प्रीत और उनके पति ने अपने परिवारों से बग़ावत कर अंतर-जातीय विवाह किया। प्रीत के मुताबिक दो कामकाजी लोग, जो अपनी नौकरियां नहीं छोड़ना चाहते थे, उनको अपने बच्चे की अच्छी परवरिश के लिए परिवार की मदद भी चाहिए थी और साथ भी। पर ये दोनों ही उनके पास नहीं था।
प्रीत कहती हैं, “बस हमने तय कर लिया कि बच्चे को अकेलेपन से भरा बचपन नहीं देंगे और ऐसा भी नहीं था कि हम माँ-बाप के अहसास से बिलकुल अछूते रह गए। हमारे कई कामकाजी दोस्तों के बच्चे हमारे साथ लंबे समय के लिए रहे हैं। वे हमारा ख़ून ना सही पर सब हमारे बच्चे हैं।”
मातृत्व का अनुभव : दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर जानकी ने 39 साल की उम्र में शादी की और 47 साल की उम्र में अब दो साल की निष्ठा को गोद लिया है।
लेकिन ये किसी मजबूरी के तहत किए गए फैसले नहीं थे। शादी अपनी पसंद का पार्टनर ढूंढने के बाद की और अपना बच्चा न पैदा करने के बारे में भी खुद तय किया।
जानकी कहती हैं, “मैं कभी भी ये नहीं चाहती थी कि बच्चा पैदा करने के सही समय का दबाव मुझ पर बना रहे। जैसे किसी ने मेरी कनपटी पर बंदूक रखी हो। मैं बच्चा उसी वक्त चाहती थी जब मैं अपने करियर में और वित्तीय तौर पर ये ज़िम्मेदारी लेने की स्थिति में हूं।”
जानकी को हमेशा किसी अनाथालय से ऐसे बच्चों को घर में लाने का विचार पसंद आया जिनके पास उन्हें जन्म देने वाले माँ-बाप का प्यार नहीं है।
जानकी कहती हैं, “मैं जब अकेली भी रहती थी तभी से बच्चा गोद लेना चाहती थी। अपना बच्चा पैदा करने के अहसास ने मुझे कभी भी आकर्षित नहीं किया। मेरे लिए मातृत्व एक बच्चे को बड़ा होते हुए देखने का अनुभव है।”
फ़ैसले की आज़ादी : अमृता नंदी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ‘मातृत्व और विकल्प’ पर शोध कर रही हैं। वह मानती हैं कि भारत में लड़कियों को बचपन से ही शादी और उसके बाद माँ बनने की अहमियत समझाई जाती है। इस सामाजिक संदर्भ में उनके लिए मातृत्व के रास्ते से हटकर चलना बहुत मुश्किल होता है और ज़्यादातर महिलाओं के लिए ये विकल्प मौजूद ही नहीं है।
अमृता के मुताबिक बच्चा न पैदा करने का फ़ैसला करने वाली शादीशुदा महिलाएं या शादी के बिना बच्चा गोद लेने वाली या अपना बच्चा करने की क्षमता के बावजूद बच्चा गोद लेने वाली शादीशुदा महिलाएं- ये सभी शहरों में रहने वाले, शिक्षित और कामकाजी वर्ग से होती हैं।
ऐसी महिलाओं को ढूंढ़ने में अमृता को काफी समय लगा। पिछले तीन साल में उन्होंने दिल्ली में 50 से अधिक महिलाओं का साक्षात्कार किया और दर्जनों से बात की।
अमृता कहती हैं, “पारंपरिक तौर से मातृत्व को एक महिला की ज़िन्दगी को संपूर्ण करने वाला अनुभव माना जाता है। पर शिक्षा, जानकारी और समझ बढ़ने से महिलाएं समझ पा रही हैं कि ज़िन्दगी के दायरे बहुत बड़े हैं और कई अन्य तरीके हैं जीवन में दिशा और मतलब ढूंढने के।”
अमृता बताती हैं कि जिन महिलाओं से उन्होंने बात की उन सब में एक बात सांझी थी। वे सब अपने फ़ैसले से खुश थीं और उन्होंने कहा कि दोबारा मौका दिए जाने पर भी वे वही फ़ैसले लेंगी।