जब रफी साहब ने गीत गाकर धर्मेन्द्र को किया 'पागल'

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मुंबई। 'विविध भारती' 3 अक्टूबर 2017 को पूरे 60 साल की हो गई और इस खास मौके पर उसने दिनभर अनूठे कार्यक्रम पेश किए। 60 साल पूरे होने पर फिल्म अभिनेता धर्मेन्द्र से एक घंटे की विशेष टेलीफोनिक बातचीत दिल को छू गई। इसमें पहली बार धर्मेन्द्र ने बचपन से लेकर अब तक के सफर की ऐसी कई बातें साझा कीं, जो अब तक न कहीं भी पढ़ी और न सुनी गई...
 
'धर्मेन्द्र की यादों के रंग, विविध भारती के संग' नामक इस विशेष कार्यक्रम में कमल शर्मा को उन्होंने बताया कि मेरा बचपन पंजाब में गुजरा। मैंने भी खेतों में खूब काम किया। मेरा ऐसा मानना है कि जो लोग कड़ी मेहनत  करते हैं, उनमें जिंदगी से लड़ने का हौसला और दिल में हिम्मत आ जाती है और यही हिम्मत उन्हें कामयाबी  दिलाती है।

पंजाब छोड़कर मैं मुंबई आया और संघर्ष के बाद खुद की जगह बनाई। जब मोहम्मद रफी साहब ने पहली बार फिल्म 'शोला और शबनम' के लिए मेरे लिए गीत गाया तो मैं पागल जैसा हो गया। मैंने अपने गांव, रिश्तेदार, दोस्त को  फोन करके और पोस्टकार्ड भेजकर यह बताया कि आज महान गायक मोहम्मद रफी साहब ने मेरे लिए अपनी आवाज दी...ये  गीत था 'जाने क्या ढूंढती रहती हैं ये आंखें मुझमें, राख के ढेर में शोला है या शबनम..'। 
 
मैंने पूरी दुनिया घूमी है और लोगों से बेपनाह मोहब्बत पाई है। देश-विदेश में मैं जहां भी जाता हूं, वहां लोग दिल खोलकर प्यार लुटाते हैं। हिन्दुस्तानी फिल्मों की पहुंच दुनियाभर में है, लेकिन पूरी दुनिया देखने के बाद मैं कभी भी अपनी जड़ों से टूट नहीं पाया। आज भी मेरा दिल मेरे गांव के लिए धड़कता है।
 
दुनिया के सबसे खूबसूरत शहर में एक मुंबई में रहने के बाद भी इसके पास में मेरा एक बड़ा-सा फॉर्म हाउस है, जहां मैंने छोटा-सा पंजाब बनाया है। वहां पर मुर्गे, मुर्गी, बत्तखें हैं। जब भी मैं वहां जाता हूं तो सहर में मुर्गा मुझे उठा देता है। उसे मैंने अपना दोस्त बना रखा है। पास की दीवार के पीछे बत्तखें हैं। पानी में उनकी कतारें देखता हूं तो मुंह से निकल पड़ता है...'झील के उस पार..'
 
पंजाब में मेरे बचपन के कुछ दोस्त हैं, जिनसे आज भी बातें होती हैं। बचपन की दोस्ती मासूमियत वाली होती है। इन्हीं में से एक दोस्त रमेश भाटिया हैं, जो टोरंटो में रहते हैं। फोन पर बातें होती हैं तो कहते हैं 'ओए धर्मेन्दर कैसा है..'। 
 
कॉलेज के दिनों में मैं बहुत शरारती था और रमेश को हाथों में उठा लेता था। रमेश के अलावा एक और दोस्त है ढांडा। उससे भी बातें करता हूं। इसके अलावा और कोई नहीं है, जिसे मैं अपना दोस्त कह सकूं। असल में मैं बहुत खुद्दार किस्म का इंसान हूं। जो लोग खुद्दार होते हैं, उनके साथ 'खुदा' होता है। जिनसे मेरी नहीं बनती, मैं उनसे किनारा कर लेता हूं। मैं जीभर के मोहब्बत करता हूं और किसी से डरता नहीं हूं। मुंबई में मेरे घर में लंगर जैसा माहौल रहता है। इसका कारण ये है कि मेरी मां कहा करती थी कि जितनी ज्यादा देर तेरी रसोई जलती रहेगी, उतनी ज्यादा तुझे बरकत मिलती रहेगी...
 
कई लोग जिंदगी को प्लान करते रहते हैं कि वे ये करेंगे, वो करेंगे लेकिन मैंने कभी कोई योजना नहीं बनाई। मेहनत करता रहा और आगे बढ़ता रहा। 1975 में बनी फिल्म 'शोले' आज तक हर पीढ़ी में हर उम्र के लोगों को पसंद आती है। बेंगलुरु के समीप इसकी लोकेशन थी। वहां हम 2-3 महीने रहे। बहुत अच्छा वक्त बीता। मुझे तो यह पिकनिक जैसी लगी थी, जिसे मैं कभी भूल नहीं सकता।
 
फिल्म 'प्रतिज्ञा' में मुझ पर फिल्माया गीत 'मैं जट यमला पगला दिवाना' हिट हुआ और इसी पर हमने इसका सीक्वल बनाया। पहले वन और टू बने और अब इसके तीसरे संस्करण की शूटिंग हैदराबाद में चल रही है। मैं फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में ही यहां पर आया हुआ हूं।
 
मैं 'विविध भारती' का दीवाना रहा हूं और सालों से सुनता आ रहा हूं। न जाने कितने निजी रेडियो चैनल आ गए लेकिन कार में बैठते ही मैं विविध भारती लगा देता हूं। इससे मुझे मोहब्बत है। यह मेरे कानों में रस घोलती है। इसके कार्यक्रम सुनते ही मैं पंजाब में अपने गांव लौट जाता हूं। ये तो मेरी जान है।
 
'विविध भारती' के 60 साल पूरे होने के मौके पर मैं अपनी मोहतरमा को गीत सुनाना चाहता हूं...'जीत ही लेंगे बाजी हम तुम, खेल अधूरा छूटे ना, प्यार का बंधन टूटे ना..'। मैं सुनने वालों को यही संदेश देना चाहता हूं कि सब लोग मोहब्बत से रहें, दुनिया में बहुत सी बुराइयां हैं लेकिन आप हमेशा अपने मन पर अपनी आत्मा के  हस्ताक्षर लो। आत्मा की आवाज सुनो और वही करो। जहां रुह सहमत न हो, वहां कभी रहमत नहीं होती...
(सीमान्त सुवीर) 

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