हिजाब विवाद, सुप्रीम कोर्ट में जज ने पूछा- फिर तो कपड़े उतारना भी मौलिक अधिकार?

Webdunia
गुरुवार, 8 सितम्बर 2022 (14:08 IST)
'अगर संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत कपड़े पहनना पूर्ण मौलिक अधिकार है तो फिर कपड़े न पहनना भी इस अनुच्छेद के तहत अधिकार बन जाता है।
 
कर्नाटक के स्कूल-कॉलेजों में हिजाब पहनने पर प्रतिबंध बरकरार रखने वाले हाई कोर्ट के आदेश के ख़िलाफ़ अर्ज़ियों पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसी तरह के कई कड़े सवाल और टिप्पणियां कीं। इस मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को ये भी कहा कि कर्नाटक हिजाब बैन मामले में सवाल सिर्फ स्कूलों में हिजाब पर प्रतिबंध का है क्योंकि इसके अलावा कहीं भी हिजाब पहनने की मनाही नहीं है।
 
इस साल जनवरी महीने में जब भारत के कई राज्यों में कड़ाके की ठंड थी, उस समय कर्नाटक में छिड़ा हिजाब विवाद पूरे देश में ताप बढ़ाने का काम कर रहा था। तबसे ये विवाद जारी है। मार्च महीने में सरकारी शैक्षिक संस्थानों में हिजाब बैन को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज करते हुए कर्नाटक हाई कोर्ट ने कहा था कि हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है। इसी फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है।
 
शीर्ष न्यायालय में जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धूलिया की खंडपीठ ने इस मामले में सुनवाई की। पीटीआई के अनुसार एक याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील देवदत्त कामत ने न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की पीठ से अनुरोध किया कि इस मामले को 5 सदस्यीय संविधान पीठ के पास भेजा जाए।
 
उन्होंने दलील दी कि अगर कोई लड़की संविधान के अनुच्छेद 19, 21 या 25 के तहत अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए हिजाब पहनने का फैसला करती है, तो क्या सरकार उस पर ऐसा प्रतिबंध लगा सकती है जो उसके अधिकारों का उल्लंघन करे।
 
न्यायमूर्ति गुप्ता ने इस पर कहा कि हम इस बहस को अतार्किक अंत तक नहीं ले जा सकते...अगर आप कहते हैं कि कपड़े पहनने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है तो कपड़े न पहनने का अधिकार भी मौलिक अधिकार बन जाता है। इस पर अधिवक्ता कामत ने कहा कि स्कूल में कोई भी कपड़े नहीं उतार रहा है।
 
कामत की ओर से क्रॉस, रुद्राक्ष और जनेऊ धारण करने के उदाहरणों के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये सब कपड़े के ऊपर नहीं पहने जाते, किसी को दिखाई नहीं देते। कोर्ट ने तर्क दिया कि कोई भी छात्रों की यूनिफ़ॉर्म उतरवाकर ये जांच करने नहीं जा रहा कि उन्होंने कौनसा धार्मिक प्रतीक चिह्न पहना है।
 
पीठ ने मौखिक टिप्पणी करते हुए कहा कि सवाल यह है कि कोई भी आपको हिजाब पहनने से नहीं रोक रहा है। आप इसे जहां चाहें पहन सकते हैं। प्रतिबंध सिर्फ़ स्कूल में है। हमारी चिंता केवल इसको लेकर है।
 
बहस के दौरान, कामत ने दक्षिण भारत की एक हिंदू लड़की के मामले में दक्षिण अफ्रीका की संवैधानिक अदालत के एक फैसले का भी उल्लेख किया, जो स्कूल में नोज़ पिन पहनना चाहती थी।
 
वेबसाइट लाइव लॉ के अनुसार लड़की दक्षिण अफ़्रीका के स्कूल कोड के तहत नोज़ पिन को कुछ समय के लिए उतारने के लिए तैयार हो गई थी। उस समय दक्षिण अफ़्रीका की अदालत ने माना था कि लड़की को थोड़े समय के लिए भी नोज़ पिन निकालने के लिए कहने से ये संदेश जाएगा कि उसका और उसके धर्म का स्वागत नहीं किया जा रहा।
 
इस पर जस्टिस गुप्ता ने कहा कि नोज़ पिन पहनना धार्मिक प्रतीक नहीं है। जस्टिस गुप्ता ने तर्क दिया कि पूरी दुनिया में महिलाएं झुमके पहनती हैं, लेकिन यह कोई धार्मिक प्रथा नहीं है। हालांकि, कामत ने ज़ोर देकर कहा कि कुछ अनुष्ठानों के दौरान 'बिंदी' और 'नोज़ पिन' पहनने का धार्मिक महत्व है।
जस्टिस गुप्ता ने तब बताया कि ये फ़ैसला दक्षिण अफ़्रीका के संदर्भ में है, जिसकी आबादी भारत की तरह विविध नहीं है। उन्होंने कहा कि बाकी सभी देशों में अपने नाग़रिकों के लिए एक समान कानून है...दक्षिण अफ़्रीका के बारे में भूल जाएं, भारत आएं।"
 
लाइव लॉ के अनुसार जस्टिस हेमंत गुप्ता ने इस मामले पर पिछली सुनवाई में मौखिक रूप से टिप्पणी की थी कि एक 'पगड़ी' एक 'हिजाब' के बराबर नहीं है और दोनों की तुलना नहीं की जा सकती।
 
जब कामत ने अमेरिका के फैसलों का हवाला दिया, तो पीठ ने कहा कि हम अपने देश के साथ अमेरिका और कनाडा की तुलना कैसे कर सकते हैं। पीठ ने कहा कि हम बहुत रूढ़िवादी हैं…. ये फैसले उनके समाज के संदर्भ में दिए गए हैं।
 
कर्नाटक हाई कोर्ट के 15 मार्च के उस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गई हैं, जिसमें कहा गया है कि हिजाब पहनना इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है।
 

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