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हाथरस: मीडिया का कैमरा ऑफ़ हो चुका है और माँ अब भी रो रही है

हमें फॉलो करें हाथरस: मीडिया का कैमरा ऑफ़ हो चुका है और माँ अब भी रो रही है

BBC Hindi

, रविवार, 11 अक्टूबर 2020 (08:27 IST)
चिंकी सिन्हा, हाथरस से, बीबीसी हिंदी के लिए
आँखों से मंज़र ओझल हो रहा है। हर गुज़रते लम्हे के साथ वारदात की तस्वीर भी धुंधली होती जा रही है। बाजरे के खेत, शव को जलाने का ठिकाना और ख़ुद वो गांव भी।
 
जुर्म का हर सुबूत मिटा देने की जो आख़िरी कोशिश हुई थी, वो ये थी कि पुलिस ने लाश को बिना उसके परिवार की इजाज़त के जला दिया था। वो 29 और 30 सितंबर की दरम्यानी रात थी, जब रात के अंधेरे में उसके गाँव खेतों के बीच शोले उठने लगे।
 
वो दलितों के परिवार से ताल्लुक़ रखती थी। परिवार के लोगों का कहना है कि गांव के ठाकुरों ने लड़की से बलात्कार करने के बाद उसे जान से मारने की कोशिश की थी। लड़की के गाँव में दलितों के कुल जमा चार घर हैं।
 
लड़की से हैवानियत के आरोप में ठाकुरों के चार लड़कों को गिरफ़्तार कर लिया गया है मगर ये तो बस कुछ हक़ीक़तें हैं। इनके सिवाय जो भी है, वो अपनी-अपनी कहानियाँ हैं। ये सब कुछ वही है, जो 'पोस्ट-ट्रुथ' वाले इस दौर में होता आया है।
 
माँ को याद है कि कैसे वो अपनी लाडली की चोटियाँ बनाती थीं। उनकी बेटी ने अपने लंबे बालों को सम्भालने के लिए जो क्लच लगाया था, वो उस वक़्त टूट गया था, जब उसे खेतों में घसीटा गया था।
 
वो कुछ याद करते हुए कहती हैं, 'उसके बाल बहुत लंबे थे। वो मुझे बालों को बाँधने के लिए कहा करती थी।' आख़िर कोई मां अपनी बेटी को भूल ही कैसे सकती है। उन्हें तो बिटिया की एक-एक बात याद है।
 
लेकिन इस गांव में सच सिर्फ़ एक नहीं है। यहाँ एक सच के मुक़ाबले दूसरा सच खड़ा है और चुनौती दे रहा है।
जितने मुंह उतनी बातें
 
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चांदपा गाँव एक शांत जगह है। अगर आप चांदपा के आस-पास के इलाक़ों पर नज़र दौड़ाएं तो कई जगह पर आपको बाजरे की फसल छह-छह फीट तक ऊँची दिखेगी।
 
वो लड़की क़रीब दो हफ़्ते तक ज़िंदगी की जंग लड़ती रही थी मगर आख़िरकार 29 सितंबर की सुबह वो मौत की नींद सो गई थी।
 
बात 14 सितंबर की है, जब माँ ने अपनी बेटी को ख़ून से लथपथ हालत में पाया था। उसकी साँस बमुश्किल ही चल रही थी।
 
माँ ने बेटी के नंगे तन को अपनी साड़ी के आँचल से ढँका और उसे लेकर चांदपा थाने पहुँची थी। उनकी तरफ़ से संदीप के ख़िलाफ़, उस लड़की की हत्या करने की कोशिश करने की रपट दर्ज की गई थी।
 
माँ का कहना है कि उस वक़्त उनके ज़हन में एक पल के लिए भी ये ख़याल नहीं आया था कि बेटी की मौत हो जाएगी। शुरुआत में परिवार ने यौन हिंसा या बलात्कार की शिकायत नहीं की थी। इसकी वजह ये थी कि समाज में, बिरादरी में बेटी की बदनामी न हो।
 
बाद में पीड़ित लड़की ने अपनी मौत से पहले जो बयान दर्ज कराया था, उसमें अभियुक्त के ख़िलाफ़ रेप का इल्ज़ाम भी लगाया था। लेकिन अब पीड़ित परिवार की हर शिकायत पर सवाल उठाए जा रहे हैं। उनके दुख को ख़ारिज किया जा रहा है।
 
अब तो इस मामले में ऑनर किलिंग का इशारा भी किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि लड़की के परिवार ने ख़ुद ही अपनी बेटी को इज़्ज़त के नाम पर मौत के घाट उतार दिया।
 
दावा है कि लड़की का अभियुक्तों में से एक लड़के के साथ अफ़ेयर था और भाई को इसकी ख़बर लग गई फिर उसने अपनी बहन को इतना मारा कि उसकी मौत हो गई।
 
कुछ लोग तो ये भी कह रहे हैं कि परिवार ने अपनी बेटी को इसलिए मार डाला जिससे कि उन्हें पैसे मिल जाएं। ऐसे दावे करने वालों को अभियुक्तों से हमदर्दी रखने वाले नेता और पत्रकारों से शह मिल रही है। उन्हें तर्क रटाए जा रहे हैं। मगर आप गाँव का बस एक चक्कर लगाएं तो आपको अंदाज़ा हो जाएगा कि ये सब झूठ बोल रहे हैं।
 
लड़की के ज़ख्मों को चुनौती देते लोग
पोस्ट-ट्रुथ वाले इस दौर में किसी भी रिपोर्टर के सामने बड़ी चुनौती होती है। अब स्त्री और पुरुष में भेद करने वाला ये समाज, एक रिपोर्टर को भी औरत और मर्द के खांचे में बांटकर ही देखता है।
 
नतीजा ये कि कहानी का रुख़ मोड़ा जा चुका है। आज बलात्कार और उसके शरीर पर दिए गए ज़ख़्मों की हक़ीक़त को चुनौती दी जा रही है। जाति के नाम पर, समुदाय के नाम पर, इस घटना के इर्द-गिर्द राजनीतिक मोर्चेबंदी हो रही है।
 
उत्तर प्रदेश की सरकार ने कांग्रेस के नेताओं राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा को पीड़ित परिवार से मिलने की इजाज़त काफ़ी देर तक चले ड्रामे के बाद दे दी। फिर उनके साथ ही मीडिया को भी गांव के अंदर जाने की मंज़ूरी दे दी गई।
 
इसके बाद गाँव के आस-पास के गांवों में ठाकुरों को इंसाफ़ दिलाने के लिए पंचायतें बुलाई गईं। इन पंचायतों में शरीक़ होने वाले दावा कर रहे हैं कि ठाकुरों को तो इस मामले में बेवजह ही फँसा दिया गया है।
 
जाति की दरारें अब पूरी घटना का रुख़ मोड़ने के काम आ रही हैं। यहाँ नैतिकता जैसी कोई चीज़ नहीं है। जब मैं गाँव की ओर जाने वाली सड़क से गुज़र रही थी, तो मैंने एक ऐसी ही पंचायत होते देखी थी। याद आया कि हमला करने वालों ने उस लड़की की गर्दन भी तोड़ डाली थी।
 
राख हो चुके हैं सारे सबूत
चार अक्टूबर को यानी जब पुलिस ने मीडिया को गांव में जाने की इजाज़त दे दी थी, उसके अगले दिन पुलिस के लगाए बैरिकेड के पास राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। पुलिस ने दंगों की रोकथाम वाले अंदाज़ में मोर्चेबंदी कर रखी थी। इसी बीच थोड़ी सी जगह पाकर मैं अंदर घुस गई। मुझे किसी ने नहीं रोका।
 
पुलिसवाले ने मुझसे कहा था, ''गाँव यहां से दो किलोमीटर दूर है। आपको वहां तक पैदल ही जाना पड़ेगा।'ट
वारदात वाली जगह की ओर जाने वाली सड़क सूनी पड़ी थी। कभी- कभार किसी पत्रकार को गाँव या वारदात की जगह तक छोड़ने के लिए कोई बाइक उस रास्ते से गुज़रती है।
 
गाँव में कैमरे, रिपोर्टर और लाइव
अपराध की जगह तक जाने का तजुर्बा पूरे गाँव के हालात का एहसास करा देता है। मगर अब सारे सबूत राख में तब्दील हो चुके हैं। गाँव की ओर जाते हुए रास्ते में मेरी मुलाक़ात एक शख़्स से हुई। उन्होंने बताया कि वो पास के ही एक गांव का रहने वाले किसान हैं।
 
फिर तुरंत बोले, ''मेरा नाम नरसिंह है। मैं ठाकुर हूँ। मीडिया जो दिखा रहा है, वो सच नहीं है। लड़की का तो अभियुक्त के साथ चक्कर चल रहा था। वो हमारी भी बेटी थी।''
 
मैंने पूछा कि फिर उसके साथ बलात्कार क्यों हुआ? नरसिंह ने जवाब दिया, ''आप ख़ुद जाओ और पता लगा लो।'' फिर वो तेज़ी से वहाँ से निकल गए।
 
गांव में बहुत से कैमरे थे। तारों का जाल बना हुआ था। रिपोर्टरों का मजमा लगा हुआ था। बहुत से लोग अपने पीठ पर थैले लादे हुए थे, जिस पर लाइव लिखा हुआ था।
 
माइक लिए हुए रिपोर्टर ख़ूब 'तमाशा' कर रहे थे। इन सब को गांव में इस ख़बर की रिपोर्टिंग के लिए भेजा गया था। साथ ही साथ उन्हें लड़की के लिए इंसाफ़ मांगने की भारी ज़िम्मेदारी भी दी गई थी। ठीक उसी तरह, 
जैसे उन्होंने अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के मामले में किया था।
 
एम्स की फ़ॉरेंसिक रिपोर्ट ने सुशांत की मौत को आत्महत्या क़रार दिया है। अब सुशांत के लिए इंसाफ़ मांगने वालों के सहकर्मी पूरे ज़ोश के साथ हाथरस के इस गाँव में जमा हो गए थे। ऊँची आवाज़ में…लगभग शोर मचाते हुए अब वो हाथरस की उस लड़की के लिए इंसाफ़ की माँग कर रहे थे।
 
ऐसा लग रहा था कि इस ख़बर को रिपोर्ट करने से उनके पुराने 'पाप' धुल जाएंगे। हर दो फ़र्लांग पर एक लाइव रिपोर्टिंग चल रही थी।
 
टीआरपी की ये जंग, किसी भी सच को झूठ के हज़ारों पर्दों के पीछे छिपाने की ताक़त रखती है। अगर आप उस सँकरी गली से गुज़रें, जो लड़की के घर की ओर जाती है, तो आपको पूरे परिसर से बस किसी न किसी रिपोर्टर की कर्कश आवाज़ ही सुनाई देती है।
 
मरी हुई लड़की बनी 'लाइव'
वो मार डाली गई लड़की अब 'लाइव' बन गई है। अब तो इस मामले में एक 'सत्य' सरकारी भी है। बस कुछ दिनों की बात है और पूरा कथानक बदला हुआ नज़र आएगा।
 
दो स्थानीय पत्रकार मुझसे पूछते हैं कि क्या आप सच की तलाश में हैं? वो अपना सच मुझे ऑफ़र करते हैं। एक ने कहा, ''दोनों के परिवारों के बीच झगड़ा चल रहा था। मैं आपको इसके काग़ज़ भेज सकता हूं। ठाकुर तो बेगुनाह हैं।''
 
इस पत्रकार ने पहले एक ख़बर भेजी थी जिसमें बताया गया था कि ज़मीन के एक टुकड़े को लेकर परिवारों के बीच विवाद चल रहा था। तब भी ठाकुरों के परिवार पर एससी-एसटी एक्ट के तहत केस दर्ज किया गया था।
ये बात 15 साल पहले की है। बात करते-करते हम इस मामले के आरोपी के घर के बाहर पहुंच गए। वहां एक महिला कपड़े धो रही थी। वो मुझसे कहती है, ''कोई हमसे तो सच नहीं पूछ रहा।''
 
फिर वो महिला अपने हिस्से का सच मुझे बताती है, ''लड़कों को तो ग़लत फंसाया गया है। वो मुजरिम नहीं हैं। लड़की के भाई का नाम और हमारे देवर का नाम एक ही है। जब उसने नाम लिया था तो किसका ज़िक्र किया था?'' ज़ाहिर है कि यहां किसी मरती हुई लड़की की आख़िरी गवाही की कोई अहमियत नहीं है।
 
'मरने से पहले कोई झूठ नहीं बोलता'
सुप्रीम कोर्ट ने पीवी राधाकृष्णन बनाम कर्नाटक सरकार के मामले में कहा था कि मरने से पहले किसी का दिया हुआ बयान अंतिम और अपवाद से परे है।
 
देश की सबसे बड़ी अदालत ने अपने फ़ैसले में एक लैटिन कहावत का ज़िक्र किया था, जिसका मतलब है- मरने से पहले कोई झूठ नहीं बोलता।
 
अस्थियाँ अब भी गाँव में पड़ी थीं। जहाँ पुलिस ने उस लड़की की लाश आधी रात को जलाई थी, वहाँ तक पहुंचने के लिए मुझे बाजरे के खेतों से होकर गुज़रना पड़ा।
 
जब मैं वहां पहुंची तो एक रिपोर्टर उस मौक़े से 'लाइव' रिपोर्टिंग कर रहा था। किसी को नहीं पता कि जिस लड़की के हाथ-पैर और गर्दन तोड़ डाली गई थी, उसे मरने के बाद जलाने की इतनी जल्दी क्या थी?
 
राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपने बचाव में तर्क ये दिया था कि अगर लाश को देर रात न जलाई गई होती तो दंगे भड़कने का डर था। रिपोर्टर कहता है, ''आपको यहाँ के जातीय समीकरण समझ में नहीं आएंगे।''
 
लोगों ने बताया था कि जब लड़की को उसकी माँ ने खेतों में अधमरी हालत में देखा था तो उसकी जीभ बाहर लटक रही थी। सच तो ये है कि यहां इस गाँव में एक जवान लड़की की मौत हो गई थी, जिसने मरने से पहले बयान दिया था।
 
गाँव में बहुत से लोग ऐसे भी मिले जो कहते घूम रहे थे कि परिवार को बेटी के मरने का ग़म ही नहीं है। उन्होंने तो ढंग से शोक भी न मनाया। ये बात मानने वालों की गांव में अच्छी ख़ासी तादाद है। मौक़े पर मौजूद कुछ रिपोर्टर भी यही कहते हैं।
 
ज़्यादातर संवाददाता मर्द हैं। वो कहते हैं कि परिवार को देखकर ये लगता ही नहीं कि उन्होंने अपनी बेटी को खोया है। एक कहता है कि उनको ख़ूब पैसे मिले हैं। लेकिन कोई ये नहीं समझता कि ग़रीब भी अपनों के जाने का शोक मनाता है।
 
मुआवज़ों से जाने वाले की कमी नहीं पूरी की जा सकती और सिर्फ़ आंसू बहाकर ही दर्द नहीं बयाँ किया जाता। पिछले कई दिनों से गांव में मजमा लगा हुआ है। मरने वाली के घर पर भीड़ जुटी रहती है।
 
हर दिन रोती माँ
चार अक्टूबर को जिस घर में किसी ने खाना भी नहीं बनाया था वहाँ बहुत से लोग 'बाइट' लेने आ रहे थे। वक़्त ही नहीं था। थोड़ी ही दूर पर एक टीवी न्यूज़ एंकर इंसाफ़ के लिए शोर मचा रही है। सब कुछ लाइव है। ये गाँव, पीड़िता का मकान…खेतों को टीवी स्टूडियो में तब्दील कर दिया गया है।
 
जो लोग आपके कान में फुसफुसाकर ये कहते हैं कि पीड़ित परिवार ने अपनी बेटी को खोने का शोक भी ठीक से नहीं मनाया, उन्होंने शायद उस बेटी की माँ की बातों को ग़ौर से नहीं सुना। उस माँ की गुहार को सबूत के तौर पर नहीं गिना गया।
 
जिस रोज़ यहाँ से ज़्यादातर रिपोर्टरों ने अपना बोरिया-बिस्तर समेट लिया था, उस दिन भी वो माँ रो रही थी। वो कहती हैं कि मुझे तो इस शोर-शराबे में बहुत अजीब लग रहा था।
 
पिछले कई दिनों से वो राजनेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पुलिस और पत्रकारों से घिरे हुए थे। ऐसे में उनके दुख को भी बदनीयती माना गया।पर शायद उस माँ ने अपने दर्द को अपने दामन में कुछ यूं छुपा लिया कि वो हमेशा के लिए बस उसके दिल में जज्ब हो गया।
 
कल्पना कीजिए कि आप अपने ज़हन के भीतर जज़्ब किसी ब्लैक होल से गुज़र रहे हैं और आपके चारों ओर बस राख का ग़ुबार उड़ रहा है। फिर वो राख आपके भीतर समा जाती है। कोई अपने को खोकर कितना रोया, इसका कोई पैमाना तो है नहीं। मगर यहाँ उसका भी हिसाब लगाया जा रहा है।
 
गाँव में सबसे निचले पायदान पर वाल्मीकि
गाँव के ज़्यादातर ठाकुर, वाल्मिकियों को हिंदू या इस देश में बराबर के दर्जे वाला नागरिक नहीं समझते। छूआछूत वाली सोच अब भी मोर्चे पर मज़बूती से डटी है। उसे ही किसी के बारे में राय क़ायम करने का पैमाना मानती है। मगर रेप के मामलों में कोई छूआछूत नहीं होती।
 
किसी की दंभ और महिलाओं से द्वेष जाति-पांति की बंदिशों को कहाँ मानती है? इसका सबूत इस देश में दलित महिलाओं से बलात्कार की अनगिनत घटनाएं हैं।
 
वाल्मिकियों को यहां भंगी कहा जाता है। जो जाति व्यवस्था की सबसे निचली पायदान के सदस्य हैं। गाँव में वाल्मिकियों के चार परिवार हैं। उन सबके घर पास-पास ही हैं। ये घर बाक़ी गांव से थोड़ी दूर पर हैं। एक रास्ता है, जो इन घरों को बाक़ी गांव से जोड़ता है, या अलग करता है, पता नहीं।
 
ये बंटवारा, ये भेदभाव यहां न जाने कितने बरसों से चला आ रहा है। संध्या दुनिया से जा चुकी लड़की की भाभी हैं।
 
उनकी बहन प्रीति कहती कि इटावा में उसके गाँव में वाल्मिकियों से इतना भेदभाव नहीं होता। मगर इस गांव में तो किसी वाल्मिकी ने कोई सौदा ख़रीद लिया तो वो उसे वापस भी नहीं कर सकते क्योंकि उसने सामान को छूकर गंदा कर दिया है।
 
जिससे प्यार उससे बलात्कार कैसे?
प्रीति कहती हैं कि अगर भंगियों का साया भी किसी ठाकुर पर पड़ जाए तो वो ख़ुद को अपवित्र मान लेते हैं।
प्रीति यहाँ तब से ही है जब से दिल्ली से लाश आई है। वो उसे जानती थी। वो सवाल करती है, ''आप मुझे बताओ, अगर आप किसी से प्यार करते हो, तो क्या उससे बलात्कार करोगे? क्या प्यार करना गुनाह है? उन्हें औरत की ताक़त का एहसास कराना ही होगा। हमें इन बातों का विरोध करना होगा।''
 
मरने वाली को लेकर जो बातें की जा रही हैं, उससे प्रीति बहुत ख़फ़ा है। वो कहती है, ''जब आप किसी नीच जाति में जन्म लोगे, तभी आपको देश की जाति व्यवस्था का अच्छे से अंदाज़ा होगा। अभी आप हमारी तकलीफ़ नहीं समझ सकते। आपको अंदाज़ा नहीं है वो हमें किस नज़र से देखते हैं। अगर वो कभी ग़लती से भी हमसे छू गए, तो वो घर जाकर पहले नहाते हैं। हमें सब पता है। जाति का हमारा तजुर्बा बिल्कुल अलग है। ये हमारा रोज़ का अनुभव है।''
 
उसका छोटा भाई एक कोने में खड़ा है। जब 14 सितंबर को उसकी बहन को अलीगढ़ के अस्पताल में भर्ती कराया गया था, तो वो बड़ी रात को वहां पहुंचा था। वो नोएडा की एक लैब में चपरासी है।
 
भाई मुझे बताता है, ''वो मुझसे उमर में बड़ी थी। पिछले साल जाड़ों में मैं उसके लिए लाल जैकेट और बूट लाया था। मैं उसके लिए अक्सर कुछ न कुछ लाता रहता था। वो मुझसे कभी कुछ मांगती नहीं थी।''
 
वो आगे कहता है, ''हम इस गाँव में डर-डर के जीते हैं। हमें पैसे नहीं चाहिए। हम पैसे ख़ुद कमा सकते हैं। मगर हमारी इज़्ज़त का क्या?''
 
लड़की के परिजनों की सुरक्षा का क्या?
पूरे गाँव में पुलिसवाले दिखाई देते हैं। चार अक्टूबर को जब दलित नेता चंद्रशेखर आज़ाद ने कहा था कि जब तक राज्य सरकार पीड़ित परिवार को वाइई कैटेगरी की सुरक्षा नहीं देती, वो पीड़ित परिवार को अपने साथ ले जाना चाहते हैं।
 
चंद्रशेखर आज़ाद कहते हैं, ''अगर कंगना को सुरक्षा मिल सकती है तो मेरे परिवार को क्यों नहीं? मुझे इस सरकार पर यक़ीन ही नहीं है। मुझे सिर्फ़ सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा है। अगर वो परिवार को सुरक्षा नहीं देंगे, तो मैं उन्हें अपने साथ ले जाऊंगा।''
 
हालाँकि बाद में चंद्रशेखर आज़ाद उन लोगों को बिना अपने साथ लिए चले गए। बाद में आज़ाद ने कहा कि उन्हें परिवार को ले जाने की इजाज़त नहीं मिली।
 
चंद्रशेखर आज़ाद के ख़िलाफ़ धारा 144 के उल्लंघन के आरोप में एक एफआईआर दर्ज की गई है। यही नहीं, उत्तर प्रदेश पुलिस ने 400 से ज़्यादा अन्य अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़ भी यही केस दर्ज किया है।
 
भीम आर्मी के प्रमुख आज़ाद ने मांग की है कि हाथरस की घटना की जांच सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज को सौंपी जानी चाहिए जो तय समय सीमा के भीतर अपनी रिपोर्ट दे दें।
 
घर की छत से एक तार से हैलोजन बल्ब लटक रहा है। जब चंद्रशेखर आज़ाद, पीड़ित परिवार से मिलने आए थे, तो वो उन लोगों से बंद कमरों के भीतर मिले थे। घर के बाहर ही एक प्रेस कॉफ्रेंस भी हुई थी। लकड़ी की एक तखत को टेबल बनाया गया था। जिस पर ढेर सारे माइक रखे गए थे।
 
प्रेस कॉफ्रेंस को कवर करने आए पत्रकारों और वीडियोग्राफरों ने घर की छत पर और बाहर पोज़ीशन ली थी।
आज़ाद को पत्रकारों ने घेर लिया था। जब भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आज़ाद के गांव आने की ख़बर फैली तो श्रीराजपूत कर्णी सेना ने 'सच की पड़ताल' के लिए अपनी एक टीम भी गाँव भेजी थी।
 
कर्णी सेना के सुभाष सिंह ने कहा था कि वो गांव इसलिए आए क्योंकि भीम आर्मी का नेता चंद्रशेखर आज़ाद भी आ रहा था और उनके हेडक्वार्टर से कहा गया कि वो भी गाँव पहुंचें।
 
सुभाष सिंह ने कहा कि, ''हमने सुशांत सिंह राजपूत के मामले में भी लड़कर न्याय लिया था। इसमें मीडिया ने हमारी बहुत मदद की। और अब देखते हैं कि यहां की सच्चाई क्या है।'' मैं नहीं समझ पाई कि आत्महत्या के मामले में किससे लड़कर क्या मिला था जिसे वो न्याय बता रहे थे।
 
वो लड़की जो अब नहीं है…
पहला सवाल तो सबूत होने का है। फिर सवाल ये भी उठता है कि आख़िर सबूत किसे माना जाए। क्या दलित महिलाओं से बलात्कार की घटनाओं के लंबे इतिहास को भी सबूत माना जा सकता है?
 
क्या इस बात को भी सबूत माना जा सकता है कि जब उसकी बहन को घसीटा जा रहा था तो उसने उसका नाम पुकारा था? और क्या उन यादों को भी सबूतों के तौर पर गिना जाएगा जो अब उस पीड़िता के परिवार के पास बची हैं?
 
क्या सबूतों में वो अनछुई सैंडल भी होगी, जिसमें मोती लगे हैं? ये सैंडल उसका भाई बहन के लिए लाया था।
लड़की कहा करती थी कि उसे बड़ी ख़ुशी है कि प्रधानमंत्री ने बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना की शुरुआत की थी। वो ख़ुद तो ज़्यादा नहीं पढ़ सकी थी। लेकिन अपनी भाभी से वो ये ज़रूर कहा करती थी कि उसकी तीनों भतीजियाँ स्कूल जा सकेंगी।
 
'बेटी का सामान न फेकेंगे न किसी को देंगे'
प्रीति कहती हैं, ''गाँवों में लड़कियों के बहुत बड़े-बड़े सपने नहीं होते। आप तो शहर से आती हैं। हमारे लिए ये सवाल मायने नहीं रखते।''
 
उस लड़की ने सिर्फ़ एक बार गांव से बाहर क़दम रखा था, जब वो अपनी चाची की देख-भाल के लिए दिल्ली गई थी और जब वो बच्ची थी, तब एक बार अपनी नानी के गाँव गई थी। प्रीति याद करती हैं, ''दीदी तो हमेशा काम में ही लगी रहती थी।''

संध्या के लिए तो उसके जाने से बहुत ख़ालीपन आ गया है। उसकी कमी तो संध्या को हमेशा खलेगी। जब संध्या का ब्याह हुआ था तो पीड़िता बहुत छोटी उम्र की थी। धीरे धीरे ननद-भाभी पक्की सहेलियाँ बन गई थीं। उसकी दोनों बड़ी बहनों की शादी हो गई थी। संध्या अपनी ननद के लिए पुरानी सिलाई मशीन पर कपड़े सिला करती थी।
 
बेटी को याद करते हुए मां का गला अब भी भर आता है। वो अपनी बेटी की ख़ूबियाँ गिनाती हैं, ''उसकी नाक एकदम सीधी थी। वो बड़ी सुंदर थी। उसका सामान तो अब भी घर में रखा है। वो सामान को फेंकेगे नहीं। न किसी को देंगे। ''
 
वैसे भी कौन सा बहुत ज़्यादा सामान है उसका। कुछ कपड़े हैं। एक जोड़ी नई सैंडल है। पहनी हुई एक जोड़ी चप्पलों की है। कुछ सस्ती बालियां हैं, जो उसने हाल ही में ख़रीदी थीं, दिवाली पर पहनने के लिए। एक नीला गाउन भी है, जो उसे भाभी ने तब दिया था, जब पिछले साल परिवार में कोई शादी थी। उसका बस इतना सा सामान घर में है।
 
एक बार उसने एक चटाई बुनी थी और तीन झाड़ू भी बनाए थे। अब टीवी वालों को दिखाने के लिए वो बाहर रखे हुए हैं। मगर किसी को ये नहीं मालूम कि वो लड़की क्या थी। उसके ख़्वाब कैसे थे। या फिर उसे सबसे ज़्यादा किससे डर लगता था।
 
उसे अपना अंगूठा चूसते रहने की आदत थी। अक्सर वो अपनी भौंहें मरोड़ती रहती थी। संध्या ने उसकी आदत छुड़ाने के लिए एक बार उसके अंगूठों में नीम की पत्तियाँ पीसकर लगा दी थीं लेकिन वो मुंह में अंगूठा डालकर ही सोती थी।
 
संध्या याद करती हैं, ''उसने कभी अपने नाखूनों पर नेल पॉलिश नहीं लगाई। न ही वो अपने अंगूठे पर मेहंदी लगाती थी।''
 
अपना ही घर पराया बना
घर का टीवी एक कोने में पड़ा है। परिवार ने उसे तब से ऑन नहीं किया, जब से वो खेतों में बेसुध मिली थी। घर के कमरे हरे रंग से पुते हुए हैं। परिवार के सब लोग यहीं जमा होते थे। माँ-पिता को खाना खिलाने के बाद वो भैया-भाभी के साथ ही खाना खाती थी। पिछले कई दिनों से तो उन्हें खाना बनाने का मौक़ा ही नहीं मिला।
छह अक्टूबर को प्रीति ने खाना बनाया था, मगर किसी ने खाया ही नहीं। जब बाहर के लोग उनसे मिलने आते हैं, तो वो बस सुनते हैं। जब उनसे बाइट मांगी जाती है, तो वो कुछ बोल देते हैं।
 
परिवार के लिए तो ये अब रोज़ की जद्दोजहद है। अपने ही घर में वो वहां बैठते हैं, जहां उन्हें बैठने को कहा जाता है। घर के बरामदे में उसकी हरी दीवारों पर कृष्ण, राम, लक्ष्मी और दूसरे हिंदू देवी- देवताओं की तस्वीरें लगी हैं। भीतर जो पूजाघर है, वहां भी हिंदू भगवान विराजमान हैं।
 
अभी हाल ही में किसी ने उन्हें बुद्ध की मूर्ति और एक पोस्टर तोहफ़े में दिया था। परिवार को अब याद नहीं कि वो मूर्ति उन्हें किसने दी थी। लेकिन जब अगले दिन आप वहां जाते हैं, तो आपको वहाँ बुद्ध की मूर्ति लगी दिखती है। ये मूर्ति उम्मीदों का प्रतीक है।
 
इससे उन्हें उन अफ़वाहों से लड़ने की ताक़त मिलेगी, जो उनकी बेटी के बारे में और ख़ुद उनके बारे में ज़ोर-शोर से फैलायी जा रही हैं। गांव में उनकी तादाद भले ही बहुत कम हो, लेकिन परिवार ने तय किया है कि वो बेटी को इंसाफ़ दिलाने की ये जंग लड़ेगा।
 
अफ़ेयर की अफ़वाहें, 'पुरानी लड़ाई' और 'अंतरराष्ट्रीय साज़िश'
पुरानी पारिवारिक लड़ाई, अफ़ेयर की अफ़वाहें, अभियुक्त और मर चुकी लड़की के भाई के बीच बातचीत के कॉल रिकॉर्ड और हिंसा भड़काने की नीयत से विदेश से आई फंडिंग भर ही इस मामले में आए नए ट्विस्ट नहीं हैं।
मर चुकी लड़की के घर के बाहर एक महिला खड़ी है। वो एक और वाल्मीकि परिवार से है। वो कहती है कि इस मामले पर कुछ नहीं बोलेगी। यहाँ सब ख़ामोश हैं।
 
वहीं ठाकुरों के घर के बाहर एक आरोपी रामू की माँ राजवती देवी कहती हैं कि आरोपी बेगुनाह हैं। वो पूछती हैं, ''वहाँ लोग क्या कह रहे हैं? हम तो नार्को टेस्ट के लिए तैयार हैं। लेकिन वो क्यों टेस्ट के लिए नहीं तैयार हो रहे?''
 
उस पार एक हरे रंग के मकान के बाहर लड़की की चाची का ग़ुस्सा फूट पड़ता है। वो कहती हैं, ''उन्होंने तो हमें उसका आख़िरी बार मुंह तक नहीं देखने दिया। हम ग़रीब भले हैं, लेकिन इंसाफ की लड़ाई लड़ेंगे।''
 
गाँव में ऐसी ही ख़ामोशियों और एक दूसरे को ग़लत बताने वाले बयानों का बोल-बाला है। सिर्फ़ एक हक़ीक़त है कि एक दलित लड़की को क़त्ल कर दिया गया। सवाल इस बात का है कि हम सुनना क्या चाहते हैं। और जब हम इतने क़रीब पहुंच जाते हैं, तो आख़िर क्या दिखाई देता है।
 
पोस्ट-ट्रुथ का अड्डा बन चुके इस गांव में घूमकर कुछ समझने की कोशिश की जा सकती है। एक महिला के तौर पर, एक पत्रकार के तौर पर। तब आपको तमाम लोगों के सामूहिक तजुर्बे का अंदाज़ा होने लगता है और आपको बाज़रे के खेतों से डर लगने लगता है।
 
बलात्कार की याद दिलाते बाजरे के खेत
प्रीति कहती हैं कि उन्हें कभी इस बात से डर नहीं लगा क्योंकि वो तो हर रोज़ सुबह भैंसों के लिए चारा काटने उन खेतों में जाया करती थी। लेकिन अब वही बाजरे के खेत एक बलात्कार और हत्या का ठिकाना हैं।
छह अक्टूबर को जब हम वापस आने लगे तो तीन महिलाओं ने हमें देख कर हाथ हिलाया। उनमें से एक ने कहा, ''यहां अकेले मत घूमो। यहां ख़तरा है।''
 
हम उस जगह पर कुछ देर के लिए रुकते हैं, जहां उस लड़की को घसीट कर ले जाया गया था। यहाँ अंधेरा हमारा साया नहीं है। न ही दिन की रौशनी ही हमसफ़र है। मेरे ज़हन में जो मंज़र चस्पां रह जाता है, वो उन मोती लगे सैंडलों का है, जो उसने कभी नहीं पहने। जिन पर अभी भी टैग लगा हुआ है।

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