अंग्रेज़ों ने चीन से चाय उगाने का सदियों पुराना राज़ कैसे चुराया?

Webdunia
गुरुवार, 20 दिसंबर 2018 (11:38 IST)
- ज़फ़र सैयद (बीबीसी उर्दू, इस्लामाबाद)
 
लंबे-तड़ंगे रॉबर्ट फ़ॉर्च्यून ने कुली के आगे सिर झुका दिया। उसने एक उस्तरा निकाला और फ़ॉर्च्यून के सिर का शुरुआती हिस्सा मुंडने लगा। या तो उस्तरा इतना कुंद था या फिर कुली ही ऐसा अनाड़ी था कि फ़ॉर्च्यून को लगा कि 'जैसे वह मेरा सिर मूंड नहीं रहा बल्कि खुरच रहा है।' उसकी आंखों से आंसू जारी होकर गालों पर ढुलकने लगे।
 
 
यह घटना सिंतबर 1848 में चीनी शहर शंघाई से कुछ दूर हुई थी। फ़ॉर्च्यून ईस्ट इंडिया कंपनी का जासूस था जो चीन के अंदरूनी इलाक़ों में जाकर वहां से चाय की पत्तियां चुराने के काम पर आया हुआ था।
 
 
लेकिन उस मक़सद के लिए उन्हें सबसे पहले भेष बदलना था जिसकी पहली शर्त है कि वह चीन रिवाज के मुताबिक़ माथे के ऊपरी हिस्से से बाल मुंडवा लें। इसके बाद फ़ॉर्च्यून के बालों में एक चोटी जोड़ दी गई और चीनी वस्त्र पहना दिए गए। साथ ही उन्हें कहा गया कि वह अपना मुंह बंद रखें।
 
 
हालांकि, एक दिक्कत और थी जिसे छिपाना आसान नहीं था। फ़ॉर्च्यून का क़द आम चीनियों के मुक़ाबले एक फ़ुट से भी लंबा था। उसका हल उन्होंने कुछ यूं निकाला कि लोगों से कह दिया जाएगा कि वह चीन की दीवार के दूसरी ओर से आए हैं जहां के लोग लंबे होते हैं।
 
 
इस काम में बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ था। अगर फ़ॉर्च्यून कामयाब हो जाता तो चाय पर चीन का हज़ारों साल का आधिपत्य समाप्त हो जाता और ईस्ट इंडिया कंपनी हिंदुस्तान में चाय उगाकर सारी दुनिया में बेचना शुरू कर देती।
 
 
लेकिन दूसरी ओर अगर वह पकड़ा जाता तो उसकी सिर्फ़ एक ही सज़ा थी, मौत। उसकी वजह ये थी कि चाय की पैदावार चीन में एक राज़ थी और उसके शासक सदियों से इस राज़ को छिपाने के लिए पूरी कोशिश करते आए थे।
 
 
दो अरब प्यालियां रोज़ाना
एक रिसर्च के मुताबिक़, पानी के बाद चाय दुनिया का सबसे प्रसिद्ध पेय पदार्थ है और दुनिया में रोज़ तकरीबन दो अरब लोग अपने दिन की शुरुआत चाय के गर्म प्याले से करते हैं। ये अलग बात है कि इस दौरान कम ही लोगों के दिमाग़ में ये ख़याल आता होगा कि यह चीज़ उन तक कैसे पहुंची।
 
 
चाय की ये कहानी किसी रहस्यमय उपन्यास से कम नहीं है। ये ऐसी कहानी है जिसमें जासूसी रोमांच भी है, भाग्यशाली क्षण भी और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं भीं।
 
 
हवा में उड़ती पत्तियां
चाय की शुरुआत कैसे हुई, इसके बारे में कई कहानियां मशहूर हैं। एक में मशहूर चीनी बादशाह शिनूंग ने सफ़ाई के इरादे के बाद तमाम जनता को आदेश दिया कि वह पानी उबालकर पिया करें।
 
 
एक दिन किसी जंगल में बादशाह का पानी उबल रहा था कि चंद पत्तियां हवा से उड़कर बर्तन में जा गिरीं। शिनूंग ने जब ये पानी पिया तो न सिर्फ़ उसे स्वाद पसंद आया बल्कि उसे पीने से उसके बदन में चुस्ती भी आ गई। ये चाय की पत्तियां थीं और उनको पीने के बाद बादशाह ने जनता को आदेश दिया कि वह उसे आज़माएं। इसके बाद ये पेय पदार्थ चीन के कोने-कोने तक पहुंच गया।
 
 
यूरोप को सबसे पहले 16वीं सदी में चाय के बारे में पता चला जब पुर्तगालियों ने इसकी पत्ती का व्यापार शुरू किया। एक सदी के अंदर-अंदर चाय दुनिया के विभिन्न इलाक़ों में पी जाने लगी। लेकिन ख़ासतौर पर ये अंग्रेज़ों को उतनी पंसद आई कि घर-घर पी जाने लगी।
 
 
ईस्ट इंडिया कंपनी पश्चिम से हर सामान की व्यापार की ज़िम्मेदार थी। उसे चाय की पत्ती महंगे दामों पर चीन से ख़रीदनी पड़ती थी और वहां से लम्बे समुद्री रास्ते से दुनिया के बाक़ी हिस्सों में यह पहुंचती थी जहां इसके दाम बढ़ जाते थे। इस वजह से अंग्रेज़ चाहते थे कि वह ख़ुद हिंदुस्तान में इसे उगाएं ताकि चीन का पत्ता कट जाए।
 
 
इस इरादे में सबसे बड़ी रुकावट ये थी कि चाय का पौधा कैसे उगता है और इससे चाय कैसे हासिल की जाती है, इसके बारे में किसी को भी नहीं मालूम था। यही कारण था कि कंपनी ने रॉबर्ट फॉर्च्यून को इस पर जासूसी के लिए भेजा था।
 
 
इस मक़सद के लिए उसे चीन के उन इलाक़ों तक जाना था जहां शायद मार्को पोलो के बाद किसी यूरोप के शख़्स ने क़दम नहीं रखा था। उसे मालूम हुआ था कि फ़ोजियान प्रांत के पहाड़ों में सबसे अच्छी काली चाय उगती है इसलिए उसने अपने एक साथी को वहां जाने के लिए कहा।
 
 
फ़ॉर्च्यून ने सिर मुंडवाने, नक़ली चोटी रखने और चीनी व्यापारियों की तरह वेश धारण करने के अलावा अपना एक चीनी नाम भी रखा था, जो सींग हुवा था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने उसे ख़ासतौर पर यह आदेश दिया था कि वह बेहतरीन चाय के पौधे और बीज के अलावा ऐसे पौधों की खेती और उगाने की तकनीक हासिल करके आए जो हिंदुस्तान में पैदा किया जा सके। इस काम के बदले उन्हें पांच सौ पाउंड सालाना दिया जाता।
 
 
लेकिन फ़ॉर्च्यून का काम आसान नहीं था। उन्हें चीन से केवल चाय को पैदा करने के तरीक़े नहीं सीखने थे बल्कि वहां से उन नायाब पौधों को चोरी करके लाना था। फ़ॉर्च्यून ख़ासा अनुभवी व्यक्ति था उसे चाय की किस्में देखकर पता लग गया कि चंद पौधों से कुछ नहीं होगा बल्कि पौधों और बीजों को तस्करी के ज़रिए भारत लाना पड़ेगा ताकि वहां चाय की पैदावार बड़े पैमाने पर शुरू हो सके।
 
 
यही नहीं, उन्हें चीनी मज़दूरों की भी ज़रूरत थी ताकि वह हिंदुस्तान में चाय की खेती में मदद दे सकें। इस दौरान उन्हें ख़ुद ही चाय के पौधों के उगने के मौसम, पत्ती की पैदावार, सुखाने के तरीक़ों आदि के बारे में सारी बातें जाननी थीं। फ़ॉर्च्यून का मक़सद आम चाय के पौधे हासिल करना नहीं था बल्कि बेहतरीन चाय हासिल करना था।
 
 
आख़िर कई नावों, पालकियों, घोड़ों और मुश्किल रास्तों को पार कर फ़ॉर्च्यून तीन महीने के बाद एक घाटी के चाय के कारखाने में पहुंचे। इससे पहले यूरोप में समझा जाता था कि काली चाय और हरी चाय के पौधे अलग-अलग होते हैं लेकिन फ़ॉर्च्यून ये देखकर अचरज में पड़ गए कि दोनों तरह की चाय एक ही पौधे से हासिल की जाती है। फॉर्च्यून ने यहां चाय बनाने के हर तरीक़े पर ख़ामोशी से काम किया। उन्हें कोई बात समझ नहीं आती तो वह अपने साथी से पूछ लेते थे।
 
 
ग़लती जो ख़ुशकिस्मती में बदल गई
फॉर्च्यून की मेहनत रंग लाई और वह शासक की आंख बचाकर पौधे, बीज और कुछ मज़दूर हिंदुस्तान में भेजने में कामयाब हुए। ईस्ट इंडिया कंपनी ने उनकी निगरानी में असम के इलाक़े में चाय के पौधे उगाने शुरू किए। लेकिन उन्होंने इस मामले में एक ग़लती की। वह जो पौधे चीन से लेकर आए थे वह वहां पहाड़ के ठंडे मौसम के आदी थे। असम के गर्म इलाक़े उन्हें रास नहीं आए और वह धीरे-धीरे सूखने लगे।
 
 
इससे पहले ये तमाम कोशिशें बर्बाद हो जातीं इस दौरान एक अजीब संयोग हुआ। इसे ईस्ट इंडिया कंपनी की ख़ुशकिस्मती कहें या चीन की बदकिस्मती उसी दौरान असम में उगने वाले एक पौधे का मामला सामने आया।
 
 
इस पौधे को एक स्कॉटिश व्यक्ति रॉबर्ट ब्रॉस ने 1823 में खोजा था। चाय से मिलता-जुलता यह पौधा असम के पहाड़ी इलाक़ों में जंगली झाड़ियों की तरह उगता था। हालांकि, कई विशेषज्ञों के अनुसार इससे बनने वाला पेय पदार्थ चाय से कम अच्छा था।
 
 
फॉर्च्यून के पौधों की नाकामी के बाद कंपनी ने अपना ध्यान असम के इस पौधों पर लगा दिया। फॉर्च्यून ने जब इस पर शोध किया तो मालूम हुआ कि ये चीनी चाय के पौधों से बेहद मिलता जुलता है बल्कि यह उसकी एक नस्ल है। 
 
 
चीन से तस्करी कर लाई गई चाय और तकनीक अब कामयाब साबित हुई। इन तरीक़ों के मुताबिक़ जब पत्ती उगाई गई तो उसे लोगों ने ख़ासा पसंद किया। और इस तरह कॉर्पोरेट दुनिया के इतिहास में इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी की सबसे बड़ी चोरी नाकाम होते-होते भी कामयाब हो गई।
 
 
देसी चाय की कामयाबी के बाद कंपनी ने असम का बड़ा इलाक़ा हिंदुस्तानी पौधे की पैदावार के लिए सीमित कर दिया और व्यापार की शुरुआत कर दी। एक समय के बाद इसकी पैदावार ने चीन को पीछे छोड़ दिया। निर्यात में कमी के कारण चीन के चाय के बाग़ान सूखने लगे और वह देश जो चाय के लिए मशहूर था, एक कोने में सिमट गया।
 
 
चाय में नया तरीक़ा
अंग्रेज़ों ने चाय बनाने में एक नई शुरुआत की। चीनी तो हज़ारों साल से खोलते पानी में पत्ती डालकर चाय पीते थे लेकिन अंग्रेज़ों ने पेय पदार्थ में पहले चीनी और बाद में दूध डालना शुरू कर दिया।
 
 
सच तो यह है कि आज भी चीनियों को ये बात अजीब लगती है कि चाय में किसी और चीज़ को मिलाया जाए। जहां हिंदुस्तानियों ने अंग्रेज़ों की दूसरी बहुत सी आदत अपना लीं, वह अपने शासकों की देखा-देखी चाय में ये मिलावटें करने लगे।
 
 
अमेरिकी क्रांति में हिंदुस्तान की भूमिका
चाय की कहानी में हिंदुस्तान की भूमिका का एक सबूत पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1985 में अमेरिका के दौरे के दौरान पेश किया। उन्होंने कांग्रेस के संयुक्त सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि भारत में पैदा होने वाली चाय ने अमेरीकियों की ब्रिटेन से आज़ादी के जज़्बे को हवा दी थी।
 
 
उनका इशारा 1773 की तरफ़ था जब ईस्ट इंडिया कंपनी अमेरिका में चाय का व्यापार करती थी लेकिन टैक्स अदा नहीं करती थी। आख़िर तंग आकर एक दिन कुछ अमरीकियों ने बोस्टन के बंदरगाह पर जहाज़ पर चढ़कर कंपनी के जहाज़ से चाय की पेटियां समुद्र में फेंक दीं।
 
 
ब्रिटेन की सरकार ने इसका जवाब मज़बूती से दिया जिसके बाद अमेरिकी आबादी में वह बेचैनी फैली की तीन साल बाद अमेरिका को आज़ादी मिली। हालांकि, राजीव गांधी को उस समय ग़लतफहमी हुई थी। 18वीं सदी में हिंदुस्तानियों ने चाय उगाना नहीं शुरू किया था और ईस्ट इंडिया कंपनी चीन से चाय ख़रीदती थी।
 

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