क्या रंग देखकर बदलता है आपका मूड?

Webdunia
सोमवार, 13 अप्रैल 2015 (12:41 IST)
- क्लाउडिया हैमंड

हम अपने घरों की दीवारों के रंग के बारे में घंटों सोचते हैं कि कौन-सा रंग हमारे मूड के लिए सही रहेगा। डॉक्टर भी सर्जरी के दौरान सफेद रंग के कपड़ों, पट्टी और बैंडेज का इस्तेमाल करते हैं ताकि एक सफाई का भाव जगे। फॉस्ट फूड की दुकानें चमकीले रंगों की होती हैं- लाल या फिर पीले। और कुछ जेल की कोठरियों की दीवारें गुलाबी होती हैं ताकि कैदी को ज्यादा गुस्सा नहीं आए।


ऐसा लगता है कि हम ये जानते हैं कि कौन-सा रंग क्या काम करता है। मोटे तौर पर लगता है कि लाल रंग हमें एकदम चौंकाता है जबकि नीला रंग हमें शांत रखता है। कई तो इसे तथ्य भी मानते हैं, लेकिन सवाल ये है कि क्या रंग हमारे मूड को उसी तरह बदलते हैं जैसा हम जानते हैं।

वैज्ञानिक शोध के नतीजे मिश्रित हैं और कई बार पहले की आवधारणाओं को चुनौती देते हैं। लाल रंग के बारे में सबसे ज्यादा अध्ययन हुआ है, इसकी तुलना ज्यादातर नीले या फिर हरे रंग से की जाती है। कुछ अध्ययन बताते हैं कि लाल रंग का सामना करने पर लोग अपने काम को नीले या फिर हरे रंग की तुलना में बेहतर ढंग से अंजाम देते हैं। हालांकि कुछ अध्ययन में इसके ठीक विपरीत नतीजे भी मिले हैं।

अगले पन्ने पर रंग का व्यवहार पर असर

रंग का व्यवहार पर असर : ऐसा क्यों होता है, इसे समझने के लिए हमें जानना होगा कि यह काफी हद तक हमारी कंडिशनिंग पर निर्भर करता है। मतलब अगर आप किसी खास रंग के इर्द-गिर्द ज्यादा रहे हों तो आपका अपना व्यवहार उस खास रंग से प्रभावित होने लगता है। मसलन, स्कूली जीवन में आपके टीचर लाल रंग की स्याही से आपकी गलतियों को मार्क करते रहे हैं तो लाल को आप खतरे से जोड़कर दखते हैं। ज्यादातर जहरीले फल लाल होते हैं।

वैसे ही नीले रंग को सौम्यता से जोड़कर देखते हैं क्योंकि समुद्र और आकाश का विस्तार सौम्यता और शांति का एहसास कराते हैं। समुद्र और आकाश दोनों का रंग नीला ही है।

हालांकि अपवाद भी हैं। जैसे टीचर स्कूलों में 'वेल डन' भी लाल रंग से लिखते हैं और रास्पबेरी फल भी लाल ही होता है। ऐसे में जाहिर है कि अलग-अलग लोग अलग-अलग रंगों से विभिन्न लगाव महसूस करते हैं। लेकिन इसका आपके व्यवहार पर असर बेहद अलग मसला है।

2009 में ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी में इस मामले पर विस्तृत शोध हुआ। शोधकर्ताओं ने नीले, लाल और एक न्यूट्रल रंग के कंप्यूटर स्क्रीन का इस्तेमाल किया और उन स्क्रीनों पर लोगों से अलग अलग काम करवाए। लाल स्क्रीन पर लोगों ने मेमोरी, प्रूफ रीडिंग, डिटेल हासिल करने संबंधी टॉस्क को बेहतर ढंग से पूरा किया। वहीं नीली स्क्रीन वाले लोगों ने क्रिएटिव कामों को बेहतर ढंग से अंजाम दिया। शोधकर्ताओं के मुताबिक लाल रंग की स्क्रीन के साथ लोगों ने डर के चलते सावधानी पूर्वक काम किया।

बैकग्राउंड का असर नहीं : जबकि नीले रंग वाली स्क्रीन पर काम करते वक्त लोगों ने कहीं ज्यादा रचनात्मकता से काम किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि रंग और व्यवहार का संबंध काफी हद तक दिमाग से संचालित होता है। हालांकि इन नतीजों के व्यवहारिक प्रयोग पर भी टीम एकमत नहीं है। उदाहरण के लिए क्या टास्क को देखकर कमरे का रंग बदलवाना चाहिए, नई ड्रग्स के साइडइफेक्ट की जांच कर रही टीम के लिए दूसरे रंग की दीवार होनी चाहिए और क्रिएटिव ब्रेनस्ट्रॉमिंग के लिए नीला रंग।

व्यवहारिक तौर पर ये संभव नहीं दिखता। दफ्तर और क्लासरूम में कभी आप क्रिएटिव होना चाहते हैं और कभी आपका ध्यान दूसरी चीजों पर लग सकता है। हालांकि 2014 में जब इसी प्रयोग को कहीं ज्यादा बड़े समूह के साथ अपनाया गया तो रंग के बैकग्राउंड का कोई असर नहीं पड़ा। पहले ये प्रयोग महज 69 लोगों के साथ अपनाया गया था।

स्विट्जरलैंड की यूनिवर्सिटी ऑफ बासेल के ओलिवर जेनस्काउ ने एक अध्ययन किया था। इसमें उन्होंने अपने साथियों को प्रेटजल्स (मीठा खाद्य पदार्थ) की प्लेट खाने की दी और कहा कि इसका टेस्ट बताने के लिए वे जितना चाहें उन्हें खाने को कहा।

इसमें से प्रत्येक छह में से एक आदमी को परिणाम से बाहर रखा गया क्योंकि अपने प्रेटजल्स दूसरों के साथ शेयर करके खा रहे थे। जब लोगों को ये बताया गया, उसके बाद लाल रंग एक बार फिर चेतावनी के तौर पर उभरा। जिन लोगों की प्रेटजल्स की प्लेट लाल थी, उन्होंने कम प्रेटजल्स खाए।

अगले पन्ने पर जारी है ये प्रयोग...

जारी है प्रयोग :  लेकिन इसी प्रयोग को एपालाचेन स्टेट यूनिवर्सिटी में शोधकर्ताओं ने अपनाया तो वहां एकदम विपरीत परिणाम मिले। लाल प्लेट में जिन्होंने प्रेटजल्स लिए उन्होंने ज्यादा खाया। जाहिर है रंग के असर का अध्ययन इतना आसान नहीं है। ये भी संभव है कि हम जैसा उम्मीद करते हैं, रंग का वैसा प्रभाव नहीं होता हो।

बावजूद इसके अमेरिका, स्विट्जरलैंड, जर्मनी, पोलैंड, ऑस्ट्रिया और ब्रिटेन की जेलों की कई कोठरियां गुलाबी होती हैं। स्विट्जरलैंड में 20 फीसदी जेलों और पुलिस स्टेशन में कम से कम कोठरी की दीवारें गुलाबी हैं। इनका नाम अमेरिकी नौसेना के दो अधिकारियों के नाम पर बाकर-मिलर पिंक रखा गया है। इन्होंने सबसे पहले जेल की दीवारों के गुलाबी रंग का होने पर पहली बार अध्ययन किया था।

एक प्रयोग के तहत 1979 में कैदियों को नीला और गुलाबी कार्ड दिखा कर बाजुओं से जोर लगाने को कहा गया। ये आंकने की कोशिश हुई कि वे कितना जोर लगाते हैं। नीला कार्ड दिखाने पर उन्होंने ज्यादा जोर लगाया जबकि गुलाबी रंग का कार्ड दिखाने के बाद उन्होंने कम जोर लगाया।

कार्ड दिखाकर जोर-आजमाइश करने वाला पहले ही कार्ड दिखा रहा था। लेकिन इस प्रयोग से कोई सार्थक नतीजे नहीं निकले और ये नाकाम रहा।

कैदियों पर गुलाबी रंग का असर : 2014 में जेनस्काऊ की टीम ने स्विट्जरलैंड की सबसे सुरक्षित जेल में इस प्रयोग को अपनाया। इस बार का प्रयोग कहीं ज्यादा व्यवस्थित था, 30 साल पहले हुए प्रयोग से बेहतर तरीके के साथ। इसमें कैदियों को गुलाबी रंग और ग्रे रंग की कोठरियों में रखा गया, छत्त सफेद थी। कैदियों के अधिकारियों को कैदियों के व्यवहार में गुस्से के स्तर को मापने की ट्रेनिंग दी गई थी।

तीन दिन बाद दोनों रंग की कोठरियों के कैदी कम आक्रामक देखे गए। यहां भी दीवार के रंग का कोई असर नहीं दिखा। शोधकर्ताओं ने माना कि लंबे समय तक प्रयोग करते रहने से शायद बदलाव दिखे। इन शोधकर्ताओं को अभी भी मानना है कि गुलाबी रंग की दीवार से आक्रोश को कम करता है।

हो सकता है कि रंग का असर होता हो लेकिन इसके प्रभाव को अभी व्यवस्थित ढंग से समझा नहीं गया है। बेहतर शोध जरूर हो रहे हैं लेकिन पूरी तस्वीर के साफ़ होने में वक्त लगेगा। जब तब वो हो, तब तक तो यही माना जाएगा कि घर की दीवारों का इंटीरियर डेकोरेशन आपकी पसंद और कलात्मक अभिरूचि को ही दर्शाता है।

विशेष सूचना:- इस कॉलम का कन्टेंट केवल सामान्य जानकारी के लिए है और इसे डाक्टर की मेडिकल सलाह के विकल्प के तौर पर नहीं माना जा सकता। यदि कोई इसके आधार पर किसी मेडिकल नतीजों पर पहुंचता है तो बीबीसी इसके लिए जिम्मेदार नहीं होगा।
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