नरेंद्र मोदी का इशारा साफतौर पर वंशवाद की राजनीति की तरफ़ था, जिसे वे आगे कोडरमा शहर में अपने एक भाषण में लोकतंत्र के लिए ग़लत मानते हुए कहते हैं। 'वंशवाद की राजनीति का लोकतंत्र में कोई महत्त्व नहीं।
नरेंद्र मोदी के दोनों बयानों को नकारा नहीं जा सकता। वह चुनावी अभियान के शुरू में केवल गांधी परिवार को ही वंशवाद की सियासत के लिए आड़े हाथों लेते थे, लेकिन अब 'लोकतंत्र के लिए हानिकारक' इस सियासत के लिए दूसरे राजनीतिक परिवारों को भी निशाना बना रहे हैं।
लेकिन एक तरफ़ मोदी वंशवाद की राजनीति को ख़त्म करने की बात करते हैं तो दूसरी तरफ़ ख़ुद उनकी पार्टी में यह परंपरा फल फूल रही है।
प्राइवेट लिमिटेड पार्टियां : उदाहरण के तौर पर भाजपा के नेता यशवंत सिन्हा के बेटे जयंत पहली बार चुनाव लड़ रहे हैं और अपने पिता की सीट पर। मुंबई में प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन लोकसभा चुनाव के मैदान में पहली बार कूदी हैं। साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश भी लोकसभा के चुनावी अखाड़े में उतरे हैं।
लिस्ट और भी लंबी है। भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमनसिंह और हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार के धूमल के बेटे भी चुनावी अखाड़े में उतरे हैं। यह फेहरिस्त और भी लंबी है।
कांग्रेस के नेता शकील अहमद कहते हैं कि भाजपा दोहरी नीति रखती है, लेकिन भाजपा के नितिन गडकरी कहते हैं उनकी पार्टी में वंशवाद नहीं है। "कांग्रेस के गांधी परिवार की तरह आडवाणी परिवार, वाजपेयी परिवार भाजपा में नहीं है। भाजपा के नेताओं के बेटे-बेटियों को टिकट इसलिए दिए गए हैं क्योंकि वे पार्टी में वर्षों से सक्रिय हैं।
सच तो यह है कि आज जिस राज्य या जिस पार्टी पर निगाह डालें वहां आपको ऐसे परिवार मिल जाएंगे। उत्तरप्रदेश में मुलायमसिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश यादव को आगे बढ़ा दिया। कश्मीर में शेख अब्दुल्ला ने पहले फारुक अब्दुल्ला को अपनी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस का अध्यक्ष बनाया और वो मुख्यमंत्री बने। बाद में जब वे केंद्र सरकार में आए तो पार्टी और राज्य में सत्ता की बागडोर अपने बेटे उमर अब्दुल्ला के हवाले कर दी।
ओडिशा में बीजू पटनायक ने नवीन पटनायक को आगे बढ़ाया। महाराष्ट्र में शिवसेना की स्थापना करने वाले बाल ठाकरे ने मरने से पहले अपने बेटे उद्धव ठाकरे के हवाले पार्टी की जिम्मेदारियां सौंप दीं। अब उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे पार्टी के उभरते हुए युवा नेता हैं।
दक्षिण भारत पर निगाह डालें तो तमिलनाडु में डीएमके के करुणानिधि ने अपने बेटे और परिवार के कई सदस्यों को मुख्य स्थान दिए चाहे वह पार्टी हो या सरकार।
बिहार में लालू यादव ने अपनी बेटी मीसा भारती को पार्टी में शामिल करके इस बार उन्हें चुनाव के मैदान में भी उतार दिया है, जबकि वे पहले ही अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनवा चुके हैं।
वरिष्ठ महिला पत्रकार तवलीन सिंह अपने एक लेख में कहती हैं कि इन नेताओं ने अपनी पार्टियों को प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों में बदल दिया है। पार्टियों पर इन परिवारों का शिकंजा इतना कसा हुआ है कि दूसरों को आगे बढ़ने का अवसर ही नहीं मिलता।
शुरुआत : ज़रा सोचिए सोनिया गांधी और राहुल के बिना कांग्रेस पार्टी का वजूद बाक़ी रहेगा? नटवर सिंह अब सियासत से रिटायर हो चुके हैं लेकिन वंशवाद की राजनीति की अलंबरदार इंदिरा गांधी के क़रीब थे। वे कहते हैं, "मां-बेटा ही कांग्रेस पार्टी है।"
लेकिन नटवरसिंह कहते हैं कि गांधी परिवार की ही आलोचना करना ठीक नहीं, "केवल नेहरू गांधी परिवार को वंशवाद की सियासत के लिए ज़िम्मेदार मानना सही नहीं। यह कश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी राज्यों और सभी पार्टियों में है।"
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