कर्ज़ माफ़ीः इलाज है या बस पेन किलर? : ग्राउंड रिपोर्ट

Webdunia
गुरुवार, 27 दिसंबर 2018 (17:26 IST)
- इमरान क़ुरैशी (बेंगलुरु से, बीबीसी हिंदी के लिए)
 
"कैंसर की बीमारी का इलाज पेन किलर से नहीं हो सकता...."
 
एक किसान नेता की ये बात किसानों की समस्याओं और कर्ज़ माफी को इसका हल बताने की दलील पर ही सवाल खड़े करती है। असम की भाजपा सरकार ने जैसे ही मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की नवगठित कांग्रेस सरकारों की देखादेखी किसानों के लिए कर्ज़ माफी का ऐलान किया, ऐसा लगा जैसे देश की राजनीति राम मंदिर की पगडंडी से आगे बढ़ते हुए खेत-खलिहानों की तरफ़ बढ़ने लगी।
 
 
पर सालों भर चुनाव नहीं होते लेकिन खेतीबारी का काम हर मौसम में चलता रहता है। यानी किसानों की परेशानियां मौसम और चुनाव देखकर नहीं आते। और सवाल तो ये भी है कि कर्ज़ माफी से किसान के लिए क्या बदल जाता है? उसकी परेशानियों का कैंसर कर्ज माफी के पेन किलर से क्या ठीक हो जाता है?
 
 
बीबीसी ने ऐसे ही कुछ किसानों की ज़िंदगी में झांकने की कोशिश की है जिन्हें अतीत में कर्ज़ माफी मिल थी लेकिन आज वे कैसे हालात में है।
 
 
मोहन कुमार की कहानी
मोहन कुमार की आंखें विजयपुर के कच्चे रेशम के सरकारी मार्केट की दीवार पर लगे डिस्प्ले पर लगातार ठहरी हुई हैं। ट्रे नंबर 68, जहां मोहन कुमार के कच्चे रेशम का ढेर पड़ा हुआ है, की शुरुआत तो अच्छी रही लेकिन इसका भाव 245 रुपये प्रति किलो से आगे नहीं जा सका।
 
 
बेंगलुरु इंटरनेशनल एयरपोर्ट से 20 किलोमीटर दूर मौजूद इस बाज़ार में नीलामी जैसा माहौल है। बोलियां लगने का पहला दौर थमे ज़्यादा देर नहीं हुआ था तभी घंटी बजी और नीलामी का दूसरा चरण हो गया। खरीदार एक बार फिर मोहन कुमार का माल चेक करने उनकी तरफ़ बढ़े।
 
 
मंडी के जानकारों की राय में कच्चे रेशम के ये गुच्छे जितने कड़े होते हैं, उनकी क्वॉलिटी उतनी ही अच्छी मानी जाती है। लेकिन कच्चे रेशम के भाव पर ज़्यादा फर्क नहीं पड़ा।
 
 
घर चलाना मुश्किल है...
पर तीसरे और आख़िरी राउंड में क़ीमतें अचानक परवान चढ़ने लगीं, 100 का भाव 200 से होते हुए 255 तक पहुंच गया। और मोहन कुमार ने फ़ैसला किया कि पहले राउंड में लगी बोली से जो भी कुछ भी ज़्यादा मिलेगा, वो अपना कच्चा रेशम बेच देंगे।
 
 
बेंगलुरु ग्रामीण के देवनहल्ली तालुका के मल्लेपुरा गांव के मोहन कुमार बताते हैं, "आज मैंने 30 किलो कच्चा रेशम बेचा। कल मेरे पास 35 किलो थे।"... "65 किलो कच्चे रेशम की एवज में मुझे 18000 रुपये मिले। मजदूरी, खाद, कीटनाशक और दूसरे खर्चे मिलाकर मैंने 13,000 रुपये लगाए थे।"
 
 
"बस 5,000 रुपये हाथ में बचे हैं, ऐसे में घर चलाना मुश्किल है। इस बार रागी की फसल भी बर्बाद हो गई है।" मोहन के खेत में जितनी भी रागी की फसल उपजती थी, वे उसे बेचते नहीं थे बल्कि परिवार के साल भर के इस्तेमाल के लिए रख लेते थे।
 
 
लेकिन इस बार उन्हें बाज़ार से रागी खरीदना होगा। पानी की कमी के चलते रागी की फसल ख़राब हो गई। न केवल रागी बल्कि अरहर दाल की फसल और सब्जियों की खेती का भी यही हाल हुआ।
 
 
विजयपुर से चार किलोमीटर की दूरी पर मोहन कुमार के पास साढ़े चार एकड़ का प्लॉट है जिसके दो एकड़ में ये फसलें उगाई जाती हैं। बाक़ी ज़मीन पर मोहन कुमार शहतूत के पेड़ उगाते हैं जिनसे कच्चा रेशम तैयार किया जाता है।
 
 
थोड़ी राहत मिली थी...
वे साल भर में सात से आठ बार बाज़ार जाते हैं जहां उन्हें हर बार तक़रीबन उतनी ही रकम हासिल होती है जो पिछले हफ़्ते उन्हें मिली थी। मोहन कुमार बताते हैं, "पिछले साल मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के कार्यकाल हमें सहकारी समिति से 50,000 रुपये की लोन माफी मिली थी। इससे हमें थोड़ी राहत मिली थी।"
 
 
लेकिन इसके बावजूद मोहन कुमार पर 11 लाख रुपये का बैंक लोन है। उन्होंने बताया, "मैंने साढ़े तीन लाख रुपये का कर्ज़ लिया था। इसका इस्तेमाल दो बोरवेल की खुदाई के लिए किया गया।"... "एक बोरवेल से हमें थोड़ा पानी मिला लेकिन वो भी इस साल बंद हो गया। वो कर्ज़ अब ब्याज़ मिलाकर 11 लाख रुपये तक पहुंच गया है।"... "बैंक ने इस सिलसिले में क़ानूनी नोटिस भी भेजा है और मैं अभी तक वहां नहीं गया हूं।"
 
 
बारिशों का इंतज़ार
मोहन का घर ऐसे इलाके में है जहां खेती-बारी पूरी तरह से बारिश पर निर्भर है और इसी मजबूरी के चलते उन्हें बोरवेल खुदवाना पड़ा। लगातार दो मौसमों तक बादल रूठे रहे और मोहन को बोरवेल के लिए कर्ज़ लेना पड़ा।
 
 
मोहन बताते हैं, "कर्ज़ माफी से थोड़ी राहत ज़रूर मिलती है। अगर बैंक का कर्ज़ माफ हो जाता तो मैं नए सिरे से एक किसान के तौर पर अपनी ज़िंदगी शुरू कर सकता हूं।"
 
 
लेकिन क्या कर्ज़ माफी से ही उनकी सारी दिक्कतों का हल निकल गया? इस सवाल पर सीधे इनकार करने के बजाय मोहन कुमार सहमति में सिर हिलाते हैं। उनके लिए कर्ज़ माफी से ज़्यादा खेती के लिए बुनियादी सहूलियतें और फसल की बेहतर क़ीमतें ज़्यादा मायने रखती हैं। पहली ज़रूरत पानी की है, इसके बाद क़ीमत का सवाल आता है।
 
मोहन कहते हैं, "अगर मुझे कच्चे रेशम के लिए 350 से 400 रुपये प्रति किलो की क़ीमत मिल जाती है तो मुझे ज़्यादा राहत मिलेगी।"..."इस साल ये तय है कि फसल ख़राब होने से मेरे परिवार को दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा।"... "और हमें बारिशों का इंतज़ार करना होगा ये देखने के लिए कि अगला साल कैसा रहता है।"... तो क्या कर्ज़ माफी से उनकी ज़िंदगी में कुछ नहीं बदला? 45 वर्षीय मोहन कहते हैं, "कर्ज़ माफी हमें फिर से खड़ा होने में मदद देता है।"
 
 
खाद और बीज के दाम
लेकिन 28 वर्षीय किसान मंजूनाथ अपने पड़ोसी किसान मोहन कुमार की बातों से सहमत नहीं दिखते। तीन एकड़ ज़मीन पर सब्जी, केले और धान की फसल करने वाले मंजूनाथ का कहना है, "कर्ज़ माफ़ी से एक ओर जहां भला हुआ है, वहीं इससे नुक़सान भी हुआ है।"
 
 
मंजूनाथ को भी सिद्धारमैया के दौर में मिली कर्ज़ माफी के तहत 50,000 रुपये की राहत मिली थी। आईटीआई डिप्लोमा होल्डर मंजूनाथ पूछते हैं, "कर्ज़ माफी के बाद खाद और बीज के दाम बढ़ा देने का क्या मतलब है? खाद के दाम तीन गुना तक बढ़ गए हैं।"
 
 
"सौ लीटर कीटनाशक अब 2000 रुपये के बजाय 3000 रुपये में मिल रहा है।"... सब्जी की एक फसल उपजाने के लिए मंजूनाथ को दो लाख रुपये की ज़रूरत पड़ती है। लोन लेकर उन्होंने बोरवेल खुदवाए लेकिन नौ बोरवेल में केवल एक ही कारगर हो पाया।
 
 
मंजूनाथ कहते हैं, "इन दिनों एक बोरवेल खुदवाने का खर्चा छह लाख रुपये आ रहा है। ये रकम मैं कहां से ला पाउंगा। मुझे बैंक जाने में अब डर लगता है।"... "अगर मैं कर्ज नहीं चुका पाया तो मेरी ज़मीन का क्या होगा?"
 
 
उनके फूलगोभी की फसल पानी का इंतज़ार कर रही है और ठीक इसके बगल में लगी बीन्स की फसल देख कर कोई भी ये कह सकता है कि अब ये किसी काम की नहीं रह गई है।
 
 
महाजनों का रास्ता
मंजूनाथ की समस्याएं भी मोहन कुमार जैसी ही हैं। वो बताते हैं, "पानी की कमी की वजह से ही मेरी फसल ख़राब हुई। हमारे यहां बारिश इस बार नहीं हुई है। हमारा सबसे अहम मुद्दा खेती का खर्चा कम करने का है तभी हम अपने कर्ज़ चुका पाएंगे।"
 
 
किसानों के पास कर्ज उठाने के लिए महाजनों का रास्ता भी खुला हुआ है। बेंगलुरु के ग्रामीण इलाकों में इस समय एक लाख रुपये का कर्ज़ पांच हज़ार रुपये महीने की दर से मिल जाता है।
 
 
मंजूनाथ पूछते हैं, "ऐसे में कोई कैसे ज़िंदा रह पाएगा?"
 
 
लेकिन मोहन कुमार और मंजूनाथ दोनों को बेंगलुरु जैसे बड़े शहर के क़रीब होने से कुछ हद तक भरोसा मिलता है। मोहन कुमार कहते हैं, "ये वो इलाका नहीं है जहां लोग खुदकुशी करते हैं। मुश्किल तब आती है जब अस्पताल का खर्चा सामने आ जाता है या फिर कोई दूसरी आपातकालीन ज़रूरत। जो भी हो ज़िंदगी बहुत मुश्किल है।"
 
 
लेकिन मोहन और मंजूनाथ जैसे किसानों की समस्याओं का कुमारास्वामी सरकार ने भी वही समाधान तलाशा है, 44,000 करोड़ रुपये की कर्ज़माफी। जैसा कि एक किसान नेता कहते हैं, "वे कैंसर की बीमारी का इलाज किए बगैर उसके लिए पेन किलर दे रहे हैं।"
 

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