जब चांद पर नील आर्मस्ट्रॉन्ग की धड़कनें तेज़ हो गईं

Webdunia
सोमवार, 22 जुलाई 2019 (11:30 IST)
चंद्रमा पर इंसान के पहुंचने के 50 साल पूरे हो गए हैं। भारत समेत कई देश चांद पर नए मिशन भेजने की तैयारी में जुटे हैं। ऐसे में चंद्रमा पर पहुंचने वाले नासा के मिशन की 50वीं सालगिरह पर उसकी यादें दुनियाभर में ताज़ा की जा रही हैं। नासा ने चांद पर पहुंचने के लिए अपोलो नाम का यान तैयार किया था। इसकी पहली उड़ान 11 अक्टूबर 1968 को अपोलो 7 मिशन के तहत हुई थी, जिसे धरती की कक्षा की सैर के लिए भेजा गया था। अपोलो 1 मिशन के सभी यात्रियों की मौत के बाद इसे पूरी तरह नए सिरे से डिज़ाइन किया गया था। अपोलो 7 पर बहुत कुछ निर्भर था। अगर ये मिशन नाकाम होता, तो शायद नील आर्मस्ट्रॉन्ग कभी भी अपने छोटे क़दम चांद पर नहीं रख पाते।

मर्करी और जेमिनी मिशन : कम से कम अगले एक दशक तक तो इसकी कोई संभावना नहीं थी। जबकि अमेरिकी  राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने नासा के चांद पर पहुंचने के मिशन के लिए यही समय 1961 में तय किया था। अपोलो 7 मिशन के कमांडर नासा के सबसे तजुर्बेकार अंतरिक्ष यात्री वैली शिरा थे।

वो मर्करी और जेमिनी मिशन के तहत अंतरिक्ष में जा चुके थे। अपोलो के कैप्सूल के भीतर उनके साथ पहली बार अंतरिक्ष में जाने वाले डॉन आइसेल और वाल्ट कनिंघम भी थे। लोगों का मानना था कि चंद्रमा पर उतरने की कोशिश करने वाला अंतरिक्ष यात्रियों का ये पहला जत्था होगा।

मिशन पर गहरा असर : लेकिन अपोलो 7 के लांच होने के कुछ घंटों के भीतर ही वैली शिरा को ज़ुकाम हो गया। इसका पूरे मिशन पर बहुत गहरा असर पड़ा था। वाल्ट कनिंघम, 50 साल पहले की उस घटना को याद करते हुए बताते हैं, वैली को अपनी नाक बार-बार साफ़ करनी पड़ रही थी। इसके बाद उन्हें टिशू पेपर रखने की जगह भी खोजनी पड़ती थी। कई बार ऐसा करने के बाद मैंने और डॉन ने उनसे कहा कि सारे टिशू पेपर तुम ही इस्तेमाल नहीं कर सकते।

पूरे कैप्सूल में इस्तेमाल किए हुए टिशू पेपर ठुंसे पड़े थे। बीमारी की वजह से वैली शिरा थक भी रहे थे और वो बात-बात पर चिढ़ भी रहे थे। इसका असर नासा के कंट्रोल रूम से हो रही उनकी बातचीत पर भी पड़ रहा था। मिशन कंट्रोल में उस वक़्त फ्लाइट डायरेक्टर रहे जेरी ग्रिफ़िन कहते हैं, वो बड़ा मज़ेदार तजुर्बा था। अपोलो में सवार तीनों अंतरिक्ष यात्रियों का रिश्ता दिलचस्प हो गया था।

मिशन पूरी तरह क़ामयाब रहा : वैली शिरा, कंट्रोल रूम से बार-बार बहस कर रहे थे। उनकी बातें मानने से मना कर रहे थे और एक बार तो उन्होंने अपने बॉस और साथी अंतरिक्ष यात्री रहे डेक स्लेटन को कह दिया कि, भाड़ में जाओ। ग्रिफ़िन कहते हैं कि मुझे आज तक इसकी वजह समझ में नहीं आई। वैली शिरा के बर्ताव से मैं सदमे में था।

11 दिन अंतरिक्ष में रहने के बाद वैली और उनके दोनों साथी धरती पर लौट आए। मिशन पूरी तरह क़ामयाब रहा था। इस दौरान वैली ने यान में मौजूद पूरा टिशू पेपर इस्तेमाल कर लिया था और बंद नाक खोलने की सारी दवाएं भी खा डाली थीं। उनके बर्ताव को साथियों के साथ भी जोड़ दिया गया और वो तीनों दोबारा कभी अंतरिक्ष नहीं जा सके।

अंतरिक्ष यात्रियों की सेहत : किसी भी स्पेस मिशन के दौरान अंतरिक्ष यात्रियों की सेहत से जुड़े तमाम आंकड़े इकट्ठे किए जाते हैं। फिर वो ज़ुकाम हो, बुखार हो या फिर लंबे वक़्त तक पेशाब इकट्ठा करने वाली मशीन पहनने से होने वाली जलन ही क्यों न हो। अपोलो 15 मिशन के दौरान एक अंतरिक्ष यात्री के दिल की धड़कनें असामान्य हो गई थीं।

डॉक्टरों का मानना था कि ऐसा पोटेशियम की कमी से हुआ था। इसलिए अपोलो 16 मिशन के यात्रियों के लिए नारंगी, मौसमी और नींबू जैसे फलों की तादाद ज़्यादा रखी गई, जबकि एक का कंधा खिंच गया था। वहीं अपोलो 13 के अंतरिक्ष यात्रियों को पानी की कमी की वजह से डिहाइड्रेशन हो गया था। जिसके बाद उन्हें बहुत गैस बनने लगी।

साइट्रस फल : जब अपोलो 16 के अंतरिक्ष यात्री जॉन यंग चांद पर चहलक़दमी कर रहे थे, तो उन्होंने अपने साथी चार्ली ड्यूक के साथ अंतरिक्ष के खानपान पर दिलचस्प चर्चा की, पर ग़लती से उन दोनों की बातचीत मिशन कंट्रोल को भी सुनाई दी और बाक़ी दुनिया ने भी उसे सुना। यंग ने कहा कि उन्हें गैस बहुत परेशान कर रही है।

पता नहीं खाने में क्या मिलाकर दिया जा रहा। एसिड बहुत बन रहा है। यंग ने आगे कहा कि उन्होंने पिछले बीस साल में इतने साइट्रस फल नहीं खाए होंगे, जितने केवल इस मिशन के दौरान खा लिए। किसी छोटे से बंद स्पेस कैप्सूल में अगर किसी यात्री को बहुत गैस खुलने लगे, तो वाक़ई ये गंभीर समस्या बन जाती है।

नील आर्मस्ट्रॉन्ग : वहीं अपोलो 10 मिशन के एक यात्री से तो और भी भयंकर ग़लती हो गई थी। मलत्याग के बाद वो उसे ठीक से सील करने में नाकाम रहा। इसके बाद तो स्पेस कैप्सूल में हंगामा ही बरपा हो गया। चांद पर पहुंचने वाले अपोलो 11 मिशन के कमांडर नील आर्मस्ट्रॉन्ग दबाव में भी बहुत सामान्य रहते थे। मिशन के दौरान उनके दिल की धड़कन बिल्कुल ही सामान्य थी।

20 जुलाई 1969 को जब वो कमांड मॉड्यूल से अलग होकर लूनर मॉड्यूल के साथ चांद पर उतरे, तो भी आर्मस्ट्रॉन्ग के दिल की धड़कन बिल्कुल सामान्य ही थी, लेकिन जब कंप्यूटर के चेतावनी अलार्म बजने लगे, तो नील के दिल की धड़कन भी बढ़ने लगी। चांद पर अपना अंतरिक्ष यान उतारने के वक़्त ज़रूर नील के दिल की धड़कनें बहुत तेज़ हो गईं।

मुश्किल हालात में : लेकिन जैसे ही वो चांद की सतह पर उतरे और 2 मिनट बाद मिशन कंट्रोल ने उन्हें वहीं ठहरने के लिए कहा, तो नील के दिल की धड़कन फिर से सामान्य हो गई। अपोलो 15 के यात्रियों के दिल की धड़कनें तेज़ होने के अलावा नासा के जेमिनी 9 मिशन के दौरान भी अंतरिक्ष यात्रियों की सेहत का ऐसा ही मसला खड़ा हो गया था। मिशन के आख़िरी दिन जीन सर्नन को अंतरिक्ष में तैरते हुए मरम्मत का कुछ काम करना था। ऐसा करते हुए जीन की सांसें उखड़ने लगीं।

उन्होंने जितनी बार कोशिश की हर बार ऐसा ही हुआ। वो परेशान हो गए। मिशन कंट्रोल को भी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। हालांकि बहुत ही मुश्किल हालात में जीन आख़िरकार मरम्मत का वो काम पूरा कर सके। इसके बाद कैप्सूल के भीतर आकर उन्होंने काफ़ी देर तक गहरी सांस ली।

रेडिएशन से परेशानी : साथी अंतरिक्ष यात्री टॉम स्टैफोर्ड ने पानी वाली पिचकारी से उन पर पानी छिड़का। अमेरिका के पहले सैटेलाइट एक्सप्लोरर 1 ने धरती की कक्षा में मौजूद विकिरण के क्षेत्र की खोज की थी। इन्हें वैन एलेन बेल्ट्स के नाम से जानते हैं। इनसे गुज़रते हुए या बचकर निकलते हुए भी चांद पर पहुंचना बहुत बड़ा जोखिम था।

1966 में सोवियत संघ ने दो कुत्तों को अंतरिक्ष मे भेजा था, जो वैन एलेन बेल्ट्स से होकर गए। लेकिन उन्हें कोई नुक़सान नहीं हुआ। न ही रेडिएशन ने उन्हें परेशान किया। फिर भी नासा के डॉक्टर इस विकिरण के इंसानों पर असर को लेकर फ़िक्रमंद थे। इसीलिए धरती की कक्षा से बाहर जाने वाले पहले मिशन यानी अपोलो 8 के कमांडर फ्रैंक बोरमैन जब बीमार पड़े, तो पहला शक वैन एलेन बेल्ट्स पर ही गया था।

अंतरिक्ष मे भारहीनता : फ्रैंक को उल्टियां हो रही थीं। आज हमें पता है कि उन्हें 'स्पेस सिकनेस' हो रही थी। ऐसा अंतरिक्ष में भारहीनता की वजह से होता है, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण न होने से लोगों को अपना वज़न नहीं महसूस होता। जब चांद से लौटकर अपोलो 11 के यात्री धरती पर आए तो उनका हाथ मिलाकर स्वागत नहीं किया गया। वो प्रशांत महासागर में अपने कैप्सूल के साथ घिरे थे।

रिकवरी टीम ने उस कैप्सूल को खींचकर एक जहाज़ पर डाला। फिर तीनों अंतरिक्ष यात्रियों को एक सुरक्षा सूट पहनने को दिया गया, ताकि अंतरिक्ष में हुए किसी भी तरह के संक्रमण से बाक़ी धरती को बचाया जा सके। जब आख़िर में तीनों अंतरिक्ष यात्री दुनिया के सामने आए, तो भी वो उसी सूट में थे और उनके चेहरे छुपे हुए थे।

अंतरिक्ष जाने वाला कैप्सूल : इसके बाद उन्हें हेलीकॉप्टर से अमेरिकी एयरक्राफ्ट कैरियर यूएसएस हॉर्नेट पर ले जाया गया, जहां उन्हें पड़ताल होने तक एक ख़ास कमरे में रहना पड़ा था। इसे मोबाइल क्वारंटाइन फैसिलिटी नाम दिया गया था, ताकि चांद पर जाने की वजह से उन्हें हुए किसी भी संभावित इन्फ़ेक्शन को धरती पर फैलने से रोका जा सके।

अंदर तीनों अंतरिक्ष यात्री लगातार निगरानी में रह रहे थे। चांद से वो जो चट्टानें लाए थे, उन्हें भी इसी तरह अलग रखा गया था। अब वो कैप्सूल, एक म्यूज़ियम में रखा हुआ है। ज़रा सोचिए अंतरिक्ष जाने वाले कैप्सूल में 3 लोग कई दिनों तक एक-दूसरे से टकराते हुए रहे थे।

ऐसे में जब वो इस बंद कमरे में रह रहे होंगे, तो उन्हें ताजमहल जैसा लग रहा होगा। उनके अपने बिस्तर थे। अलग टॉयलेट थे और अच्छा खाना खाने को मिल रहा था। इस दौरान तीनों अंतरिक्ष यात्रियों को अपनी रिपोर्ट तैयार करने का भी मौक़ा मिला। इसके बाद वो सबसे मशहूर लोगों के तौर पर पूरी दुनिया की सैर पर निकल पड़े थे।

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