व्यवस्थापना : पांच साल पहले गांव के ही लोगों ने गोंडवाना समाज के नेता हीरासिंह मरकाम के सुझाव पर आपस में तय किया और अपनी तरह के इस अनूठे स्कूल की शुरुआत हो गई।
एक आदिवासी परिवार ने अपना बड़ा-सा घर इस स्कूल के लिए दिया तो एक ने खेती के लिए अपनी चार एकड़ जमीन। आदिवासी समाज के ही कुछ पढ़े-लिखे लोग सेवाभाव से पढ़ाने के लिए भी तैयार हो गए। गोंडवाना समाज के आदिवासियों ने अपने बीच से ही स्कूल के लिए एक व्यवस्थापक भी चुना।
स्कूल के व्यवस्थापक द्विजेंद्र मार्को कहते हैं, 'हमारा लक्ष्य स्कूल छोड़ चुके बच्चों को फिर से शिक्षा के रास्ते में लाना और उन्हें दूसरे बुनियादी प्रशिक्षण देकर आत्मनिर्भर करना है।'
आदिवासी स्कूल, छात्राएं : छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के अलग-अलग जिलों के इन आदिवासी लड़के-लड़कियों का सारा खर्च आस-पास के आदिवासी ही उठाते हैं। हरेक परिवार अपने घर से तीन किलो चावल और दस रुपए की मदद हर महीने करता है।
स्कूल के आदिवासी लड़के-लड़कियों में से कोई आठवीं में पढ़ रहा है तो किसी ने अभी-अभी कॉलेज में दाखिला लिया है। सबकी अपनी-अपनी कहानियां हैं, लेकिन एक साथ रहते हुए सबके सपने एक जैसे हैं- आत्मनिर्भर बनना।
पिछले तीन साल से इस स्कूल में रहने वाली सूरजपुर जिले की सुमित्रा आयाम कहती हैं, 'मैं पढ़लिख कर घरवालों की मदद करना चाहती हूं।'
आत्मनिर्भर बनने की कोशिश में जुटे इन आदिवासी बच्चों के सपने बहुत बड़े नहीं हैं, लेकिन हौसले बड़े हैं। इन्हें पढ़ते, खेती करते देखकर इनके हौसले को कोई भी सलाम करना चाहेगा।