान का काला और सफेद झंडा लहराता दिखता है।
 
उज़्बेकिस्तान से इस रास्ते अफ़ग़ानिस्तान आ रहे कुछ व्यापारी अफ़ग़ानिस्तान में हुए सत्ता के परिवर्तन से खुश नज़र आते हैं। गेंहू से लदा ट्रक चला रहे एक ड्राइवर ने मुझसे कहा कि अफ़ग़ानिस्तान सीमा पार करने के बाद हर चेक नाके पर उन्हें भ्रष्ट पुलिस अफ़सरों को घूस देनी होती थी लेकिन 'अब ऐसा नहीं है।'
 
उन्होंने कहा कि 'मैं गाड़ी लेकर सीधा काबुल तक पहुंचा और मुझे रास्ते में किसी को एक पैसा भी घूस नहीं देना पड़ा।'
 
अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का कब्ज़ा हुए अब एक महीने का वक़्त हो गया है। देश में कैश की भारी किल्लत है और फिलहाल तालिबान के सामने सबसे बड़ी चुनौती सामने मुंह बाये खड़े आर्थिक संकट का समाधान खोजना है।
 
व्यापारियों के समुदाय से जुड़े एक सूत्र ने मुझे बताया कि बाहर से सामान आयात करने वाले अफ़ग़ान व्यापारी क़ीमत नहीं चुका पा रहे हैं जिस कारण व्यापार अब काफी सुस्त हो गया है।
 
वहीं उज़्बेकिस्तान के साथ सटी अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर मौजूद हयारतन बंदरगाह में तालिबान के कस्टम्स प्रमुख मौलवी सईद कहते हैं कि व्यापार बढ़ाने के लिए तालिबान वस्तुओं पर लगने वाले कर को कम कर रहा है और चाहता है कि धनी व्यापारी देश लौटें और यहां की अर्थव्यवस्था में योगदान करें।
 
उन्होंने कहा, 'इससे यहां के लोगों के लिए नौकरियां पैदा होंगी और इन व्यापारियों को जन्नत में अल्लाह से ईनाम मिलेगा।'
 
इस बंदरगाह से क़रीब एक घंटे की ड्राइव पर मौजूद है देश का चौथा सबसे बड़ा शहर मज़ार-ए-शरीफ़। यहां सतही तौर पर देखा जाए तो यहां आम जनजीवन सामान्य दिखता है। हालांकि यहां कई परिवार फिलहाल आर्थिक तंगी से गुज़र रहे हैं।
 
मज़ार-ए-शरीफ़ शहर के बीचोंबीच नीले रंग की मस्जिद है जिस पर खूबसूरत नक्काशी की गई है। इसी साल मैं अगस्त के महीने में मैं यहां आया था। उस वक़्त तालिबान सत्ता में नहीं था और यहां बड़ी संख्या में लड़के और लड़कियां सेल्फ़ी लेते दिख जाते थे।
 
अब तालिबान के सत्ता में आने के बाद मस्जिद में पुरुषों और महिलाओं के आने का अलग-अलग वक़्त तय कर दिया गया है। महिलाएं सवेरे मस्जिद आ सकती हैं जबकि दिन के बाकी वक़्त पुरुषों को यहां आने की इजाज़त है।
 
अगस्त में जब मैं यहां आया था तब यहां मुझे बड़ी संख्या में महिलाएं दिखी थीं जो मस्जिद परिसर में घूम रही थीं, लेकिन अब महिलाओं की संख्या बेहद कम है।
 
थोड़ा हिचकते हुए एक महिला मुझे बताया, 'यहां फिलहाल सब चीज़ें ठीक ही हैं लेकिन नई सरकार की आदत पड़ने में अभी वक्त लगेगा।'
 
यहां मेरी मुलाक़ात हाजी हिकमत से हुई जो तालिबान के स्थानीय नेता हैं। मैंने उनसे कहा कि 'आप इस जगह को सुरक्षित बना रहे हैं लेकिन आपके आलोचक कहते हैं कि आप यहां की संस्कृति को ख़त्म कर रहे हैं।'
 
हाजी हिकमत इससे इनकार करते हैं। वो कहते हैं, 'बीते बीस सालों से यहां पश्चिमी संस्कृति का असर रहा है। 40 सालों तक अफ़ग़ानिस्तान का नियंत्रण एक विदेशी के हाथ से निकल कर दूसरे विदेशी के हाथ में गया है और इस कारण हमारी संस्कृति नष्ट हो गई है। हम यहां फिर से अपनी संस्कृति वापस लाने की कोशिश कर रहे हैं।'
 
उनकी समझ के अनुसार इस्लाम में पुरुषों और महिलाओं के साथ बैठने में या काम करने पर पाबंदी है।
 
हाजी हिकमत मानते हैं कि तालिबान को लोगों का पूरा समर्थन मिल रहा है। हालांकि उनसे थोड़ी दूर मेरे एक सहयोगी के कान में मस्जिद आई एक महिला ने फुसफुसा कर कहा 'ये अच्छे लोग नहीं हैं।'
 
तालिबान की इस्लाम को लेकर समझ का यहां के ग्रामीण और सामाजिक रूप से रूढ़ीवादी तबकों में विरोध होगा इसकी कम ही संभावना है, लेकिन बड़े अफ़ग़ान शहरों में कई लोग इस समूह को लोकर आशंकित हैं।
 
हाजी हिकमत कहते हैं कि ये सब बीते सालों में चलाए गए 'प्रोपोगैंडा' के कारण है लेकिन यहां के शहरों में हुए आत्मघाती हमले और चुने हुए लोगों की हत्याएं इस बात की तरफ इशारा है कि लोगों में डर बेवजह नहीं।
 
मस्जिद से आगे बढ़ने पर एक जगह पर बीच सड़क पर हमें बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ दिखी। ये जानने की कोशिश में कि वहां क्या हुआ है, हमने भीड़ से अपना रास्ता निकाला और बीच में पहुंचे। वहां लोगों के देखने के लिए चार लाशें रखी गई थीं जिन पर गोलियों से निशान थे।
 
एक मृत व्यक्ति के हाथ में एक कागज़ का टुकड़ा था जिस पर लिखा था कि वो लोग अपहरणकर्ता है। दरअसल ये चेतावनी थी कि इस तरह के अपराध की सज़ा कैसी होगी।
 
कड़ी धूप थी और इन शवों से तेज़ दुर्गंध आ रही थी। लेकिन वहां खड़ी भीड़ में से कई लोग उनकी तस्वीरें ले रहे थे और कई शवों को दखने के लिए एक दूसरे को धक्का देते हुए आगे आ रहे थे।
 
लंबे वक्त से अफ़ग़ानिस्तान के बड़े शहरों में हिंसक अपराध एक बड़ी समस्या रहे हैं और तालिबान के आलोचक भी मानते हैं कि इन अपराधों को रोकने में और सुरक्षा बढ़ाने में तालिबान सफल रहा है। सड़क पर खड़े एक व्यक्ति ने मुझसे कहा, 'अगर ये अपहरणकर्ता थे तो ये अच्छी बात है। दूसरों के लिए ये बढ़िया सबक साबित होगा।'
 
लेकिन शहर में रहने वाले अधिकांश लोग खुद को अब सुरक्षित महसूस नहीं करते।
 
क़ानून की पढ़ाई कर रही फरज़ाना कहती हैं, 'जब भी मैं घर से बाहर निकलती हूं मैं तालिबान के लड़ाकों को देखती हूं और मैं डर से सिहर उठती हूं।'
 
वो एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करती हैं। अफ़ग़ानिस्तान में सरकारी यूनिवर्सिटी फिहलाल बंद कर दी गई हैं लेकिन प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाई चालू है।
 
देश पर तालिबान के कब्ज़े के बाद यहां छात्र और छात्राएं एक कमरे में बैठ कर पढ़ाई तो कर रहे हैं लेकिन दोनों के बैठने की जगह के बीच अब पर्दा लगा दिया गया है।
 
हालांकि फरज़ाना कहती हैं कि वो इस बारे में सोच नहीं रहीं क्योंकि उन्हें इसकी चिंता नहीं है कि पढ़ाई कैसे हो रही है। वो कहती हैं कि उन्हें चिंता तो इस बात की है कि तालिबान शायद महिलाओं को काम न करने दे। हालांकि तालिबान से इससे पहले कहा था कि उसके शासन में महिलाओं को नौकरी करने से रोका नहीं जाएगा।
 
लेकिन फिलहाल अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं से कहा गया है कि स्वास्थ्यकर्मी और डॉक्टर को छोड़ कर अन्य महिलाएं अपनी सुरक्षा के लिहाज़ से वो घर पर ही रहें।
 
फरज़ाना कहती हैं, 'अभी की बात करूं तो मुझे कोई उम्मीद नहीं है। लेकिन मैं भविष्य को लेकर नाउम्मीद नहीं होना चाहती और आशावादी रहने की कोशिश कर रही हूं।'
 
बीस साल पहले अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार ने अभी के मुक़ाबले बेहद सख्त पाबंदियां लगाई थीं। उस वक़्त परिवार के किसी पुरुष के बिना महिलाओं के लिए घर से निकलने पर मनाही थी।
 
अफ़ग़ानिस्तान के अधिकांश शहरों में लोगों को यो डर सता रहा है कि तालिबान एक बार फिर वही 20 साल पुरानी पाबंदियां लागू करेगा।
 
तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर तो कब्ज़ा कर लिया है लेकिन उसके लिए यहां के लोगों के दिलों को जीतना अभी बाक़ी है।
 
हाजी हिकमत भी मानते हैं, 'फ़ौज की मदद से देश को अपने कब्ज़े में लेना मुश्किल था, लेकिन क़ानून लागू करना और उसको बचाना अधिक मुश्किल है।'
 
(बीबीसी संवाददाता मलिक मुदस्सिर और बीबीसी संवाददाता शम्स अहमदज़ई के साथ।)

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