इसराइल-ग़ज़ा: गूगल मैप पर धुंधला क्यों दिखता है ये इलाक़ा?

BBC Hindi
मंगलवार, 18 मई 2021 (08:25 IST)
क्रिस्टोफ़र गाइल्स, जैक गुडमैन, बीबीसी रिएलिटी चेक
दुनिया की सबसे घनी आबादी वाले इलाक़ों में से एक ग़ज़ा गूगल मैप पर धुंधला क्यों दिखाई देता है? ओपन सोर्स, सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध जानकारी (मैपिंग डेटा जो हमलों और नुकसान के डॉक्यूमेंटेशन के लिए इस्तेमाल किया जाता है) की मदद से शोधकर्ताओं ने इस मुद्दे को सामने रखा।
 
पेशे से ओपन-सोर्स इन्वेस्टिगेटर समीर कहते हैं, "वास्तविकता ये है कि हमें इसराइल और फ़लस्तीनी क्षेत्रों से हाई-रेज़ोल्यूशन वाली सैटेलाइट इमेज नहीं मिलती हैं।"
 
दरअसल, इसराइल और फ़लस्तीन के ज़्यादातर इलाक़े गूगल अर्थ पर लो-रेज़ोल्यूशन सैटेलाइट इमेज के तौर पर दिखते हैं, भले ही सैटेलाइट कंपनियों के पास उच्च गुणवत्ता वाली तस्वीरें मौजूद हों। सैटेलाइट इमेज में ग़ज़ा शहर में कारों को देख पाना बहुत ही मुश्किल से संभव है।
 
अगर इसकी तुलना उत्तर कोरिया की 'रहस्यमयी' राजधानी प्योंगयांग से करें, तो यहां भी कारें एकदम स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ती हैं। साथ ही लोगों को भी देख पाना संभव है।
 
सैटेलाइट से ली गईं तस्वीरों का महत्व क्या है?
अगर आप हिंसा और संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों की पत्रकारिता कर रहे हैं तो ऐसी तस्वीरें रिपोर्टिंग का एक अहम हिस्सा बन चुकी हैं। इसराइल-फ़लस्तीन के बीच जारी संघर्ष को समझने के लिए जांचकर्ता सैटेलाइट से ली गई तस्वीरों का इस्तेमाल करना चाह रहे हैं। ताकि ये समझ सकें कि मिसाइल से हमला कहां हुआ और ग़ज़ा में किस इमारत को निशाना बनाया गया।
 
सामान्य तौर पर गूगल अर्थ इस तरह की तस्वीरों के लिए इस्तेमाल किया जाना जाने वाला सबसे लोकप्रिय और आसान प्लेटफॉर्म है लेकिन गूगल अर्थ पर अगर ग़ज़ा की हालिया तस्वीर देंखें तो ये लो-रेज़ोल्यूशन की हैं और इसलिए काफी धुंधली भी हैं।
 
बेलिंगकैट के पत्रकार एरिक टोलर ने इस संदर्भ में एक ट्वीट किया है। वो लिखते हैं, "गूगल अर्थ पर सबसे नवीनतम तस्वीर साल 2016 की है और ये बिल्कुल बेकार दिखती है। मैंने सीरिया के कुछ ग्रामीण इलाकों को ज़ूम-इन करके देखने की कोशिश की और उस समय से इसकी क़रीब 20 तस्वीरें हैं जो हाई-रेज़ोल्यूशन में ली गई हैं।"
 
वहीं, गूगल का कहना है कि वो पूरी कोशिश करता है कि घनी आबादी वाले इलाक़ों की तस्वीर को नियमित तौर पर री-फ्रेश करता रहे लेकिन ग़ज़ा के मामले में ऐसा नहीं है।
 
क्या हाई-रेज़ोल्यूशन वाली तस्वीरें उपलब्ध हैं?
पिछले साल तक अमेरिका ने इसराइल और फ़लस्तीन के इलाक़ों की सैटेलाइट तस्वीरों की गुणवत्ता पर प्रतिबंध लगा रखा था जिसे अमेरिकी कंपनियों को कारोबारी आधार पर दिये जाने की अनुमति थी।
 
इस प्रतिबंध का उल्लेख साल 1997 में बने अमेरिकी क़ानून काइल-बिंगमैन संशोधन (केबीए) में किया गया था। ये कानून इसराइल की सुरक्षा चिंताओं के मद्देनज़र लाया गया था। केबीए के तहत, अमेरिकी सैटेलाइट इमेज मुहैया कराने वालों को इस बात की अनुमति थी कि वे कम रेज़ोल्यूशन की तस्वीर दे सकते हैं।
 
हालांकि ये कोई नई बात नहीं है कि सैन्य ठिकानों जैसी जगहों को धुंधला दिखाया जाए। लेकिन केबीए इकलौता ऐसा मामला था जिसके तहत एक पूरे देश के लिए यह प्रतिबंध लागू था।
 
एक और बात, केबीए के तहत सिर्फ़ इसराइल का ज़िक्र किया गया था लेकिन इसे फ़लस्तीनी क्षेत्रों पर भी लागू किया गया था। हालांकि एक बार गैर-अमेरिकी कंपनी जैसे फ्रांस की कंपनी एयरबस इन तस्वीरों को हाई-रेज़ोल्यूशन में मुहैया कराने की स्थिति में आ गई थी, जिसके बाद अमेरिका पर अपने प्रतिबंधों को समाप्त करने का दबाव बढ़ गया।
 
साल 2020 की जुलाई में केबीए को हटा दिया गया। जिसके बाद अब अमेरिकी सरकार ने अमेरिकी कंपनियों को इन क्षेत्रों की हाई-रेज़ोल्यूशन वाली तस्वीरें देने की अनुमति दे दी है।
 
ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी में ऑर्कियोलॉजिस्ट मिशेल फ्रेडले के मुताबिक़, "प्रारंभिक प्रेरणा वैज्ञानिक थी।" फ्रेडले उन शिक्षाविदों में से एक हैं जिन्होंने इस संशोधन को बदलने के लिए अभियान चलाया था।
 
उनके अनुसार, "हम अपने प्रोजेक्ट्स पर काम करने के लिए सही डेटा स्रोत चाहते थे इसलिए हमें कब्ज़े वाले फ़लस्तीन क्षेत्रों की हाई-रेज़ोल्यूशन वाली तस्वीरें चाहिए थीं। हम किसी क्षेत्र विशेष के अध्ययन के लिए इन तस्वीरों का इस्तेमाल करते हैं।"
 
तो ग़ज़ा अभी भी धुंधला क्यों है?
बीबीसी ने समझने के लिए गूगल और ऐपल से बात की। (जिनके मैपिंग ऐप्स भी सैटेलाइट इमेज दिखाते हैं।)
ऐपल ने कहा कि वो जल्द ही अपने मैप्स को 40cm के हाई-रेज़ोल्यूशन पर अपडेट करने के लिए काम कर रहा है।
 
गूगल ने बताया कि उसके पास जो इमेज होती हैं उसका कोई एकमात्र सोर्स नहीं, वो कई प्रोवाइडर्स से आती हैं और जब हाई-रेज़ोल्यूशन की इमेज मिलती है तो वह उसे अपडेट करने पर भी विचार करता है। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि फिलहाल "अभी ऐसा करने की उनकी कोई योजना नहीं" है।
 
बेलिंगकैट के ओपन-सोर्स इंवेस्टिगेटर के तौर पर काम करने वाले निक वॉटर्स कहते हैं, "मौजूदा घटनाओं के महत्व को देखते हुए, मुझे ऐसा कोई कारण समझ नहीं आता है कि आख़िर क्यों इस क्षेत्र को लो-रेज़ोल्यूशन का दिखाया जा रहा है।"
 
लेकिन ये तस्वीरें लेता कौन है?
पब्लिक मैपिंग प्लेटफ़ॉर्म जैसे गूगल अर्थ और ऐपल मैप्स आमतौर पर उन कंपनियों पर निर्भर हैं जिनके पास तस्वीरें देने के लिए अपने सैटेलाइट्स हैं।
 
मैक्सार और प्लैनेट लैब्स वो दो सबसे बड़ी कंपनियां हैं जो फिलहाल इसराइल और ग़ज़ा की हाई-रेज़ोल्यूशन तस्वीरें मुहैया करा रही हैं। मैक्सार ने अपने एक बयान में कहा है कि "हाल के सालों में जिस तरह अमेरिका ने अपने नियमों में बदलाव किया है उसके फलस्वरूप इसराइल और ग़ज़ा की सैटेलाइट तस्वीरें 40 सेंटीमीटर रेज़ोल्यूशन पर दी जा रही हैं।"
 
वहीं प्लैनेट लैब्स ने इस बात की पुष्टि की है कि वो 50 सेंटीमीटर रेज़ोल्यूशन पर सैटेलाइट तस्वीरें देता है। ओपन सोर्स जांचकर्ता हालांकि फ्री-टू-यूज़ मैपिंग सॉफ़्टवेयर पर बहुत अधिक भरोसा करते हैं और अक्सर उनकी इन हाई-रेज़ोल्यूशन वाली तस्वीरों तक सीधी पहुंच नहीं होती।
 
हाई रेज़ोल्यूशन वाली तस्वीरों से क्या पता चल सकता है?
ह्यूमन राइट्स वॉच के शोधकर्ता ने साल 2017 में प्लैनेट लैब्स के साथ मिलकर म्यांमार में सेना द्वारा रोहिंग्या गांवों को नष्ट किये जाने की बात ज़ाहिर की थी।
 
इन तस्वीरों से उन्होंने उस क्षेत्र के दो सौ गांवों की पहले और बाद की तस्वीरों की तुलना करते हुए मैप तैयार किया था। जिससे गांवों को हुए नुकसान को समझना आसान हुआ। ये सभी तस्वीरें 40 सेंटीमीटर की हाई-रेज़ोल्यूशन वाली थीं। इन तस्वीरों ने रोहिंग्या लोगों के दावों की पुष्टि करने में अहम भूमिका निभाई।
 
इसके अलावा चीन के शिनझियांग क्षेत्र में क्या हो रहा है, इस पर नज़र रखने के लिए भी सैटेलाइट तस्वीरें अहम रही हैं। जिनकी मदद से ही वीगर मुसलमानों के लिए चीन द्वारा चलाए जा रहे "री-एजुकेशन" केंद्रों का भी पता चला।
 

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