हम बड़े नहीं हुए, बच्चों का ही देश बने हुए हैं

Webdunia
गुरुवार, 14 मई 2015 (10:24 IST)
- प्रगति सक्सेना (दिल्ली)
 
हमारा देश एक प्राचीन देश है, संस्कृति के लिहाज से। लेकिन आजाद देश के हिसाब से देखा जाए तो अभी हम 67 साल पुराने ही हैं। और यदि इतिहास और आबादी की औसत उम्र के हिसाब से देखें तो हम एक नौजवान देश हैं। लेकिन दरअसल हम बच्चों का देश हैं।
हमारे प्रधानमंत्री नवधनाढ्य और फैशनेबल बच्चे की तरह जगह-जगह जाकर अपने कपड़ों से लोगों को लुभाते हैं और लाडले बच्चे की तरह बतिया कर आ जाते हैं। दूसरी तरफ केजरीवाल रूठे हुए बच्चे की तरह हमेशा शिकायत करते रहते हैं- देखो देखो, वह मेरी चुगली कर रहा है, उसने मुझे मारा।
 
चेहरे का ग्लो : एक बाबा हैं, जो शरारती और जिद्दी बच्चे की तरह पांव पटकते हुए कहते रहते हैं - ना, मैंने कुछ नहीं किया आपको गलतफहमी हुई है। और अगर कुछ ऐसा किया भी है तो मैं क्यों मानूं?
 
एक दूसरे बाबा हैं जो जब एक अभिजात्य वर्ग के बच्चे की तरह आते हैं तो दूसरे बच्चों में उत्सुकता की लहर दौड़ जाती है कि आखिर अबकी बार ये छुट्टियों में कहां गया था जो इसके चेहरे पे इतना ग्लो आ गया!
 
एक बेबी जी हैं जिनकी तालीम को लेकर बच्चों के दो गुटों में लड़ाई होती रहती है।
 
मूत्र से सिंचाई : एक संसद है, जहां बेटा होने की दवा का जिक्र चलता है तो स्पीकर भी किसी शैतान बच्चे की तरह चुटकी लेता है-क्यों त्यागी जी, आपको क्या जरूरत पड़ी ये दवा खरीदने की!
सर्कस देखते-देखते एक किसान से आत्महत्या हो जाती है और ढेर सारे बच्चे तमाशा देख कर ताली पीटते हैं। रोजाना बलात्कार की खबरें आती हैं लेकिन महिला आयोग में महिलाएं एक टुच्चे से विषय पर ऐसी बहसबाजी करती हैं मानों दो झगड़ालू लड़कियां एक दूसरे के बाल पकड़ कर लड़ रही हों।
 
देश के कुछ हिस्सों से सूखे की खबर आती है तो एक मंत्री मूत्र से सिंचाई की बात करते हैं।
 
पुरुषों की चुगली : राजनीति में सू-सू से लेकर टीवी के सास बहू तक में एक तरह का कॉस्ट्यूम ड्रामा चल रहा है और बच्चे इसे देख कर भाव विभोर होते रहते हैं।
इसे देख कर तो लगता है कि हमारे लोकतंत्र की टैग लाइन होनी चाहिए- बच्चों का, बच्चों के द्वारा, बच्चों के लिए! स्त्रियां बराबरी और नारी मुक्ति की बात ऐसे करती हैं जैसे कुछ टीन एज लड़कियां पुरुषों की चुगली कर रही हों।
 
पुरुषों की हालत उस चोट खाए बच्चे की तरह लगती है, जिस पर एकाएक बहुत से बच्चों ने धावा बोला हो। फिर वह अपने अधिकारों की बात करते हैं ठीक वैसे ही जैसे किसी बच्चे के पालतू कुत्ते के गन्दगी फैलाने पर आप शिकायत करें तो वह भी गुस्से में कुत्ते की तरफ से सफाई पेश करता है।
मीडिया : और फिर मीडिया है। जहां कुछ शरारती बच्चे तमाशा देख कर लोटपोट होते रहते हैं, तो कुछ क्लास के जहीन बच्चे होने का अभिनय करते हैं। ज्यादातर रोज इस फिराक़ में निकलते हैं कि आज क्या खुराफात करने/देखने को मिलेगी।
 
सभी को पता है कि मजे के लिए करें, नाटक के तौर पर या खुराफात के लिए करें, शाम को खेल खत्म होने पर सामान लपेट कर अपने अपने घर का रुख करना है। रात गई, बात गई वाले अंदाज में। यहां वयस्क कोई नहीं। अभी हम बड़े नहीं हुए। हमसे परिपक्वता की उम्मीद न करें।
 

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