Shastri Jayanti 2024: लाल बहादुर शास्त्री की जयंती, जानें उनके जीवन की घटनाएं

WD Feature Desk
मंगलवार, 1 अक्टूबर 2024 (15:59 IST)
Highlights 
  • लाल बहादुर शास्त्री की जयंती पर विशेष।
  • 2 अक्टूबर को शास्त्रीजी की जयंती।
  • लाल बहादुर शास्त्री का जन्म कहां हुआ था।
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lal bahadur shastri : 02 अक्टूबर को भारत के दूसरे प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री की जयंती है। लाल बहादुर शास्त्री का जन्म उत्तरप्रदेश के मुगलसराय में 02 अक्टूबर 1904 को एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता शारदा प्रसाद अध्यापक थे। शास्त्री जी जब डेढ़ वर्ष के थे, तभी उनके पिता का देहावसान हो गया। उनका लालन-पालन ननिहाल में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा वाराणसी में हुई। 
 
17 वर्ष की अल्पायु में ही गांधीजी की स्कूलों और कॉलेजों का बहिष्कार करने की अपील पर वे पढ़ाई छोड़कर असहयोग आंदोलन से संलग्न हो गए। परिणामस्वरूप वे जेल भेज दिए गए। जेल से रिहा होने के पश्चात्‌ उन्होंने काशी विद्यापीठ में पढ़ाई आरंभ की। विद्यापीठ में उनके आचार्य स्व. डॉ. भगवानदास, आचार्य नरेंद्रदेव, बाबू संपूर्णानंद जी और प्रकाश जी थे। उन्होंने प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण कर 'शास्त्री' की उपाधि प्राप्त की। 
 
स्वाधीनता संग्राम में शास्त्रीजी की भागीदारी : भारत के पूर्व प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री जी का समस्त जीवन देश की सेवा में ही बीता। देश के स्वतंत्रता संग्राम और नवभारत के निर्माण में शास्त्री जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान वे 7 बार जेल गए। अपने जीवन में कुल मिलाकर 9 वर्ष उन्हें कारावास की यातनाएं सहनी पड़ीं। सन्‌ 1926 में शास्त्री जी ने लोकसेवा समाज की आजीवन सदस्यता ग्रहण की और इलाहाबाद को अपना कार्यक्षेत्र चुना। बाद में वे इलाहाबाद नगर पालिका, तदोपरांत इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट के भी सदस्य रहे। 
 
सन्‌ 1947 में शास्त्री जी उत्तरप्रदेश के गृह और परिवहन मंत्री बने। इसी पद पर कार्य करते समय शास्त्री जी की प्रतिभा पहचान कर 1952 के पहले आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी के चुनाव आंदोलन को संगठित करने का भार नेहरू जी ने उन्हें सौंपा। चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमतों से विजयी हुई जिसका बहुत कुछ श्रेय शास्त्री जी की संगठन कुशलता को दिया गया। 
 
शास्त्री जी 1952 में ही राज्यसभा के लिए चुने गए। उन्हें परिवहन और रेलमंत्री का कार्यभार सौंपा गया। 4 वर्ष पश्चात्‌ 1956 में अडियालूर रेल दुर्घटना के लिए, जिसमें कोई डेढ़ सौ से अधिक लोग मारे गए थे, अपने को नैतिक रूप से उत्तरदायी ठहरा कर उन्होंने रेलमंत्री का पद त्याग दिया। शास्त्री जी के इस निर्णय का देशभर में स्वागत किया गया। अपने सद्गुणों व जनप्रिय होने के कारण 1957 के द्वितीय आम चुनाव में वे विजयी हुए और पुनः केंद्रीय मंत्रिमंडल में परिवहन व संचार मंत्री के रूप में सम्मिलित किए गए। 
 
सन्‌ 1958 में वे वाणिज्य व उद्योगे मंत्री बनाए गए। पं. गोविंद वल्लभ पंत के निधन के पश्चात्‌ सन्‌ 1961 में वे गृहमंत्री बने, किंतु सन्‌ 1963 में जब कामराज योजना के अंतर्गत पद छोड़कर संस्था का कार्य करने का प्रश्न उपस्थित हुआ तो उन्होंने सबसे आगे बढ़कर बेहिचक पद त्याग दिया। 
 
भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री बने : पंडित जवाहरलाल नेहरू जब अस्वस्थ रहने लगे तो उन्हें शास्त्री जी की बहुत आवश्यकता महसूस हुई। जनवरी 1964 में वे पुनः सरकार में अविभागीय मंत्री के रूप में सम्मिलित किए गए। तत्पश्चात्‌ पंडित नेहरू के निधन के बाद, चीन के हाथों युद्ध में पराजय की ग्लानि के समय 09 जून 1964 को उन्हें प्रधानमंत्री का पद सौंपा गया। सन्‌ 1965 के भारत-पाक युद्ध में उन्होंने विजयश्री का सेहरा पहना कर देश को ग्लानि और कलंक से मुक्त करा दिया। 
 
शास्त्री जी को प्रधानमंत्रित्व के 18 माह की अल्पावधि में अनेक समस्याओं व चुनौतियों का सामना करना पड़ा किंतु वे उनसे तनिक भी विचलित नहीं हुए और अपने शांत स्वभाव व अनुपम सूझ-बूझ से उनका समाधान ढूंढने में कामयाब होते रहे। स्व. पुरुषोत्तमदास टंडन ने शास्त्री जी के बारे में ठीक ही कहा था कि उनमें कठिन समस्याओं का समाधान करने, किसी विवाद का हल खोजने तथा प्रतिरोधी दलों में समझौता कराने की अद्भुत प्रतिमा विद्यमान थी। 

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कश्मीर की हजरत बल मस्जिद से हजरत मोहम्मद के पवित्र बाल उठाए जाने के मसले को, जिससे सांप्रदायिक अशांति फैलने की आशंका उत्पन्न हो गई थी, शास्त्री जी ने जिस ढंग से सुलझाया वह सदा अविस्मरणीय रहेगा। देश में खाद्यान्न संकट उत्पन्न होने पर अमेरिका के प्रतिमाह अन्नदान देने की पेशकश पर तो शास्त्री जी तिलमिला उठे किंतु संयत वाणी में उन्होंने देश का आह्वान किया- 'पेट पर रस्सी बांधो, साग-सब्जी ज्यादा खाओ, सप्ताह में एक शाम उपवास करो। हमें जीना है तो इज्जत से जिएंगे वरना भूखे मर जाएंगे। बेइज्जती की रोटी से इज्जत की मौत अच्छी रहेगी।' 
 
गरीबी में जन्मे, पले और बढ़े शास्त्री जी को बचपन में ही गरीबी की मार की भयंकरता का बोध हो गया था, फलतः उनकी स्वाभाविक सहानुभूति उन अभावग्रस्त लोगों के साथ रही जिन्हें जीवनयापन के लिए सतत संघर्ष करना पड़ता है। वे सदैव इस हेतु प्रयासरत रहे कि देश में कोई भूखा, नंगा और अशिक्षित न रहे तथा सबको विकास के समान साधन मिलें। शास्त्री जी का विचार था कि देश की सुरक्षा, आत्मनिर्भरता तथा सुख-समृद्धि केवल सैनिकों व शस्त्रों पर ही आधारित नहीं बल्कि कृषक और श्रमिकों पर भी आधारित है। इसीलिए उन्होंने नारा दिया, 'जय जवान, जय किसान।' 
 
छोटे कद के विराट हृदय वाले शास्त्रीजी अपने अंतिम समय तक शांति की स्थापना के लिए प्रयत्नशील रहे। पंडित नेहरू के शब्दों में, 'अत्यंत ईमानदार, दृढ़ संकल्प, शुद्ध आचरण और महान परिश्रमी, ऊंचे आदर्शों में पूरी आस्था रखने वाले निरंतर सजग व्यक्तित्व का ही नाम है- लाल बहादुर शास्त्री। भारत की जनता के सच्चे प्रतिनिधि शास्त्री जी के संपूर्ण जीवनकाल का यदि सर्वेक्षण किया जाए तो निश्चय ही वे मानवता की कसौटी पर खरे कंचन सिद्ध होंगे।' 
 
कब हुआ था शास्त्रीजी का निधन : सन्‌ 1965 के भारत-पाक युद्ध विराम के बाद उन्होंने कहा था कि 'हमने पूरी ताकत से लड़ाई लड़ी, अब हमें शांति के लिए पूरी ताकत लगानी है।' शांति की स्थापना के लिए ही उन्होंने 10 जनवरी 1966 को ताशकंद में पाकिस्तानी राष्ट्रपति अय्यूब खां के साथ 'ताशकंद समझौते' पर हस्ताक्षर किए। भारत के लिए यह दुर्भाग्य ही रहा कि ताशकंद समझौते के बाद देश की जनता इस महान पुरुष के नेतृत्व से हमेशा-हमेशा के लिए वंचित हो गई। 11 जनवरी सन्‌ 1966 को इस महान पुरुष का ताशकंद में ही हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया। राष्ट्र के विजयी प्रधानमंत्री होने के नाते उनकी समाधि का नाम भी 'विजय घाट' रखा गया। 
 
उनके राजनीतिक जीवन में अनेक ऐसे अवसर आए जब शास्त्री जी ने इस बात का सबूत दिया। इसीलिए उनके बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि वे अपना त्यागपत्र सदैव अपनी जेब में रखते थे। मरणोपरांत सन्‌ 1966 में उन्हें भारत के सर्वोच्च अलंकरण 'भारत रत्न' से विभूषित किया गया। वे निस्पृह व्यक्तित्व के धनी भारत माता के सच्चे सपूत थे। एक अत्यंत गरीब परिवार में जन्मा बालक भी अपने परिश्रम व सद्गुणों द्वारा विश्व इतिहास में कैसे अमर हो सकता है, इसका ज्वलंत उदाहरण थे भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री, जिन्होंने कभी किसी पद या सम्मान की लालसा नहीं रही।
- योगेंद्र माथुर

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