- अजित राय
देश के लाखों कलाकार और संस्कृतिकर्मियों बेहद ख़राब आर्थिक हालात से गुज़र रहे हैं। बहुत से भुखमरी की कगार पर हैं। उनकी हालत तो मज़दूरों से भी गई गुज़री है। श्रमिक वर्ग के लिये कम से कम मनरेगा है, परंतु कलाकारों की जीवन रक्षा के लिये कोई योजना नहीं है। उनका अनुदान तक रूका हुआ है। हालात बेहद विकट है। परंतु संस्कृति मंत्रालय संवेदनहीन बना हुआ है। सरकारी कला संस्थान और अकादमियां ख़ामोश हैं। लाखों का वेतन पाने वाले अफ़सर मज़े से नौकरी कर रहे हैं। कलाकारों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है।
कोराना संकट में बदहाल कलाकार
कोरोना संकट आने के बाद पहले लॉक डाउन से अब तक कलाकारों के बारे में कुछ सोचा ही नहीं गया। किसी भी संकट काल में हमारी सांस्कृतिक संस्थाओं का यह दायित्व है कि वे संस्कृतिकर्मी और कलाकारों की जीवन रक्षा के बारे में भी कदम उठाए। परंतु पिछले डेढ़ साल से संस्कृति मंत्रालय नाकारा साबित हुआ है। भुखमरी की कगार तक पहुंचे कलाकारों का दर्द बांटना तो दूर उन्हें मिलने वाला अनुदान तक रोककर रखा गया है। पिछले डेढ़ साल में कोई ऐसी ऑनलाइन एक्टिविटी भी नहीं क्रियेट की गई कि तालाबंदी के दौरान कलाकारों को कुछ काम मिल पाता।
संस्कृति मंत्रालय का बजट कहां गया?
बड़ा सवाल है कि संस्कृति मंत्रालय का बजट गया कहां? आख़िर दो-दो साल से कलाकारों को मिलने वाली ग्रांट क्यों रूकी हुई है? क्या हमारे संस्कृति मंत्री संवेदनहीन हो गए हैं? पिछले डेढ़ साल में उन्होंने देश के कलाकारों को लेकर कोई बयान क्यों नहीं दिया? क्यों नहीं उन्होंने कोई फेसबुक लाइव किया या ट्विटर पर कोई संदेश दिया? क्यों नहीं केंद्र की तरफ से राज्य सरकारों को कलाकारों के लिए कुछ करने को कहा गया? आख़िर सीसीआरटी फेलोशिप क्यों नहीं जारी की? संस्कृति मंत्रालय ने कलाकारों का अनुदान क्यों रोक रखा है? आख़िर इतनी कला संस्थाओं और अकादमियों के सरकारी अफ़सर क्या कर रहे हैं? क्या उनका बजट रोक लिया गया है? वे ख़ुद क्यों नहीं अपनी तरफ से कोई पहल करते? क्या ऐसा करने से उनकी नौकरी पर कोई असर पड़ेगा? अगर उन्हें कह दिया जाए कि एक साल तक आपको बिना वेतन के काम करना है, तो क्या उनका घर चल जायेगा ?
कई राज्यों में हालात बदतर
बिहार, राजस्धान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, प.बंगाल, असम जैसे राज्यों के कलाकार जीवन को किसी तरह बचाने का संघर्ष कर रहे हैं। 140 करोड़ के भारत में करीब में 2 करोड़ कलाकार हैं। यह कलाकार देश के गांवों से लेकर कस्बों और शहरों तक फैले हुए हैं। वे विभिन्न स्तरों पर कलाओं से जुड़े विभिन्न कामों में जुटे हैं। बहुतों का जीवन कलाकर्म पर आधारित है। परंतु उनके बारे में कुछ नहीं सोचा जा रहा। पिछले लॉक डाउन से अब तक 5 सांसदों से कलाकारों की बिगड़ती हालत को लेकर निवेदन किया था। उनसे कहा था कि वे कलाकारों की दो-दो साल से रूकी ग्रांट को जारी करवाने में मदद करें। इतना ही नहीं मैंने संस्कार भारती के प्रमुख पदाधिकारियों से भी विनती की। उनसे कहा कि हो सकता है कि आपकी आवाज़ सरकार सुने। परंतु यह सरकार किसी की सुनती ही नहीं। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस या वामपंथियों की सरकारें कला-संस्कृति के मामले में बहुत आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करती रही हैं। परंतु हमने इस सरकार को बेहतरी के लिये चुना है। अपना मत दिया। इस आधार पर कि 70 सालों से कुछ नहीं हुआ, तो क्या अब भी कुछ नहीं होगा?
कला संस्थाओं ने पैसे का क्या किया?
इस साल फरवरी-मार्च में जब बजट पार्लियामेंट में पेश हुआ तब संस्कृति मंत्रालय का कुछ तो बजट रखा गया होगा। कला संस्थाओं को कमी के बावजूद कुछ तो बजट मिला होगा। आख़िर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसी संस्थाओं ने अपने बजट का क्या किया? क्या सारा पैसा सरकार को लौटा दिया? अगर लौटाया नहीं तो उस पैसे को कहां खर्च किया गया? संकट की घड़ी में ऐसी संस्थाओं ने आख़िर कलाकारों के लिए क्या किया? क्या ऐसी कोई ऑनलाइन एक्टिविटी की जिससे कलाकारों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों को कई लाभ मिलता। क्या उन्होंने ऐसा कोई वेबिनार बुलाया?
कलाकारों के लिए मनरेगा भी नहीं
कलाकार तो मज़दूरों से भी गए गुज़रे हैं। उनके लिए तो मनरेगा भी नहीं है। प्रधानमंत्री की तरफ से मजदूरों को दिवाली तक न्यूनतम राशन देने की घोषणा की गई है। परंतु कलाकारों के लिए अब तक किसी राज्य के संस्कृति मंत्री की आवाज़ तक नहीं आई कि वे कुछ कलाकारों के बारे में सोच रहे हैं। संस्कृति मंत्रालय या राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, संगीत कला अकादमियों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे इस पर ध्यान दें। राज्यों के संस्कृति विभाग कुछ एक्टिविटी ऑनलाइन क्रियेट करें। अनुदान जारी रखें। उलटा वे कलाकारों को दिया जाने वाला अनुदान ही हड़प कर रहे हैं। साहित्य अकादमी, संगीत नाट्य अकादमी, नाट्य विद्यालय और बहुत सारे विश्वविद्यालय ऑनलाइन ही सही बहुत सी रचनात्मक गतिविधियों के ज़रिये कुछ रंगकर्मियों का भला कर सकते थे। परंतु किसी के लिये कुछ नहीं हो रहा। ऐसे में देश भर के गांवों, कस्बों और नगरों में रहने वाले कलाकार भुखमरी की कगार पर हैं। उनके लिये राज्य सरकारों से भी कोई आवाज़ें नहीं आ रही।
कलाकार एकजुट होकर संघर्ष करें
कलाकारों को भी अपनी हालत पर संगठित रूप से विचार करने की ज़रूरत है। हर ज़िले के जिला अधिकारी, विधायक-सांसदों के समक्ष अपनी बात रखी जा सकती है। ऐसा करने से कलाकारों के हित में कुछ तो कदम उठाए जा सकेंगे। देश की संस्कृति का परचम तो सरकारों को फहराना है, परंतु ना तो उनके लिए सस्ते दरों पर बेहतर हॉल हैं, ना रिहर्सल की जगहें हैं, ना ही कोई सुविधाएं। ना कोई प्रशिक्षण की सुविधा। एक चिंता की बात खुद कलाकारों का विचारधाराओं में बंटे होना है। हालांकि ज़्यादातर कलाकार सिर्फ अपना काम करते हैं, वे समाज के हित में ज़रूरी आवाज़ बनकर अपनी कृतियों, रचनाओं और परफॉरमेंस के माध्यम से सामने आते हैं। मगर कथित दक्षिणपंथी और वामपंथी विचारधारा के कलाकार साथ आने में कतराते हैं। परंतु यह कोरोना जैसे संकट के समय एकजुट होकर अपने लिए सरकारों से चर्चा करना, नीतियों को बनाने में मदद करना उनका भी कर्तव्य है। अन्यथा संकट के समय भी आपका कोई साथ नहीं देगा। आप मत भी देते हैं, सरकारें भी चुनते हैं, अवाम को आप प्रभावित करते हैं, इस पर किसी का ध्यान नहीं होगा। आपका सदुपयोग ज़रूर होता रहेगा।
(लेखक फिल्म एवं थियेटर क्रिटिक हैं)