- अरुणोदय मुखर्जी
भारत में आने वाले वक्त में अप्रत्याशित बिजली संकट खड़ा हो सकता है। भारत में 135 कोयले पर आधारित बिजली संयंत्र हैं जिनमें से आधे से अधिक कोयले की तंगी झेल रहे हैं क्योंकि कोयला भंडार में गंभीर कमी आ गई है। भारत में 70 फ़ीसदी से अधिक बिजली कोयले से उत्पादित होती है, ऐसे में ये चिंता का विषय है क्योंकि इससे महामारी के बाद पटरी पर लौट रही अर्थव्यवस्था फिर से पटरी से उतर सकती है।
ऐसा क्यों हो रहा है?
ये संकट कई महीनों से पैदा हो रहा है। कोरोनावायरस (Coronavirus) कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के बाद भारत की अर्थव्यवस्था में तेज़ी आई है और बिजली की मांग भी अचानक बढ़ी है। बीते दो महीनों में ही बिजली की ख़पत 2019 के मुकाबले 17 प्रतिशत बढ़ गई है। इस बीच दुनियाभर में कोयले के दाम 40 फ़ीसदी तक बढ़े हैं जबकि भारत का कोयला आयात दो साल में सबसे निचले स्तर पर है।
भारत में यूं तो दुनिया में कोयले का चौथा सबसे बड़ा भंडार है, लेकिन ख़पत की वजह से भारत कोयला आयात करने में दुनिया में दूसरे नंबर पर है। बिजली संयंत्र जो आमतौर पर आयात किए गए कोयले से चलते थे अब वो देश में उत्पादित हो रहे कोयल पर निर्भर हो गए हैं। इससे पहले से ही कमी से जूझ रही कोयला सप्लाई और भी दबाव में आ गई है।
इसका क्या असर हो सकता है?
विशेषज्ञों का मानना है कि अधिक कोयला आयात करके ज़रूरतों को पूरा करना इस समय भारत के लिए अच्छा विकल्प नहीं है। नोमुरा के वाइस प्रेसिडेंट और भारतीय अर्थशास्त्री ओरोदीप नंदी कहते हैं, हमने पहले भी कोयले की कमी देखी है लेकिन इस बार अभूतपूर्व बात ये है कि कोयला बहुत ज़्यादा महंगा है।
अगर मैं एक कंपनी हूं और मैं महंगे दाम पर कोयला ख़रीद रहा हूं तो मैं अपने दाम बढ़ा दूंगा, यही होगा ना? कारोबारी अंततः ख़र्च को ग्राहक तक पहुंचा देते हैं, ऐसे में इससे महंगाई बढ़ सकती है- ये प्रत्यक्ष तौर पर भी हो सकता है और अप्रत्यक्ष तौर पर भी।
यदि इसी तरह ये संकट चलता रहा तो ग्राहकों पर बिजली क़ीमतों के बढ़ने की मार पड़ सकती है। इस समय भारत में ख़ुदरा महंगाई पहले से ही बहुत है क्योंकि तेल से लेकर ज़रूरत की हर चीज़ महंगी हो चुकी है। इंडिया रेटिंग्स रिसर्च के डायरेक्टर विवेक जैन कहते हैं कि परिस्थिति बहुत ही अनिश्चित है।
भारत ने हाल के सालों में पर्यावरण के लिए अपनी प्रतिबद्धताएं पूरी करने के लिए कोयले पर अपनी निर्भरता कम करने की कोशिश की है जिसकी वजह से भारत में कोयला उत्पादन भी कम हुआ है। भारत के ऊर्जा मंत्री आरके सिंह ने अख़बार इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक साक्षात्कार में कहा है कि मौजूदा परिस्थिति जोख़िम भरी है और भारत को अगले पांच-छह महीनों के लिए तैयार रहना चाहिए।
एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने नाम न ज़ाहिर करते हुए बीबीसी से कहा कि परिस्थितियां चिंताजनक हैं। भारत में 80 फ़ीसदी कोयला उत्पादित करने वाले सरकारी उपक्रम कोल इंडिया लिमिटेड की पूर्व प्रमुख ज़ोहरा चटर्जी चेताती हैं कि यदि स्थिति ऐसी ही बनी रही तो एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटने के लिए संघर्ष करेगी।
ज़ोहरा कहती हैं, बिजली से ही हर चीज़ चलती है, ऐसे में पूरा उत्पादन सेक्टर- सीमेंट, स्टील, कंस्ट्रक्शन, सब कोयले की कमी से प्रभावित होते हैं। वो मौजूदा परिस्थिति को भारत के लिए एक चेतावनी की तरह बताती हैं और कहती हैं कि अब समय आ गया है जब भारत कोयले पर अपनी निर्भरता कम करे और अक्षय ऊर्जा रणनीति पर आक्रामकता से आगे बढ़े।
सरकार क्या कर सकती है?
भारत अपनी क़रीब 140 करोड़ की आबादी की ज़रूरतों को कैसे पूरा करे और भारी प्रदूषण करने वाले कोयले पर निर्भरता कैसे कम करे, हाल के सालों में ये सवाल भारत की सरकारों के लिए चुनौती बना रहा है। डॉक्टर नंदी कहते हैं कि ये समस्या इतनी बड़ी है कि इसका कोई अल्पकालिक हल नहीं निकाला जा सकता है।
नंदी कहते हैं, सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इसका दायरा बहुत बड़ा है। हमारी बिजली का एक बड़ा हिस्सा थर्मल पावर (कोयले) से आता है। मुझे नहीं लगता कि अभी हम ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं कि थर्मल पावर का कोई प्रभावी विकल्प ढूंढ सकें। मैं ये मानता हूं कि ये भारत के लिए एक चेतावनी है और भारत को संभलना चाहिए। लेकिन मुझे नहीं लगता कि हमारी ऊर्जा ज़रूरतों में कोयले पर निर्भरता को जल्द समाप्त किया जा सकेगा।
विशेषज्ञ मानते हैं कि संभावित दीर्घकालिक समाधान के लिए भारत को कोयले और क्लीन (स्वच्छ) ऊर्जा स्रोत अपनाने की मिश्रित नीति पर चलना होगा। जैन कहते हैं, पूरी तरह अक्षय ऊर्जा पर शिफ़्ट हो जाना संभव नहीं है और बिना किसी ठोस बैकअप के 100 प्रतिशत अक्षय ऊर्जा पर निर्भर हो जाना सही रणनीति भी नहीं होगी।
जैन कहते हैं, आप तब ही पूरी तरह परिवर्तन करते हैं जब आपके पास बैकअप उपलब्ध होता है क्योंकि ऐसा करके आप बड़े पैमाने पर उत्पादन को पर्यावरण और मौसम से जुड़े ख़तरों से जोड़ रहे होते हैं। वहीं पूर्व प्रशासनिक अधिकारी ज़ोहरा चटर्जी मानती हैं कि कई ऊर्जा स्रोतों में दीर्घकालिक निवेश करने और सही योजना बनाने से मौजूदा संकट जैसी स्थिति से बचा जा सकता है।
वो मानती हैं कि देश के सबसे बड़े कोयला आपूर्तिकर्ता कोल इंडिया और दूसरे हितधारकों के बीच बेहतर समन्वय बनाए जाने की ज़रूरत है। अंतिम स्तर तक आसानी से डिलीवरी और बिजली कंपनियों की ज़िम्मेदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।
चटर्जी कहती हैं, बिजली उत्पादकों को कोयले के भंडार भी रखने चाहिए, उनके पास एक निश्चित सीमा का भंडारण हर समय होना चाहिए। लेकिन हमने देखा है कि ऐसा हो नहीं सका है क्योंकि इतनी बड़ी तादाद में कोयले की व्यवस्था करने की वित्तीय चुनौतियां होती हैं।
आगे क्या हो सकता है?
ये साफ़ नहीं है कि मौजूदा परिस्थिति कब तक रहेगी लेकिन नंदी को उम्मीद है कि चीज़ें बेहतर होंगी। वो कहते हैं, मानसून समाप्त हो रहा है और सर्दियां आ रही हैं, ऐसे में आमतौर पर बिजली ख़पत कम हो जाती है और बिजली की ज़रूरत और आपूर्ति के बीच अंतर कुछ हद तक कम हो सकता है।
विवेक जैन कहते हैं, ऐसी स्थिति दुनियाभर में है, सिर्फ़ भारत तक ही सीमित नहीं है। यदि आज गैस के दाम गिरते हैं तो लोग गैस अधिक इस्तेमाल करने लगेंगे। ये एक बदलती हुई परिस्थिति है। फ़िलहाल भारत सरकार ने कहा है कि वह कोल इंडिया के साथ मिलकर उत्पादन बढ़ाने और अधिक खनन करने पर काम कर रही है, ताकि आपूर्ति और ख़पत के बीच अंतर को कम किया जा सके।
सरकार को बंधक खदानों से कोयला हासिल करने की भी उम्मीद है। ये वो खदानें हैं जो कंपनियों के नियंत्रण में होती हैं और इनसे उत्पादित कोयले का इस्तेमाल सिर्फ़ वो कंपनियां ही करती हैं। सरकार के साथ हुए समझौते की शर्तों के तहत इन खदानों को कोयला बेचने की अनुमति नहीं होती है।
विशेषज्ञ ये मानते हैं कि भारत अल्पकालिक उपायों से किसी तरह मौजूदा संकट से तो निकल सकता है, लेकिन देश की बढ़ती ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भारत को दीर्घकालिक विकल्पों में निवेश करने की दिशा में काम करना होगा। दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं में हाल के दशकों की सबसे बड़ी गिरावट आई है और भारत भी अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश कर रहा है। ऐसे में भारत नहीं चाहेगा कि उसके रास्ते में रुकावटें आएं।