सियासी गलियारों में पसरा 'आरक्षण' का भय

दीपक असीम
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प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण को लेकर जैसी बेचैनी इन दिनों सियासत के गलियारों में नजर आ रही है, वैसी पहले कभी नहीं थी। "किस्सा कुर्सी का" तो एकदम बैन कर दी गई थी। आरक्षण के साथ ऐसा नहीं किया जा सकता। वक्त (कमबख्त) बदल गया है। पर चारों तरफ तैयारी इसी की है कि प्रकाश झा को कैसे घेरा जाए।

सभी दलों को दलितों के वोट बैंक का बेयरर चेक चाहिए। ये चेक दलित कैसे साइन करेगा, कितने अमाउंट पर साइन करेगा, इसी की फिक्र सबको है। ऐसा डर तब पैदा होता है, जब तर्क नहीं हों। अगर वाकई ये सियासी दल समाज का भला चाहते हैं, तो आरक्षण को आराम से रिलीज होने देना चाहिए और प्रकाश झा की बात सब तक पहुँचने देना चाहिए। मगर नेताओं को डर ये लग रहा है कि प्रकाश झा की आरक्षण विरोधी बातों का जवाब वे कैसे देंगे।

जैसे-जैसे फिल्म के प्रोमो खुलकर आ रहे हैं, वैसे ही यह भी समझ में आ रहा है कि झा बाबू कोई नई चीज नहीं लाए हैं। आरक्षण के खिलाफ उनका एक भी तर्क नया नहीं है। उन सब तर्कों का आराम से जवाब दिया जा सकता है।

उल्टा यह मौका है कि जब आरक्षण विरोधियों को तर्क देकर दुविधा में डाला जा सकता है। मगर लगता यही है कि आरक्षण का समर्थन करने वाले नेताओं के पास तर्क बिलकुल नहीं हैं। वे बहस करने से डरते हैं। जिस लोकतंत्र में नेता बहस से डरें, वो बहुत अच्छा लोकतंत्र नहीं होता। वो भीड़तंत्र होता है। जिस लोकतंत्र में अभिव्यक्ति का गला घोंटने की कोशिश होती हो, वो छद्म लोकतंत्र होता है।

प्रकाश झा यही कह रहे हैं कि फैसला मैरिट से होना चाहिए, जात से नहीं। बात बिलकुल ठीक है। इसका सीधा-सा जवाब यह है कि मनुस्मृति के चलते हजारों बरसों से चूँकि ऐसा नहीं हो पाया, सो अब हम उन लोगों को आरक्षण दे रहे हैं, जो जातिवाद से पीड़ित रहे हैं। ये आरक्षण मुआवजे के बतौर है। इसे तब तक दिया जाना चाहिए, जब तक कि पिछड़ी और दलित जातियाँ आर्थिक तौर पर बराबरी में नहीं आ जातीं। जातिगत जनगणना कराने की बात इसीलिए की गई थी कि पता लग सके कौन जाति के कितने लोग हैं और किस जाति की दशा क्या है।

तमाम दुनिया में लोग अमीर और गरीब अपनी प्रवृत्तियों से होते हैं। यानी अगर आप तामसिक प्रवृत्ति के हैं, तो गरीब रहेंगे। राजसी प्रवृत्ति आपमें अधिक है, तो संपन्ना हो जाएँगे। आलसी होंगे तो गरीब और कर्मठ होंगे तो अमीर।

केवल भारत ही ऐसा देश है, जिसमें संपन्नाता का रिश्ता जात बिरादरी से भी हो सकता है। वैश्य ही अगर व्यापार करेंगे तो जाहिर है कि अमीर भी वही होंगे। केवल बामन ही अगर पढ़ेंगे-लिखेंगे तो जाहिर है, समाज में आगे भी वही रहेंगे। दलित अगर सिर्फ मैला साफ करेंगे तो जाहिर है इसमें उन्हें हवेली बनाने लायक तो कमाई होगी नहीं। सेना में सिर्फ क्षत्रिय जाएँगे तो सेनापति और सूबेदार और सिपाही भी वही बनेंगे।

ये सब कमाई की नौकरियाँ हैं कि नहीं? तो प्रकाश झा की फिल्म आने दीजिए। अगर आप असहमत हों तो जवाब दीजिए। मगर किसी का मुँह पकड़ना तो नासमझी है। जिसके पास तर्क होते हैं, वो तो उत्सुकता से इंतजार करता है कि बहस शुरू हो। बहस से डरता नहीं है।

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