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लोकसभा चुनाव 2019: नतीजे आने के बाद किंगमेकर बन सकती हैं क्षेत्रीय पार्टियां

हमें फॉलो करें लोकसभा चुनाव 2019: नतीजे आने के बाद किंगमेकर बन सकती हैं क्षेत्रीय पार्टियां
, बुधवार, 3 अप्रैल 2019 (08:13 IST)
कल्याणी शंकर, वरिष्ठ पत्रकार
आगामी लोकसभा चुनाव में यदि कोई एक पार्टी 272 का चमत्कारी आंकड़ा यानी पूर्ण बहुमत दर्ज नहीं कर पाती है तो सरकार बनाने के कवायद में तीन क्षेत्रीय पार्टियां बेहद अहम भूमिका निभाती नजर आ सकती हैं। ये तीनों पार्टियां हैं- ओडिशा में बीजू जनता दल (बीजेडी), आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस)।
 
साल 2014 में एक पार्टी पूर्ण बहुमत में आई थी जिसके बाद केंद्र में क्षेत्रीय दलों का महत्व एक तरह से खत्म हो गया था। लेकिन अब ये चर्चा तूल पकड़ रही है कि हो सकता है कि 2019 में सरकार बनाने के लिए गठबंधन की जरूरत हो और ऐसे में ये क्षेत्रीय पार्टियां महत्वपूर्ण होंगी।
 
इस सूची में बहुजन समाज पार्टी का नाम भी शामिल हो सकता है, क्योंकि पार्टी सुप्रीमो मायावती के बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सका और चुनाव के बाद वो बीजेपी का समर्थन कर सकती हैं।
 
बीजेडी, वाईएसआर कांग्रेस और टीआरएस की बात करें तो फिलहाल ऐसे लग रहा है कि ये तीनों पार्टियां अपने-अपने प्रदेश में बेहतर प्रदर्शन करने वाली हैं।
 
2014 में जब मोदी लहर अपने चरम पर थी उस वक्त भी इस क्षेत्रीय दलों ने अपने-अपने प्रदेशों में अच्छा प्रदर्शन किया था। उम्मीद की जा रही है कि इस बार भी बीजेडी बढ़िया प्रदर्शन बरकरार रखेगी और वाईआरएस कांग्रेस भी कम-से-कम 12 सीटें ले कर आ सकती हैं।
 
बीते साल दिसंबर में तेलंगाना में विधानसभा चुनाव हुए थे जिनमें टीआरएस को भारी बहुमत से जीत मिली थी (यहां कुल 119 सीटों में से टीआरएस को 88 सीटों पर जीत मिली थी)। लोकसभा चुनावों में पार्टी को 11 सीटें मिली थीं। इन तीन पार्टियों के ही आंकड़ों को मिला दिया जाए तो माना जा सकता है कि लोकसभा में 63 सांसद इन पार्टियों के हो सकते हैं।
 
अब इस आंकड़े में यदि बसपा को मिला कर देखा जाए और उत्तर प्रदेश से भी 80 सीटें हैं जिनमें से कई पर भाजपा पिछड़ सकती है। लेकिन ऐसी स्थिति में भी लगता है कि बीजेपी के सरकार बनाने की संभावना अधिक है क्योंकि ये चारों क्षेत्रीय पार्टियां महागठबंधन का हिस्सा नहीं बनेंगी और कांग्रेस को समर्थन भी नहीं देंगी।
 
और मजबूत हुई क्षेत्रीय पार्टियां
दिलचस्प बात ये है कि बीते दो दशकों से जहां राज्यों में राष्ट्रीय पार्टियों का वोट शेयर लगातार घट रहा है वहीं क्षेत्रीय पार्टियों का वोट शेयर बढ़ रहा है।
 
1952 को हुए पहले लोकसभा चुनावों में हिस्सा लेने वाली 55 पार्टियों में से 18 क्षेत्रीय पार्टियां थीं। साल 2004 में 36 क्षेत्रीय पार्टियां चुनावी अखाड़े में उतारी थीं और 2014 में 31 क्षेत्रीय पार्टियों ने चुनाव लड़ा था।
 
2019 में क्षेत्रीय पार्टियां करीब 150 से 180 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतर सकती हैं और इन चुनाव क्षेत्रों राष्ट्रीय पार्टियां अधिक महत्वपूर्ण नहीं मानी जातीं। इन चुनाव क्षेत्रों में 'क्षेत्रीय सम्मान' सबसे अधिक संवेदनशील मुद्दा होती है।
 
अविभाजित आंध्रप्रदेश में 1982 में एनटी रामाराव ने तेलुगु लोगों को 'आत्म गौरवम्' का नारा दिया था और इसी के बल पर उन्होंने बड़ी जीत दर्ज की थी। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने गृहराज्य में 'गुजराती अस्मिता' के बारे में बात करते रहे हैं।
 
साल 2015 में बिहार में जो 'महागठबंधन' बना था वो बिहारी सम्मान को लेकर ही थी। और ओडिशा में नवीन पटनायक के लिए वोट लेकर ने वाली भावना 'बीजू की जननायक की छवि' के कारण है।
 
अगर हम 2014 की बात करें तो कर्नाटक के अलावा भाजपा ना तो किसी दक्षिण भारतीय राज्य में अपने पैर पसार पाई ना ही ओडिशा और पश्चिम बंगाल में।
 
कांग्रेस और बीजेपी के वोट स्विंग के बावजूद क्षेत्रीय पार्टियों का शेयर लगभग उतना ही रहा जितना पहले था, यानी 212 सीटों पर 2009 में जहां क्षेत्रीय पार्टियों का वोट शेयर 46.7 फीसदी था वहीं 2014 में ये 46.6 फीसदी था।
 
कांग्रेस के कमजोर होने के बाद चुनावों में उतरने वाली क्षेत्रीय पर्टियों ने काफी बेहतर प्रदर्शन किया, खास कर हिंदी भाषी इलाकों से बाहर की संसदीय सीटों पर।
 
चुनाव आयोग के आंकड़ों को ही देखें तो एआईएडएमके, बीजेडी, तृणमूल कांग्रेस और आंध्रप्रदेश की तीन क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने-अपने इलाके में अपने पैर मजबूती से जमाए रखे। यहां तक कि डीएमके और समाजवादी पार्टी ने भी अपना वोट शेयर बरकरार रखा। और तो और बसपा ने कोई सीट तो नहीं जीती लेकिन अपना 19 फीसदी वोटशेयर उसने भी बनाए रखा है।
 
रणभूमि - आंध्रप्रदेश
एक तरह से देखा जाए को बीजेपी के लिए कांग्रेस से मुकाबला करना जितना आसान होगा इन क्षेत्रीय पार्टियों से मुक़ाबला करना उतना मुश्किल होगा। क्षेत्रीय स्तर पर हर राज्य की समस्याएं अलग हैं और उन्हें अलग चश्मे से देख जाना जरूरी होता है। 2014 के बाद से देखा जाए तो बीजेपी को क्षेत्रीय पर्टियों के हाथों शिकस्त ही मिली है।
 
आंध्रप्रदेश में 2014 में वाईएसआर छोटे से फर्क के कारण सरकार बनाने से चूक गई क्योंकि सत्ताधारी टीडीपी और वाईएसआर के बीच वोटशेयर का फर्क 2 फीसदी से भी कम था। यहां इस बार एक साथ विधानसभा और लोकसभा चुनाव होने वाले हैं।
 
यहां टीडीपी और वाईएसआर के बीच कड़ी टक्कर की उम्मीद जताई जा रही है और टीडीपी के समने एंटी इन्कंबेंसी की डर भी है। प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस, कांग्रेस के पारंपरिक वोटबैंक- यानी रेड्डी समुदाय का प्रतिनिधित्व करती है। रायलसीमा पार्टी के प्रमुख जगनमोहन रेड्डी का गढ़ माना जाता है जबकि समुद्रतटीय इलाकों को टीडीपी का गढ़ माना जाता है।
 
रणभूमि - तेलंगाना
तेलंगाना पार्टी के प्रमुख और प्रदेश के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव 'अतुलनीय तेलंगाना' के विचार का प्रतिनिधित्व करते हैं। वो खुद को तेलंगाना का बेटा कहते हैं और 2014 और 2018 विधानसभा चुनावों में वो 'तेलंगाना का गर्व' की भावना को मुद्दा बन कर मैदान में उतरे थे और उन्हें बहुमत भी मिला था।
 
बीते पांच साल में तेलंगाना में विपक्ष की मौजूदगी लगभग न के बराबर दिखती है और एक बार फिर चंद्रशेखर राव बहुमत से आगे आते देख सकते हैं।
 
आंध्र प्रदेश के विभाजन के लिए चंद्रशेखर राव यूपीए चीफ सोनिया गांधी का धन्यवाद तो करते हैं लेकिन इसकी पूरी संभावना है कि वो केंद्र में कांग्रेस की बजाय भाजपा से नेतृत्व वाली सरकार का हाथ थाम लें। राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति में उतरने की उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। कांग्रेस खुद टीआरएस को बीजेपी की बी टीम कहती आई है।
 
रणभूमि - ओडिशा
उत्तर भारत के अधिकतर रज्यों में जीत परचम फहराने के बाद बीजेपी ओडिशा में पैर जमाने की कोशिश कर रही है। इधर 19 साल तक लगातार मुख्यमंत्री रह चुके बीजेडी नेता नवीन पटनायक भी पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनने की रेस में हैं। यहां एक साथ विधानसभा और लोकसभा चुनाव होने वाले हैं और फिलहाल बीजेपी के लिए बेहद महत्वपूर्ण रणभूमि बनती जा रही है।
 
2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेडी ने 21 में से 20 सीटों पर जीत दर्ज की थी और 44.8 फीसद वोट शेयर बनाए रखा। उस वक्त देश में मोदी लहर के बावजूद बीजेपी यहां केवल एक सीट पर जीत पाई थी और इसका वोट शेयर 21.9 फीसद था। जो बात नवीन पटनायक के पक्ष में जाती है वो ये है कि प्रदेश में पहले ही एक मजबूत विपक्ष नहीं है।
 
ओडिशा में इस बार त्रिकोणीय चुनाव होने वाले हैं जिनमें बीजेडी, बीजेपी और कांग्रेस अहम खिलाड़ी होंगे। इसके कोई संकेत नहीं मिलते कि लंबे वक्त से सत्ता में रह चुके नवीन पटनायक को एंटी-इन्कंबेंसी का कोई डर सता रहा है, वो अभी भी काफी पॉपुलर हैं।
 
2009 तक एनडीए की सहयोगी रह चुकी बीजेडी फिलहाल बीजेडी और कांग्रेस के बराबर दूरी बनाए हुए है, लेकिन संसद में कई मुद्दों पर वो पहले भी बीजेपी का समर्थन कर चुकी है। इसलिए इस अटकलों को खारिज नहीं किया जा सकता कि अगर नतीजे आने के बाद बीजेपी को जरूरत पड़ेगी तो बीजेडी उनके साथ खड़ी दिखाई सकती है।
 
संक्षेप में कहें तो, त्रिशंकु संसद बनने के संकेत मिलने पर इन क्षेत्रीय पार्टियों की मांग बढ़ सकती है और वो भी अपना महत्व समझते हैं। और ये समझने वाली बीजेपी भी इसके लिए तैयार है।

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