Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

महान गीतकार शैलेंद्र के लिए 'आखिरी कसम' साबित हुई 'तीसरी कसम'

Advertiesment
हमें फॉलो करें Shailendra
webdunia

सीमान्त सुवीर

आज की युवा पीढ़ी के पसंदीदा गायकों में अरिजीत सिंह, अरमान मलिक, बादशाह, रफ्तार सिंह शामिल जरूर हैं लेकिन इन युवाओं में एक तबका ऐसा भी है, जो रेडियो या टीवी पर बजने वाले नए गीतों के साथ ही साथ पुराने गीतों को सुनने से परहेज नहीं करता। इन्हीं पुराने गीतों में शैलेन्द्र ऐसा नाम हैं जिनके लिखे गीत आज भी उतने ही कर्णप्रिय हैं, जो 4-5 दशक पूर्व हुआ करते थे। शैलेन्द्र साहब का 30 अगस्त को जन्मदिन आता है और 'विविध भारती' ने शिद्दत के साथ उन्हें याद करते हुए कई ऐसी परतें खोलीं जिन पर धूल की मोटी परत जमा हो गई थी।
 
अपने जीवनकाल में शैलेन्द्रजी ने सिर्फ एक ही फिल्म बनाई 'तीसरी कसम', जो आज भी बेहद पसंद की जाती है। देश के महान साहित्यकार फणीश्वर नाथ 'रेणु' की किताब 'मारे गए गुलफाम' की कहानी पर आधारित फिल्म 'तीसरी कसम' एक विशेष पीढ़ी के लिए कालजयी फिल्म मानी जाती है।
 
विविध भारती ने 30 अगस्त, शुक्रवार को अपने विशेष कार्यक्रम 'विविधा' में शैलेन्द्र के बेटे दिनेश शैलेन्द्र से बातचीत की। उनके बेटे ने बताया कि हमारे परिवार ने बहुत गरीबी देखी। पिताजी ने रेणुजी की कहानी 'मारे गए गुलफाम' जैसे ही पढ़ी, अगले दिन उन्हें चिट्ठी लिखकर इस पर फिल्म बनाने की अनुमति ली। रेणुजी ने भी सहर्ष स्वीकृति दे दी।
 
एक साल में बनने वाली फिल्म 5 साल में पूरी हुई : फिल्म 'तीसरी कसम' में मुख्य कलाकारों में राजकपूर, वहीदा रहमान, इफ्तिखार, असित सेन, केस्टो मुखर्जी और सीएस दुबे थे। बिहार की पृष्ठभूमि पर आधारित इस फिल्म में देश की मिट्‍टी की खुशबू थी। दिनेश शैलेन्द्र के अनुसार यह फिल्म 1 साल या कुछ महीनों के भीतर बननी थी लेकिन इसे बनने में 5 साल लग गए।
 
परदे के पीछे की कहानी : ऐसा कहा जाता है कि राजकपूर के घर पर रोज रात को एक चौकड़ी जमा होती थी। इस चौकड़ी में गायक मुकेश, संगीतकार शंकर जयकिशन और शैलेन्द्र हुआ करते थे। इन सब में शंकर सबसे निर्धन थे। जब एक जाम का दौर हो गया, तब मुकेश ने कहा कि राज साब, ये शैलेन्द्र फिल्म बनाना चाहता है। जब कहानी राजकपूर ने सुनी तो कहा कि मैं मुफ्त में काम करूंगा। मुकेश ने कहा मैं फ्री में गाने गाऊंगा और शंकर-जयकिशन भी बिना पैसे लिए संगीत देने को तैयार हो गए...
webdunia
साथी कलाकारों ने साथ छोड़ा : शैलेन्द्र के बेटे ने बताया कि मेरे पिता उस वक्त के सबसे ज्यादा दाम लेने वाले गीतकार थे। जब फिल्म बन रही थी, तब काफी पैसा लग रहा था। चूंकि वक्त बीत रहा था और 1 साल की फिल्म में 5 साल लग गए थे, तब वे थोड़े निराश हो गए थे, क्योंकि सभी साथी कलाकारों ने उनका साथ छोड़ दिया था। 
 
परदे पर जब तीसरी कसम फ्लॉप हो गई : 5 साल के बाद किसी तरह फिल्म तीसरी कसम बनी लेकिन दर्शकों ने इसे नकार दिया। यह फिल्म 1966 के सितंबर महीने में रिलीज हुई थी और शैलेन्द्र की जब 14 दिसंबर 1966 के दिन दिल का दौरा पड़ने से मौत हुई, तब उनकी उम्र महज 43 बरस की थी। उनके बेटे ने इस अफवाह को सिरे से खारिज कर दिया कि पिताजी की मौत आर्थिक तंगी और फिल्म के फ्लॉप होने की वजह से हुई। अलबत्ता उन्हें भरोसा था कि कुछ महीने बाद यह फिल्म चलेगी...
 
'तीसरी कसम' को राष्ट्रीय पुरस्कार : 'तीसरी कसम' सितंबर 1966 में परदे पर आई थी और मार्च 1967 में इस फिल्म को बेस्ट फिल्म के 'राष्ट्रीय पुरस्कार' से नवाजा गया। फिल्म को पुरस्कार जरूर मिला लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि फिल्म की कामयाबी देखने वाला ही शख्स इस दुनिया से चला गया था।
 
'तीसरी कसम' के गीतों ने धूम मचाई : इस फिल्म के गीतों ने उस जमाने में तो धूम मचाई थी, लेकिन आज भी इसे बेहद चाव के साथ सुना जाता है। 'सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, ना हाथी है ना घोड़ा है, वहां पैदल ही जाना है...' इस गीत में कितनी सच्चाई है, यह तो समझने वाला ही समझ सकता है। 'सजनवा बैरी हो गए हमार, चिठिया हो तो हर कोई बांचे, बांचे न भाग कोई...। 'दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई...।' 'पान खाए सैय्या हमार...।' 'आ आ भी जा, रात ढलने लगी, चांद छुपने लगा...' आदि ऐसे गीत हैं जिनसे देश की मिट्‍टी की खुशबू आती है।
 
रावलपिंडी में हुआ जन्म : शंकरदास केसरीलाल उर्फ शैलेन्द्र का जन्म 30 अगस्त 1923 में रावलपिंडी, पंजाब (अब पाकिस्तान में) हुआ लेकिन बचपन में ही पूरा परिवार पहले मथुरा और फिर बिहार में आरा जिले के अखियारपुर में आ बसा। शैलेन्द्र 1947 में ही बॉम्बे (अब मुंबई) चले आए थे और वे भारतीय रेलवे के माटुंगा वर्कशॉप में अप्रेंटिस बन गए थे। बाद में एक मुशायरे में पढ़े कलाम के जरिए राज कपूर ने उनकी प्रतिभा को पहचाना। उनका फिल्मी करियर 1949 से 1966 तक चला
 
पिता से मिली कई सीख : दिनेश शैलेन्द्र ने बताया कि हमने काफी गुरबत के दिन देखे, ऐसा पिता बताते थे। उन्हें जमीन पर खाना, खाना हमेशा रास आता था। वे कहते थे कि जमीन पर बैठोगे तो हमेशा इससे जुड़े रहोगे। यहां तक कि खार में जब पिताजी ने बंगला खरीदा तब भी वे जमीन पर बैठकर ही भोजन करते थे।
 
गुलजार ने कही यह बड़ी बात : दिनेश ने बताया कि एक बार कार्यक्रम में गुलजार साहब मिल गए। उन्होंने कहा कि तुम्हारे पिता को मैं बहुत पसंद करता था। उन्होंने जो भी गीत लिखे, वे अमर हो गए। गुलजार ने फिल्म 'श्री 420' के 'मेरा जूता है जापानी...' नगमे को याद किया जिसके अंतरे में आता है...' 'होंगे राजे राजकुंवर हम बिगड़े दिल शहज़ादे, बिगड़े दिल शहज़ादे, हम सिंघासन पर जा बैठें, जब-जब करें इरादे...'। यानी लोकतंत्र आ गया, यहां पर एक आम आदमी भी सिंहासन पर बैठ सकता है... क्या आप इसे नरेन्द्र मोदी से नहीं जोड़ेंगे, जो एक साधारण से आदमी थे और आज दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने हुए हैं...!

 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

फिल्म 'छिछोरे' की स्टार कास्ट ने शेयर किया निर्देशक नितेश तिवारी के साथ काम करने का खूबसूरत अनुभव