मानसी दाश, बीबीसी संवाददाता
19 दिसंबर को यानी नागरिकता संशोधन क़ानून के अस्तित्व में आने क़रीब छह दिन के बाद भारत सरकार ने हिंदी और उर्दू के कई अख़बारों में इससे संबंधित विज्ञापन दिए।
सरकार स्पष्ट तौर पर ये बताना चाहती थी कि इस नए क़ानून को ले कर कई भ्रांतियां फैली हुई हैं जिसे लेकर आम जन में कोई डर नहीं होना चाहिए। मतलब ये कि इसका विरोध नहीं होना चाहिए।
इसी के साथ गृह मंत्री अमित शाह भी टेलीविज़न पर इस क़ानून के बारे में चर्चा करते दिखाई दिए। बीजेपी का ट्विटर हैंडल भी हरकत में आया और नागरिकता संशोधन क़ानून और नागरिकता रजिस्टर (एसआरसी) को लेकर रही चिंताओं के बारे में पोस्ट किया जाने लगा।
ये करने की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि जब इस क़ानून को लेकर संसद में दोनों सदनों में बहस हो रही थी उसी दौरान से पूर्वोत्तर के राज्यों में इसके विरोध में प्रदर्शन शुरु हो चुके थे।
12 और 13 दिसंबर की दरम्यानी रात को नागरिकता संशोधन विधेयक पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हुए और वो नागरिकता संशोधन क़ानून बन गया।
तब तक विरोध प्रदर्शनों ने व्यापक रूप ले लिया था और भारत के कई हिस्सों- दिल्ली, मुंबई, उत्तर प्रदेश, केरल, गोवा और महाराष्ट्र में इसे लेकर विरोध की आवाज़ें तीव्र होती चली गईं। समाजसेवी कार्यकर्ताओं के अलावा बॉलीवुड की कई जानीमानी हस्तियां इसके विरोध में सड़कों पर उतरने लगीं।
लेकिन एक तरफ जहां 19 दिसंबर को अख़बारों पर और सोशल मीडिया पर सरकार और बीजेपी की तरफ से विज्ञापन दिख रहे थे वहीं उस दिन पूरे उत्तर प्रदेश, दिल्ली के कई इलाकों, कर्नाटक के कुछ जिलों में विरोध प्रदर्शनों पर नियंत्रण करने के लिए धारा 144 लगा दी गई।
दिल्ली में मेट्रो सेवाओं पर भी सीमित रोक लगा दी गई और इंटरनेट पर भी रोक लगाई गई। लेकिन क्या जनता के पास इस क़ानून की जानकारी लेकर जाने को हम ये कहेंगे कि बीजेपी बैकफुट पर है? या फिर ये कहा जाए कि सरकार स्थिति को नियंत्रण करने की जो कोशिशें कर रही है वो बताता है कि वो मज़बूत इरादे से आगे बढ़ना चाहती है।
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह कहते हैं मानते हैं कि बीजेपी इस क़ानून को लागू करने का मजबूत इरादा रखती है।
वो कहते हैं कि "जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं, वो दो बातों को लेकर विरोध कर रहे हैं। पहला ये कि ये संविधान सम्मत नहीं हैं और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है जो देश में सभी को बराबरी का अधिकार देती है। मुझे लगता है कि ये मामला अब सुप्रीम कोर्ट में चला गया है और ये संविधान का उल्लंघन करता है या नहीं ये उसे तय करने देना चाहिए।"
"जो बिल आया था और जिसके आधार पर ये बना है वो क़ानून किसी भी भारतीय मुसलमान या नागरिक के बारे में नहीं है।ये बात सही है कि इसमें अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमानों को शामिल नहीं किया गया है क्योंकि ये तीनों देश इस्लामिक हैं और इस कारण वहां न तो मुसलमान अल्पसंख्यक हैं न ही वहां उस तरह से धार्मिक रूप से प्रताड़ित हैं।"
प्रदीप सिंह कहते हैं कि इसे लेकर भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं कि इसके बाद एनआरसी लागू किया जाएगा जिसके ज़रिए उनकी नागरिकता छीन ली जाएगी और फिर उन्हें देश से बाहर कर दिया जाएगा। इस कारण सरकार कोशिश कर रही है कि वो इस क़ानून के बारे में लोगों की भ्रांतियां दूर करे।
वहीं वरिष्ठ पत्रकार राधिका रामाशेसन कहती हैं कि सरकार इसका आकलन करने में नाकाम रही कि क़ानून का कड़ा विरोध भी हो सकता है।
वो कहती हैं, "दो दिन पहले जब गृह मंत्री अमित शाह टेलिविज़न चैनल पर एक के बाद एक इंटरव्यू दे रहे थे, तो ऐसा लग रहा था कि वो अपने इरादे में अटल हैं कि किसी तरह ये नागरिकता संशोधन कानून और उसके बाद एनआरसी कराएँगे। लेकिन मुझे लगता है कि कहीं न कहीं सरकार की स्क्रिप्ट गड़बड़ा गई है क्योंकि इसे लेकर बड़े पैमाने पर हर प्रदेश में विरोध हो रहे हैं। बीजेपी का आकलन था कि ये हिंदू मुसलमान वाला मामला बन जाएगा और बीजेपी को इसका फायदा मिलेगा लेकिन ये हिंदू मुसलमान मामला नहीं रह गया है। कई सारे हिंदू विरोध प्रदर्शनों में शामिल हैं। इसे एक सांप्रदायिक रंग देना अब बेवकूफ़ी है। एक-दो दिन से मुझे लग रहा है कि सरकार बैकफुट पर जा रही है।"
हाल में गृहमंत्री ने दो टेलीविज़न चैनलों को इंटरव्यू दिए थे जिसमें उन्होंने कहा है कि "NRC में धर्म के आधार पर कोई कार्यवाही नहीं होनी। जो भी NRC के तहत इस देश का नागरिक नहीं पाया जायेगा सबको निकाला जायेगा।"
वहीं उन्होंने एनआरसी बनाने से संबंधित क़ानून बनाने के लिए कांग्रेस को भी घेरा था और कहा था कि "1985 में असम समझौते के तहत एनआरसी लागू किया जाएगा इसका वादा राजीव गांधी ने किया था। और इसे राष्ट्रव्यापी लागू करने की धारा इसमें कांग्रेस के कार्यकाल में जोड़ी गई थी।"
प्रदीप सिंह बताते हैं सबसे पहले एनआरसी 2015 में आया था जिस पर उस वक्त चर्चा हुई थी। विपक्ष ने उस वक्त कहा था कि संवेदनशील मुद्दा होने के कारण इस पर संयुक्त संसदीय समिति बननी चाहिए। दोनों सदनों की समिति बनी थी जिसने ढाई साल इस पर चर्चा की। इसी समिति ने जो रिपोर्ट दी थी उसके आधार पर विधेयक लाया गया था लेकिन उस वक्त ये लोकसभा में पेश किया गया था पर राज्यसभा में वो पेश ही नहीं किया गया।
अख़बारों में छपे विज्ञापनों में कहा गया है कि एनआरसी कभी लागू की गई तो ऐसे नीति नियम बनाए जाएंगे जिससे नागरिकों को परेशानी न हो।
राधिका रामाशेसन मानती हैं कि मुसलमानों में इसका बिल्कुल ग़लत संदेश गया है इस कारण सरकार को ये कहना पड़ रहा है अगर आप नागरिकता संशोधन क़ानून के तहत नागरिक घोषित हो जाते हैं तो आपको नागरिकता रजिस्टर के लिए रजिस्टर करने की कोई ज़रूरत नहीं है।
लेकिन पहले सरकार का कहना था कि नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी दोनों जुड़े हुए हैं, पहले क़ानून आएगा और फिर एनआरसी। हो सकता है कि ये संदेश भी जा रहा हो कि अगर ग़ैर मुसलमानों को क़ानून के तहत नागरिकता मिल जाए तो उन्हें एनआरसी में रजिस्टर न करना पड़े। तो फिर क्या सरकार ये कहना चाहती है कि केवल मुसलमानों को दोनों ही प्रक्रिया से गुज़रना पड़ेगा। सरकार इसे लेकर कुछ स्पष्ट नहीं कर रही है जिस कारण असमंजस की स्थिति बरकरार है।
वो कहती हैं, "थोड़ा कनफ्यूज़न तो आ ही रहा है। कभी कहते हैं कि धर्म के नाम पर नहीं होगा। कभी कह रहे हैं कि ग़ैर मुसलमानों को एनआरसी में नहीं जाना पड़ेगा। तो एक बार के लिए ये स्पष्ट करने की ज़रूरत है कि असल में क्या होने वाला है और किस क्रम में होने वाला है। आम नागरिकों को क्या-क्या करना पड़ेगा, इसे लेकर कुछ भी स्पष्ट नहीं है।"
इधर प्रदीप सिंह कहते हैं कि इस क़ानून को लेकर सरकार के सामने दुविधा की स्थिति पैदा हो गई है क्योंकि एक तरफ़ क़ानून के विरोध में लोग हैं, छात्र हैं तो दूसरी तरफ इसके पक्ष में लोग है।
वो कहते हैं, "ये राहत की बात हुई है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसका संज्ञान ले लिया है और कहा कि लोग तोड़फोड़ करेंगे और आगजनी करेंगे तो पुलिस के सामने उसे रोकने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। बड़ी साफ़ बात है कि जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं वो बेहद कमज़ोर रस्सी पर खड़े हैं। जिस दिन सुप्रीम कोर्ट से फ़ैसला आ जाएगा कि ये क़ानून संविधान समम्त है तो उनके पास और कोई तर्क नहीं बचेगा। क़ानून और संविधान तब तक उनके साथ है जब तक सुप्रीम कोर्ट इसके उलट कोई आदेश नहीं देता। संसद के दोनों सदनों से पास किया हुआ क़ानून तब तक देश का संवैधानिक रूप से लागू किया जाने वाला क़ानून है जब तक सुप्रीम कोर्ट उसको पलट न दे।"
हालांकि राधिका रामाशेन मानती हैं कि सुप्रीम कोर्ट विरोध ख़त्म करने जैसे आदेश दे तो सकती है लेकिन भारत एक गणतंत्र है और विरोध करना व्यक्ति का हक़ माना जाता है, इस कारण कोर्ट ऐसा आदेश नहीं देगी।
मौजूदा हालात देखते हुए ये पुख्ता तौर कहा नहीं जा सकता विरोध प्रदर्शन अब जल्द ही रुकने वाले हैं।
गुरुवार को कई जगहों पर धारा 144 लागू की गई और इंरनेट बंद किया गया, कुछ जगहों पर हिंसा भी हुई और सड़कों पर पुलिस की भारी तैनाती देखी गई। छात्र, बॉलीवुड से जुड़े लोग, इतिहासकार, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता, वकील - हर तरह के लोग विरोध में आवाज़ उठाते देखे गए - और ये मौजूदा स्थिति के बारे में काफ़ी कुछ कहता है।