बैंगलुरू में एक आदमी एक टीचर की तरफ़ आकर्षित होता है पर वो मना करती है तो वो उसकी हत्या कर देता है। दिल्ली में एक लड़की अपना पीछा करने वाले लड़के के ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत करती है, इसके बावजूद वो चाकू से गोदकर उसकी जान ले लेता है। कड़े क़ानूनों के बावजूद ऐसी वारदातें अक़्सर होती हैं। लड़की के 'मना' करने के बाद भी कई लड़के ज़बरदस्ती उनका पीछा करते हैं और अपनी बात मनवाने के लिए हिंसा पर उतर आते हैं।
अब आकर्षण तो लड़कियों को भी होता होगा और कभी-कभार ये एक-तरफ़ा ही होगा। लड़के भी उन्हें 'ना' कहते होंगे, तब वो क्या करती हैं?
कभी ऐसा सुनने को क्यों नहीं मिलता कि प्यार ठुकराए जाने पर लड़की ने लड़के को मारा या चोट पहुंचाने की कोशिश की?
क्रिमिनल साइकॉलोजिस्ट डॉ. अनुजा कपूर के मुताबिक ऐसे मामले में लड़की का व्यवहार बहुत अलग होता है। वो कहती हैं, "लड़की के एक-तरफा प्यार को लड़का ठुकराए तो वो उसको नुकसान पहुंचाने के बजाय खुद को तकलीफ़ देती है, नस काट सकती है, आत्महत्या की कोशिश तक कर सकती है।"
पर ये इतना उल्टा क्यों? कई बार ऐसी वारदातें होती हैं जहां लड़की की 'ना' सुनकर भड़का लड़का उस पर एसिड फेंककर 'सबक' सिखाने की कोशिश करता है। वो सोचता है कि वो लड़की अगर उसकी ज़िंदगी का हिस्सा बनने को तैयार नहीं तो किसी और की भी ना बन सके।
एसिड से उसका ख़ूबसूरत चेहरा तो जलता ही है, इलाज का ख़र्च, दिन-दहाड़े हमले का डर, हिम्मत को चोट जैसे गहरे घाव हो जाते हैं। अपना मनपसंद प्यार ना मिलने पर लड़कियां ऐसी हिंसा पर क्यों नहीं उतरतीं? ऐसे घाव देने से उन्हें चैन क्यों नहीं मिलता?
मैं लड़कियों और लड़कों को दो अलग खांचों में नहीं रखना चाहती। ना उनके स्वभाव का विश्लेषण करना चाहती हूं। पर ये समझती हूं कि समाज में जब नवजात को पाल-पोस कर लड़का या लड़की बनाया जाता है तो कहे-अनकहे कुछ हक़ दे दिए जाते हैं और कुछ खींच लिए जाते हैं। मसलन प्यार अक़्सर लड़के पहले जताते हैं। लड़की को वो चुनते हैं। छेड़कर, आकर्षण जताना लड़कों के लिए आम माना जाता है।
फिर फ़िल्मों में भी ऐसी सोच को साधारण माना जाता है कि लड़की के शर्मीले या गुस्सैल स्वभाव की वजह से उसकी 'ना' में 'हां' छिपी होती है।
फ़िल्मों में उसे ज़बरदस्ती 'हां' में बदलना 'प्यार' होता है और असल ज़िंदगी में हिंसा का रूप ले लेता है।
ऐसा तो कहीं नहीं दिखाया जाता कि लड़का किसी लड़की को 'ना' कहे तो लड़की उसमें 'हां' समझ ले और फिर अपनी बात मनवाने के लिए किसी भी हिंसक हद तक चली जाए। फिर बचपन से ही समाज उन्हें देवी के रूप से और जल्दी माफ़ करनेवाली के तौर पर देखता है। यहां तक कि क़ानून में भी ऐसे अपराध के लिए लड़कों को ही दोषी माना गया है।
डॉ. कपूर के मुताबिक समाज लड़कियों को बार-बार ये अहसास दिलाता है कि वो शारीरिक तौर पर लड़कों से कमज़ोर हैं जिस वजह से उनमें घात लगाकर हमला करने वाली, यानी 'प्रिडेट्री' प्रवृति पनपने ही नहीं दी जाती। इसका असर सिर्फ़ हिंसा करने पर नहीं, खुद को हमलों से बचाने के मामले में भी देखने को मिलता है।
मैंने जब आत्मरक्षा यानी सेलिफ़-डिफ़ेंस की एक वर्कशॉप में हिस्सा लिया तो हमें बताया गया कि हमला होने पर इंसान का शरीर ऐसे हार्मोन बनाने लगता है जो अधिक ऊर्जा देते हैं। पर लड़कियों में हमला करने की प्रवृति विकसित नहीं हुई होती इसलिए वो इस ऊर्जा का इस्तेमाल सामना करने के बजाय डर में तब्दील हो जाता है।
इसलिए आत्मरक्षा की ओर पहला कदम था ज़रूरत के समय लड़कियों का आक्रामक होने को सही समझना। ऐसा नहीं कि मैं लड़कियों के हिंसक होने की व़कालत कर रही हूं बल्कि आइना दिखाकर ये जताना चाहती हूं कि पीछा कर हिंसक होने की छूट कहीं हम सबने मिलकर ही तो लड़कों को नहीं दी? और उसे बदलना काफ़ी हद तक हमारे हाथ में ही है।