क्यों बनूँ मैं माँ?

-दिव्या आर्य

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अंजना और अमित की शादी को साढ़े नौ साल हो गए हैं और उनके कोई बच्चे नहीं हैं- न अपने और न ही गोद लिए हुए। अंजना और उनके पति ने फैसला किया है कि वे ऐसे ही रहेंगे, एक दूसरे के साथ।

37 साल की अंजना को अपनी ज़िन्दगी में कुछ कम नहीं लगता, माँ न बनने की वजह से कोई अधूरापन भी नहीं है, बल्कि वह कहती हैं, “मुझे लगता है कि माँ बनने को कुछ ज़्यादा ही ख़ूबसूरत बनाकर पेश किया जाता है, जबकि ये एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है। ये दो-तीन साल नहीं कई साल तक बनी रहती है और इस ज़िम्मेदारी के लिए मैं कभी तैयार नहीं हो पाई। शुरुआत में बच्चा पैदा करने की ख्वाहिश थी। पर धीरे-धीरे वो जाती रही। अब मन में ऐसी कोई भावना नहीं उठती।”

पर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश भारत में शादी के बाद माँ बनने की इच्छा उठना सहज ही नहीं, पारंपरिक तौर से अपेक्षित भी रहा है। माँ को ऊँचा दर्जा दिया गया है और बच्चों के लिए खुद को पीछे रखने की कुर्बानी को बहुत इज़्ज़त।

हरियाणा के हिसार में ‘नेशनल फर्टिलिटी एंड टेस्ट ट्यूब बेबी सेंटर’ चला रहे डॉक्टर अनुराग बिश्नोई के मुताबिक, “भारत में महिलाओं की इज़्ज़त माँ बनने और घर की देखभाल करने से ही बढ़ती है।”

ग़ैर-ज़िम्मेदार होने का आरोप : वर्ष 2000 में शुरू किए गए अपने सेंटर के बारे में डॉक्टर बिश्नोई बताते हैं, “इन-विट्रो-फर्टिलाइज़ेशन (आईवीएफ) के ज़रिए बच्चा पैदा करने की चाह के साथ हमारे पास आने वालों में से पिछले सालों में 45 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों में 30-40 प्रतिशत इज़ाफा हुआ है।”

ज़्यादा उम्र की महिलाओं को आईवीएफ करवाने से कई तरह के ख़तरे होते हैं। पर डॉक्टर बिश्नोई के मुताबिक अपने बच्चे की चाह इन सबके ऊपर है और इसीलिए आईवीएफ की जानकारी फैलने के साथ-साथ गाँवों और शहरों दोनों से ही अधेड़ उम्र के दंपतियों के आने का सिलसिला बढ़ा है।

मातृत्व से जुड़े ऐसे माहौल में अंजना की सोच के लिए कितनी जगह है?

झारखंड में पली-बढ़ीं और दिल्ली में नौकरी करती रहीं अंजना कहती हैं कि इस दूरी को तय करने से वह कई परंपराओं को तोड़ने की हिम्मत भी जुटा पाईं हैं। अब उनका मन अपनी मर्ज़ी का मालिक है वो ज़िन्दगी से कुछ और चाहता है। माँ बनने से ये सब बदल जाएगा। काम छोड़ना होगा। घूमना-फिरना कम हो जाएगा। ख़ास अपने लिए वक्त भी कम रहेगा। पर ये सब कहते ही कई लोग उन पर गैर-ज़िम्मेदार होने का आरोप लगाने लगते हैं।

अंजना कहती हैं, “अपने माँ-बाप का ख़्याल रखने में मैं अपने भाई से कम नहीं। अपना घर भी चलाती हूं। नौकरी भी करती हूं। तो सिर्फ माँ न बनने से मैं ग़ैर-ज़िम्मेदार कैसे हो गई।”

‘बच्चे अपने आप नहीं पल जाते’ : दिल्ली के इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट की संयुक्त निदेशक प्रीत रुस्तगी खुद को बहुत ज़िम्मेदार मानती हैं क्योंकि उन्होंने माँ न बनने का फ़ैसला किया।

प्रीत कहती हैं, “बग़ैर सोचे-समझे हम बच्चे पैदा कर लेते हैं। हम उन्हें समय दे पाएंगे या किसी हेल्पर या क्रेश की मदद से उन्हें पालेंगे? हमारी वित्तीय स्थिति क्या है? हमारे परिवार से कितनी मदद मिलेगी वगैरह।”

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प्रीत और उनके पति ने अपने परिवारों से बग़ावत कर अंतर-जातीय विवाह किया। प्रीत के मुताबिक दो कामकाजी लोग, जो अपनी नौकरियां नहीं छोड़ना चाहते थे, उनको अपने बच्चे की अच्छी परवरिश के लिए परिवार की मदद भी चाहिए थी और साथ भी। पर ये दोनों ही उनके पास नहीं था।

प्रीत कहती हैं, “बस हमने तय कर लिया कि बच्चे को अकेलेपन से भरा बचपन नहीं देंगे और ऐसा भी नहीं था कि हम माँ-बाप के अहसास से बिलकुल अछूते रह गए। हमारे कई कामकाजी दोस्तों के बच्चे हमारे साथ लंबे समय के लिए रहे हैं। वे हमारा ख़ून ना सही पर सब हमारे बच्चे हैं।”

मातृत्व का अनुभव : दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर जानकी ने 39 साल की उम्र में शादी की और 47 साल की उम्र में अब दो साल की निष्ठा को गोद लिया है।

लेकिन ये किसी मजबूरी के तहत किए गए फैसले नहीं थे। शादी अपनी पसंद का पार्टनर ढूंढने के बाद की और अपना बच्चा न पैदा करने के बारे में भी खुद तय किया।

जानकी कहती हैं, “मैं कभी भी ये नहीं चाहती थी कि बच्चा पैदा करने के सही समय का दबाव मुझ पर बना रहे। जैसे किसी ने मेरी कनपटी पर बंदूक रखी हो। मैं बच्चा उसी वक्त चाहती थी जब मैं अपने करियर में और वित्तीय तौर पर ये ज़िम्मेदारी लेने की स्थिति में हूं।”

जानकी को हमेशा किसी अनाथालय से ऐसे बच्चों को घर में लाने का विचार पसंद आया जिनके पास उन्हें जन्म देने वाले माँ-बाप का प्यार नहीं है।

जानकी कहती हैं, “मैं जब अकेली भी रहती थी तभी से बच्चा गोद लेना चाहती थी। अपना बच्चा पैदा करने के अहसास ने मुझे कभी भी आकर्षित नहीं किया। मेरे लिए मातृत्व एक बच्चे को बड़ा होते हुए देखने का अनुभव है।”

फ़ैसले की आज़ादी : अमृता नंदी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ‘मातृत्व और विकल्प’ पर शोध कर रही हैं। वह मानती हैं कि भारत में लड़कियों को बचपन से ही शादी और उसके बाद माँ बनने की अहमियत समझाई जाती है। इस सामाजिक संदर्भ में उनके लिए मातृत्व के रास्ते से हटकर चलना बहुत मुश्किल होता है और ज़्यादातर महिलाओं के लिए ये विकल्प मौजूद ही नहीं है।

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अमृता के मुताबिक बच्चा न पैदा करने का फ़ैसला करने वाली शादीशुदा महिलाएं या शादी के बिना बच्चा गोद लेने वाली या अपना बच्चा करने की क्षमता के बावजूद बच्चा गोद लेने वाली शादीशुदा महिलाएं- ये सभी शहरों में रहने वाले, शिक्षित और कामकाजी वर्ग से होती हैं।

ऐसी महिलाओं को ढूंढ़ने में अमृता को काफी समय लगा। पिछले तीन साल में उन्होंने दिल्ली में 50 से अधिक महिलाओं का साक्षात्कार किया और दर्जनों से बात की।

अमृता कहती हैं, “पारंपरिक तौर से मातृत्व को एक महिला की ज़िन्दगी को संपूर्ण करने वाला अनुभव माना जाता है। पर शिक्षा, जानकारी और समझ बढ़ने से महिलाएं समझ पा रही हैं कि ज़िन्दगी के दायरे बहुत बड़े हैं और कई अन्य तरीके हैं जीवन में दिशा और मतलब ढूंढने के।”

अमृता बताती हैं कि जिन महिलाओं से उन्होंने बात की उन सब में एक बात सांझी थी। वे सब अपने फ़ैसले से खुश थीं और उन्होंने कहा कि दोबारा मौका दिए जाने पर भी वे वही फ़ैसले लेंगी।

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