संघ और पार्टी का भेद? : मीडिया में ये चर्चा जरूर चलती रहती है कि आरएसएस का बीजेपी पर कितना प्रभाव है? अगर बीजेपी की सरकार बनती है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उसमें क्या भूमिका रहेगी? लेकिन इसका हकीकत से कोई लेना-देना नहीं है। इसे समझने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार के कार्यकाल को देखना होगा।
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार छह साल तक चली थी। तब वाजपेयी और आडवाणी ने सोच-समझकर एक रणनीति के अनुसार संघ को सरकार से दूर रखा। इसे अलग-अलग जामा पहनाने की कोशिश भी खूब हुई जिसमें गठबंधन की मजबूरी का सबसे ज्यादा हवाला दिया गया।
लेकिन वाजपेयी और आडवाणी का मानना था कि संघ को अपना काम करना चाहिए और सरकार और पार्टी को अपना काम करना चाहिए। इस दौरान बहुत सारी चीजें ऐसी हुईं जिनका कोई प्रमाण देना संभव नहीं है, लेकिन इसकी तस्दीक अलग तरीके से हो सकती है।
मसलन, संघ मुख्यालय, नागपुर में आरएसएस के बहुत सारे सूत्र बताएंगे कि वाजपेयी-आडवाणी ने रज्जू भैया को सर संघचालक की गद्दी से नहीं उतरने के लिए मनाया क्योंकि रज्जू भैया के बाद संघ कि जिम्मेदारी केएस सुदर्शन को मिलनी थी, जो कट्टरवादी थे।
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मोदी की रणनीति : वाजपेयी और आडवाणी ने संघ को राजनीति से दूर रखने के लिए काफी मजबूत रणनीति अपनाई थी। अब वो रणनीति नहीं है, अब संघ और पार्टी एक हैं। ऐसे में यह कहना कि बीजेपी की सरकार पर संघ का क्या प्रभाव होगा, एक तरह से बेमानी ही है। अब संघ और पार्टी दोनों एक ही हो चुके हैं, अलग-अलग रुपों में ही सही।
इससे राजनीति निश्चित तौर पर प्रभावित होगी। आरएसएस का गोलवलकर वाला मॉडल हो या सावरकर वाला मॉडल, दोनों ही गैर लोकतांत्रिक हैं। जनतंत्र में दोनों की आस्था नहीं है। उनकी आस्था इसलिए नहीं है क्योंकि वे लोकतंत्र के दोनों मॉडल, चाहे वो रिपब्लिकन मॉडल हो या फिर डेमोक्रेटिक मॉडल दोनों को विदेशी मानते हैं और उसे अपनी संस्कृति का हिस्सा नहीं मानते।
एक सवाल यह जरूर उठता है कि क्या मोदी भी वाजपेयी और आडवाणी की तरह सरकार से संघ को दूर रखने का कोई उपाय तलाशेंगे। यह भविष्य तय करेगा। मेरे ख्याल से राजनीतिक विश्लेषक को ज्योतिषी का काम नहीं करना चाहिए। दुर्भाग्य यह है कि हमारे राजनीति विश्लेषक कभी-कभी ज्योतिषी हो जाते हैं।
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