अमित अग्रवाल कहते हैं, 'दो साल पहले मैंने बच्चे को स्मार्टफोन दिलाया था और उसके बाद से ही वह हम लोगों से कटता चला गया. न टाइम से खाता है, न किसी से मिलना चाहता है, लेकिन मोबाइल हमेशा साथ होता है, बाथरूम में भी। मना करने पर चिड़चिड़ा हो जाता है।'
सागर अकेले नहीं है, उनके जैसे कई लोग अनजाने में वर्चुअल दुनिया में जीने के आदी हो जाते हैं। हाल ही में शुरू हुई दिल्ली की एक ग़ैरसरकारी संस्था ‘सेंटर फॉर चिल्ड्रेन इन इंटरनेट एंड टेक्नॉलॉजी डिस्ट्रेस’ संस्था बच्चों की काउंसलिंग करती है।
संस्था वर्कशॉप, काउंसलिंग सेशन इत्यादी आयोजित करवाती है जिसमें बच्चे अपनी बात कह सकते हैं। बच्चों को साथ बैठाकर शतरंज, कैरम जैसे इंडोर गेम्स खिलाए जाते हैं। उन्हें थोड़ा समय इंटरनेट से दूर रखने की कोशिश की जाती है।
कितना इंटरनेट सही? : संस्था की काउंसलर वैलेंटीना त्रिवेदी कहती हैं कि इंटरनेट सीमित तौर पर केवल जरूरत के समय इस्तेमाल किया जाए तो इससे नुकसान नहीं होता।
वह कहती हैं, 'दो साल की उम्र से ही बच्चे जब प्री-स्कूल और होम ट्यूशन में आते हैं, तभी से उनके जीवन में स्ट्रेस बनना शुरू हो जाता है। जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं उनसे ऊल-जुलूल उम्मीदें रखी जाती हैं, परीक्षाओं में अच्छे अंक लाने का दबाव होता है. ऐसे में इंटरनेट उन्हें एक स्ट्रेस फ्री माहौल देता है और वे उसमें समाते चले जाते हैं।'
मोबाइल और इंटरनेट हमारे बीच आज जरूरी हो चले हैं. बच्चों के स्कूल के होमवर्क से लेकर प्रोजेक्ट तक अब ऑनलाइन ही जमा किए जाते हैं। ऐसे में इससे पूरी तरह से अलग रह पाना संभव नहीं है।
' सेंटर फॉर चिल्ड्रेन इन इंटरनेट एंड टेक्नॉलॉजी डिस्ट्रेस' के प्रमुख राहुल वर्मा कहते हैं, 'बच्चों को कोई बात जब पैरेंट्स समझाते हैं तो वे नहीं सुनना चाहते हैं। लेकिन बाहर वाला समझाए तो वे सुनते हैं। इसलिए हम यहां बच्चों को बुलाकर उन्हें पारंपरिक तौर पर साथ में खेलने और पसंद की चीजें करने की आज़ादी देते हैं. ताकि वे इंटरनेट से दूर रहें।'
दुनिया भर के देशों में ‘इंटरनेट की लत’ से लोगों को निकालने के लिए स्पेशलिस्ट सेंटर्स होते हैं, लेकिन भारत में ऐसे सेंटर्स अब खुलने शुरू हुए हैं।