आपकी उम्र का खाने पर क्या होता है असर

Webdunia
मंगलवार, 17 जुलाई 2018 (14:11 IST)
एलेक्स जॉन्स्टन (बीबीसी फ़्यूचर)
 
आप जीने के लिए खाते हैं या खाने के लिए जीते हैं? ये सवाल इसलिए क्योंकि बहुत से लोग शान से कहते हैं कि वो तो बस खाने के लिए ज़िंदा हैं। खाने से हमारा रिश्ता बड़ा पेचीदा है। इस रिश्ते पर खाने की चीज़ों की क़ीमत, उनकी उपलब्धता और आस-पास के लोगों के खाने के स्वभाव का असर पड़ता है।
 
 
हर इंसान बाक़ी लोगों से एक चीज़ साझा करता है और वो है कुछ खाने की हमारी ख़्वाहिश। भूख के ज़रिए हमारा शरीर हमें बताता है कि कब उसे ईंधन यानी खाने की ज़रूरत है। लेकिन, हमारी खाने की ख़्वाहिश सिर्फ़ भूख से नहीं जुड़ी होती। इसका वास्ता कई बातों से है। क्योंकि कई बार हम भूख न होने पर भी खाते हैं। और, कई बार भूख लगी होने पर भी खाना नहीं खाते।
 
 
हालिया रिसर्च ने बताया है कि खाने से जुड़े कई संकेत हमारी खाने की इच्छा पर असर डालते हैं। जैसे ख़ुशबू, खाना बनने की आवाज़ और विज्ञापन। कुल मिलाकर, हमारे इर्द-गिर्द ऐसा इंद्रजाल बन जाता है, जिसमें फंसकर हम ज़्यादा खा लेते हैं। हमारी खाने की इच्छा भी हमेशा एक जैसी नहीं होती। ज़िंदगी के अलग-अलग दौर में ये अलग-अलग होती है। उम्र के साथ खाने की ख़्वाहिश में बदलाव आता है।
 
 
खाने की बात करें तो किसी आम इंसान की ज़िंदगी में इस उतार-चढ़ाव के सात चरण आते हैं। इनके बारे में अपनी समझ बढ़ाकर हम कम खाने या ज़्यादा खाने की चुनौती से निपट सकते हैं। खाने की आदतों के हमारी सेहत पर पड़ने वाले मोटापे जैसे असर पर नियंत्रण कर सकते हैं।
 
 
उम्र का पहला दौर (0-10 साल)
इस दौर में बच्चे बहुत तेज़ी से बढ़ रहे होते हैं। इस वक़्त जो खान-पान वो करते हैं, वो उनके बड़े होने तक असर डालता है। कोई बचपन में मोटा होता है तो वो बड़ा होकर भी मोटा रह सकता है। बच्चे अक्सर कुछ चीज़ों को खाने से डरते हैं। आनाकानी करते हैं। लेकिन बच्चों को बार-बार ऐसी चीज़ें चखाकर, उनकी ख़ूबियों के बारे में बताकर हम बच्चों को सेहतमंद चीज़ें, जैसे सब्ज़ियां खाने की आदत डाल सकते हैं।
 
 
बच्चों को हमें खाते वक़्त ख़ुद पर क़ाबू रखना भी सिखाना चाहिए। ख़ास तौर से उन्हें ये बताना चाहिए कि वो कितना खाएं। इतना ठूंस कर न खा लें कि मोटापे की तरफ़ बढ़ चलें। कई बार मां-बाप बच्चों को प्लेट 'साफ़' करने यानी प्लेट में मौजूद पूरा खाना ख़त्म करने पर मजबूर करते हैं। इससे होता ये है कि बच्चे बेमन से पूरा खाना ठूंस लेते हैं। बाद के दिनों में ये उनमें ज़्यादा खाने की आदत डाल सकता है।
 
 
इन दिनों कई देशों में बच्चों को जंक फूड के विज्ञापनों से बचाने की मुहिम चल रही है। ये विज्ञापन सिर्फ़ टीवी या रेडियो पर नहीं आते, बल्कि ऐप, होर्डिंग, सोशल मीडिया और वीडियो ब्लॉगिंग से भी बच्चों को उकसाते हैं। खान-पान के विज्ञापन से खाने की डिमांड बढ़ जाती है। बच्चों में बढ़ते मोटापे के लिए ये एक बड़ी वजह मानी जा रही है। 
उम्र का दूसरा पड़ाव (10-20 साल)
किशोरावस्था में शरीर तेज़ी से बढ़ता है। हारमोन्स का रिसाव मूड और बर्ताव को कंट्रोल करता है। इस दौरान कोई इंसान खाने को लेकर कैसा बर्ताव करता है, वो बाद की ज़िंदगी के लिए बेहद अहम होता है। किशोर अवस्था में खान-पान को लेकर किए जाने वाले फ़ैसले, आने वाली पीढ़ी तक पर असर डालते हैं। यानी जो शख़्स उम्र के इस दौर में जैसा खान-पान करता है, उसका असर सिर्फ़ उसी इंसान पर नहीं, बल्कि उसकी आने वाली पीढ़ी तक पर पड़ता है।
 
 
बदक़िस्मती से इस दौर में सलाह-मशविरे की कमी की वजह से किशोरवय लोग ऐसे खाने-पीने की आदतें डाल लेते हैं, जो उनकी सेहत के लिए बुरा होता है। फिर लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों पर इन बुरी आदतों का ज़्यादा असर पड़ता है, क्योंकि इस उम्र में उनके शरीर में प्रजनन की प्रक्रिया यानी मासिक धर्म की शुरुआत भी हो जाती है। कम उम्र में गर्भवती होने वाली लड़कियों के लिए ये चुनौती और भी बढ़ जाती है। क्योंकि उनका शरीर अपने विकास के लिए पेट में पल रहे बच्चे के साथ मुक़ाबिल होता है।
 
 
तीसरा दशक (20-30 साल)
युवावस्था में ज़िंदगी में कई बदलाव आते हैं। लोग कॉलेज जाना शुरू करते हैं। शादी करते हैं या किसी के साथ रहना शुरू करते हैं। इस दौर में कई लोग मां-बाप भी बनते हैं। इन सभी वजहों से वज़न बढ़ने का अंदेशा होता है।
 
 
शरीर में जब एक बार फैट जमा हो जाता है, तो उससे पीछा छुड़ाना बहुत मुश्किल होता है। जब हम अपने शरीर की ज़रूरतों से कम खाते हैं, तो हमारा शरीर बहुत तेज़ इशारे देता है। लेकिन, जब हम शरीर की ज़रूरत से ज़्यादा खाते हैं, तो इसे रोकने वाले सिग्नल बहुत कमज़ोर होते हैं। बहुत से शारीरिक और मानसिक कारण होते हैं, जिनकी वजह से हम कम खाने की आदत को लंबे वक़्त तक बरक़रार नहीं रख पाते हैं।
 
 
हाल के दिनों में एक नए तरह की रिसर्च शुरू हुई है। इसके तहत लोगों को कम खाकर तसल्ली होने का एहसास कराने के तरीक़े विकसित किए जा रहे हैं। जो लोग वज़न घटाने की कोशिश कर रहे होते हैं, उनके लिए ये रिसर्च कारगर हो सकती है क्योंकि भूख महसूस करने की वजह से ही हम कई बार शरीर की ज़रूरत से ज़्यादा खा लेते हैं।
 
 
अलग-अलग तरह की खाने की चीज़ें हमारे दिमाग़ को अलग-अलग संकेत देती हैं। यही वजह है कि ढेर सारी आइसक्रीम खाते जाने के बावजूद दिमाग़ हमें रोकने के इशारे नहीं देता। क्योंकि फैट हमारे दिमाग़ को वो संकेत नहीं देता कि हम खाना रोकें। यही वजह है कि समोसे, चाट-पकौड़ी या कचौरियां खाते वक़्त अंदाज़ा ही नहीं होता कि कितना खाए जा रहे हैं हम!
 
वहीं प्रोटीन से भरपूर डाइट हो या ज़्यादा पानी वाले फल, इन्हें खाने से हमें जल्दी पेट भरने का अहसास होता है, और लंबे वक़्त तक ऐसा महसूस होता रहता है। खान-पान के कारोबार की समझ बेहतर करके हम भविष्य में ऐसा खाना या नाश्ता तैयार कर सकते हैं, जो सेहत के लिए ज़्यादा अच्छा हो।
 
 
उम्र का चौथा दशक (30-40 साल)
कामकाजी उम्र में पेट के शोर के अलावा भी कई और चुनौतियां हमारे सामने आती हैं। तनाव बढ़ जाता है। और तनाव की वजह से 80 फ़ीसद आबादी के खान-पान की आदतों पर असर पड़ता है। कुछ लोग तनाव में ज़्यादा खाने लगते हैं, तो, कुछ खाना ही छोड़ देते हैं।
 
 
तनाव से निपटने के ये तरीक़े कई बार समझ से परे होते हैं। किसी को खान-पान की लत पड़ जाती है। वो ज़्यादा कैलोरी वाली चीज़ें खाने लगते हैं। लेकिन, इसकी ठोस वजह समझ में नहीं आ सकी है। काम के प्रति ईमानदारी और हर काम को सलीक़े से करने की आदत का भी हमारे खान-पान और तनाव से गहरा नाता है।
 
 
काम का माहौल ऐसा बनाना जिसमें तनाव कम हो, लोग ज़्यादा कैलोरी वाली चीज़ें न खाएं, बहुत मुश्किल है। कंपनियों को चाहिए कि वो कर्मचारियों के लिए ऐसा सस्ता खाना मुहैया कराएं, जो सेहत के लिए अच्छा हो। इससे कामगार सेहतमंद होंगे। और सेहतमंद कर्मचारी बेहतर काम करेंगे, इसमें कोई दो राय नहीं।
 
 
उम्र का पांचवां दशक (40-50 साल)
डाइट शब्द ग्रीक ज़बान के डायेटिया से आया है। इसका मतलब है, 'ज़िंदगी जीने का तरीक़ा, या जीवन-शैली'। लेकिन हम सब आदतों के गुलाम होते हैं। हम अक्सर अपनी आदतों में वो बदलाव नहीं ला पाते हैं, जिनके बारे में हमें पता होता है कि ये हमारे ही फ़ायदे की चीज़ होगी।
 
 
लोग वज़न तो घटाना चाहते हैं, मगर समोसे-कचौरी और ऐसी ही तली-भुनी, ज़्यादा कैलोरी वाली चीज़ें खाते हुए। अब भला ये कैसे मुमकिन है? बिना खान-पान की आदतों में बदलाव लाए हम सेहतमंद शरीर और स्वस्थ ज़हन कैसे पा सकते हैं?
 
 
इस बात के तमाम सबूत हैं जो बताते हैं कि खान-पान का अच्छी या ख़राब सेहत से गहरा ताल्लुक़ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि धूम्रपान, सेहत के लिए बुरी चीज़ें खाने, वर्ज़िश न करने और शराब पीने की आदतें, हमारी जीवन शैली के सेहत पर बुरे असर की बड़ी वजहें हैं। इससे लोगों के मरने की दर भी बढ़ जाती है।
 
 
40-50 साल की उम्र के दौर में लोगों को अपनी सेहत के हिसाब से ही खाना चाहिए। लेकिन, बहुत से लोग सेहत के ख़राब होने के संकेत, जैसे ब्लड प्रेशर या कोलेस्ट्रॉल बढ़ने की अनदेखी कर देते हैं और सही समय पर उचित क़दम नहीं उठाते। इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है।
 
 
साठ का दशक (50-60 साल)
50 साल की उम्र पार करने के बाद किसी भी इंसान के शरीर की मांसपेशियां घटने लगती हैं। इसमें सालाना आधा से एक फ़ीसद की दर से गिरावट आने लगती है। शरीर की सक्रियता और चपलता कम हो जाती है। प्रोटीन कम खाने और महिलाओं में मीनोपॉज़ होने से पेशियां तेज़ी से कम होने लगती है।
 
 
इस दौर में सेहतमंद और तमाम तरह के डाइट आज़माने से उम्र ढलने का असर कम होता है। उम्रदराज़ होती आबादी को इस दौर में ज़्यादा प्रोटीन वाली डाइट की ज़रूरत होती है, जो अक्सर पूरी नहीं होती। अभी बाज़ार में जो प्रोटीन वाली खाने-पीने की चीज़ें मिल रही हैं, वो हमारी ज़रूरतों को नहीं पूरा कर सकतीं।
 
 
सातवां दशक (60-70 साल और उसके आगे)
आज लोगों की औसत उम्र बढ़ गई है। ऐसे में हमें रहन-सहन को सेहतमंद बनाने की चुनौती से ज़्यादा जूझना पड़ रहा है। अगर हम स्वस्थ जीवन-शैली नहीं अपनाते हैं, तो हमारा समाज बुज़ुर्ग, कमज़ोर और विकलांग लोगों से भर जाएगा।
 
 
बुढ़ापे में पोषण की अहमियत बढ़ जाती है। वजह साफ़ है। इस उम्र में भूख कम लगती है। लोग कम खाते हैं। खाने में दिलचस्पी नहीं लेते। इससे शरीर का वज़न घट जाता है। कमज़ोरी आ जाती है। इससे भूलने वाली बीमारी यानी अल्ज़ाइमर होने का ख़तरा बढ़ जाता है।
 
 
खाना एक सामाजिक अनुभव है। बुढ़ापे में जीवनसाथी के चले जाने या परिवार से बिछुड़ने के बाद अकेले खाना लोगों से खाने से हासिल होने वाली तसल्ली और ख़ुशी छीन लेता है। फिर चबाने और निगलने में भी बुढ़ापे में दिक़्क़त होती है। इससे खाने का स्वाद और ख़ुशबू नहीं महसूस होती। नतीजा ये कि खाने की ख़्वाहिश और भी कम हो जाती है क्योंकि लोग उससे मिलने वाली ख़ुशी से महरूम हो जाते हैं।
 
 
हमें याद रखना चाहिए कि ज़िंदगी के हर दौर में खाना केवल हमारे शरीर का ईंधन भर नहीं है। ये ऐसा सामाजिक-सांस्कृतिक तजुर्बा है, जिसका लुत्फ़ उठाया जाता है। हम सब खाने के एक्सपर्ट हैं, क्योंकि हम रोज़ खाते हैं। इसलिए हमें हर बार खाने को लुत्फ़ लेने के मौक़े के तौर पर देखना चाहिए। और ये समझना चाहिए कि अच्छा और स्वादिष्ट खाना हमारी सेहत के लिए कितनी नेमतें ले आता है।
 
 
(नोटः ये एलेक्स जॉन्स्टन की मूल स्टोरी का अक्षरश: अनुवाद नहीं है। हिंदी के पाठकों के लिए इसमें कुछ संदर्भ और प्रसंग जोड़े गए हैं)
 

सम्बंधित जानकारी

Show comments

कौन थे रजाकार, कैसे सरदार पटेल ने भैरनपल्ली नरसंहार के बाद Operation polo से किया हैदराबाद को भारत में शामिल?

कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ में बंजारुमाले गांव में हुआ 100 प्रतिशत मतदान

धीरेंद्र शास्‍त्री के भाई ने फिर किया हंगामा, टोल कर्मचारियों को पीटा

प्रवेश द्वार पर बम है, जयपुर हवाई अड्‍डे को उड़ाने की धमकी

दिल्ली में देशी Spider Man और उसकी Girlfriend का पुलिस ने काटा चालान, बाइक पर झाड़ रहा था होशियारी

AI स्मार्टफोन हुआ लॉन्च, इलेक्ट्रिक कार को कर सकेंगे कंट्रोल, जानिए क्या हैं फीचर्स

Infinix Note 40 Pro 5G : मैग्नेटिक चार्जिंग सपोर्ट वाला इंफीनिक्स का पहला Android फोन, जानिए कितनी है कीमत

27999 की कीमत में कितना फायदेमंद Motorola Edge 20 Pro 5G

Realme 12X 5G : अब तक का सबसे सस्ता 5G स्मार्टफोन भारत में हुआ लॉन्च

क्या iPhone SE4 होगा अब तक सबसे सस्ता आईफोन, फीचर्स को लेकर बड़े खुलासे

अगला लेख