नेपाल: सपने टूटे पर हौसला बाकी है

Webdunia
गुरुवार, 30 अप्रैल 2015 (18:03 IST)
- दिव्या आर्या (काठमांडू से)
 
मैं न इससे पहले कभी नेपाल आई थी ना कभी इतनी तीव्रता वाले भूकंप के निशान देखे थे। ये असाइनमेंट हर मामले में नया था। इस त्रासदी के निशान ज़ाहिर नहीं थे। सबसे अजीब यही था- भूकंप की निशानियां ढूंढ़ना। काठमांडू शहर में दाखिल हुए तो सब सामान्य सा लगा। जिस इलाके से होकर निकले वहां किसी इमारत को एक खरोंच तक नहीं लगी थी।
सहमा सा देश : असामान्य था तो बस चुप्पी का आलम। दुकानें बंद थीं। ट्रैफिक के लिए बदनाम काठमांडू की सड़कें खाली। भरे थे तो पार्क- जिनमें प्लास्टिक की चादर का टेंट बनाकर सहमे हुए लोग बैठे थे। यही भूकंप के निशान थे। डर- घर वापस न जाने का, दुकान पर काम पर न जाने का, सर पर हेल्मट लगाकर इमारतों में जाने का।
 
हौसला हिलाते झटके : मैंने सोचा ऐसा भी क्या डर। और फिर एक और भूकंप आया, एक जोरदार ऑफ्टर-शॉक। मैं सड़क के बीचोबीच रुक कर खड़ी हो गई। ऐसा लगा मानो झूला झूल रही हूं। दोनों पैर फैलाकर, विश्राम की मुद्रा में संतुलन बनाने की कोशिश की। आसपास बहुत से लोग भाग रहे थे।
 
सामने लगे बिजली के खंबे सड़क की तरफ ऐसे हिल रहे थे मानो धमकी दे रहे हों- क्यों अब डर लगा? और डर वाकई लगा। पर तब नहीं। रात में। जब होटल की दरार भरी दीवारों के नीचे पलंग पर सर रखा तो लगा पलंग झूल रहा है।
 
बहुत देर तक तो आंख नहीं लगी, फिर जब झपकी टूटी तो लगा भूकंप आ रहा है। हर बार बगल की मेज पर रखी पानी की बोतल को देखती कि अंदर पानी हिल रहा है कि स्थिर है। ऐसा न जाने कितनी बार हुआ। वो पहली रात न जाने कितने छोटे-बड़े झटके आए और कितने और मैंने मन ही मन महसूस किए।
 
उड़ गई नींद : आने वाले दिनों में टूटी इमारतें, दरार पड़ी दीवारें और मलबे के ढेर तो कई देखे। काम करते वक्त सड़क पर चलते वक्त भूकंप के झटके भी कई महसूस किए। पर डर, वो रात में ही आता है। जब नींद की बेहोशी से भी खौफ लगता है।
 
भूकंप बहुत अजीब है। उसके निशान एक सार से नहीं होते। कहीं ज्यादा, कहीं कम, कहीं गायब। काठमांडू शहर भी ऐसा ही था। शहर के पुराने हिस्से में ऐतिहासिक इमारतें गिर गई थीं तो नए हिस्से में दरारें तक नहीं थीं।
 
तबाही का मंजर दरअसल राजधानी के बाहर था। उसे ढूंढते-ढूंढते जब एक शहर पहुंची तो चुप हो गई। दर्जनों घर, गली दर गली, सरियों और मलबे की भूलभूलैया बना रहे थे। और उन घरों में रहने वाले लोग हाथ पकड़ कर मुझे वहां ले जाते, वो जहां परदा लटक रहा है, जहां सिलेंडर पड़ा है, जहां टूटी सीढ़ी दिख रही है - वो मेरा घर है। घरों का ये परिचय चलता रहा।
 
हिम्मत बाकी है : उस शहर के बाद एक गांव में भी गई। जहां तक पहुंचने के लिए पहले कच्ची सड़क और फिर संकरे पहाड़ी रास्ते पर चलकर जाना पड़ा। एक तरफ दरारों भरे मकान दिखाई दे रहे थे और दूसरी तरफ खाई। हमें खाई की तरफ चलने की हिदायत दी गई। ऐसे में भूकंप आ जाता तो?
 
खैर आया नहीं। ऊपर पहुंचे और एक बार फिर परिचय शुरू हुआ। बिना लाग-लपेट, बिना आंसुओं से नम हुए, बहुत आराम से। सपनों जैसे घरों के टूटने के बाद भी इतनी शांति, अपने गम को समझने, उससे निपटने और आगे का रास्ता ढूंढने की इतनी हिम्मत। मैं चुप न होती तो और क्या। अब रात में नींद आ रही है। हौसले ने डर को शांत कर दिया है।
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