दिग्गज फिल्मकार, चित्रकार और सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षक मुज़फ़्फ़र अली हाल ही में फिल्मफेअर के एडिटर-इन-चीफ जितेश पिल्लै के साथ “इन द रिंग विद फिल्मफेअर” शो के नए एपिसोड में दिखाई दिए। यह बातचीत सिर्फ एक इंटरव्यू नहीं बल्कि उनके जीवन, विचारों और कला के दर्शन का गहन आत्म-विश्लेषण था। मुज़फ़्फ़र अली का फिल्मी सफर उनकी बहुआयामी प्रतिभा का प्रमाण है। जहां उन्होंने गमन, उमराव जान, अंजुमन, ज़ूनी और जानिसार जैसी कालजयी फिल्में दीं, वहीं उन्होंने भारत की पारंपरिक कला, टेक्सटाइल, और सूफ़ी संगीत को भी वैश्विक मंच पर पुनर्स्थापित किया। उनकी संस्था रूमी फाउंडेशन के जरिए वे Jahan-e-Khusrau जैसे अंतरराष्ट्रीय सूफ़ी संगीत महोत्सव का संचालन करते हैं, जो कला, संस्कृति और आध्यात्म का संगम है।
कलकत्ता की गलियों से शुरू हुई कहानी
अपने जीवन की शुरुआत को याद करते हुए अली कहते हैं, “मैंने अपनी आत्मकथा ज़िक्र में बहुत कुछ लिखा है, लेकिन उसकी शुरुआत अलीगढ़ से कलकत्ता तक की मेरी यात्रा से होती है। अलीगढ़ जो कविता की नगरी है, वहाँ मैं विज्ञान पढ़ने गया था। फिर मैं एक विज्ञापन एजेंसी में काम करने लगा जहाँ सत्यजीत रे हमारे डायरेक्टर थे। मैंने उन्हें बहुत ध्यान से देखा और यहीं से मेरे भीतर फिल्म की लपटें उठीं।”
एअर इंडिया का दौर और गमन की तैयारी
अली बताते हैं कि जब वे गमन बना रहे थे, तब वे एअर इंडिया में कार्यरत थे। “एअर इंडिया की नौकरी मेरे लिए बहुत ऊंची चीज़ थी। इसने मुझे कला को प्रमोट करने की आज़ादी दी। कलाकारों को विदेश भेजने, कला खरीदने और फिल्मों के माध्यम से भावनाएं व्यक्त करने का अवसर मिला।”
उमराव जान और रेखा के साथ जुड़ाव
उमराव जान को लेकर उन्होंने बताया, “जब रेखा ने बिना शर्त इस फिल्म के लिए हामी भर दी, तो मैं चौंक गया। शायद उसने इस किरदार के पार देखा, दर्द और उम्मीद की कवयित्री को महसूस किया। वह केवल एक भूमिका नहीं निभा रही थीं, वह कवयित्री की आत्मा बन गई थीं।“
मुस्लिम सोशल टैग पर आपत्ति
मुज़फ़्फ़र अली का स्पष्ट कहना है, “मैं मुस्लिम सोशल जैसे टैग से असहमत हूं। यह सब सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है। हम सब एक ही गंगा-जमुनी तहज़ीब का हिस्सा हैं। उमराव जान में कहीं नहीं लिखा था कि यह सिर्फ मुसलमानों के लिए है। यह मिलन, मोहब्बत और जुड़ाव की संस्कृति है, जिसे तोड़ना नहीं चाहिए।”
आज के दौर की मार्केटिंग पर नजर
वे मानते हैं कि “आज स्टारडम और पहले से आज़माए गए टूल्स से फिल्मों को प्रमोट किया जाता है, जबकि हम कला से मार्केटिंग करते थे। गमन आज भी जिंदा है क्योंकि उसमें भावनाओं का अनुभव है।”
खुद को क्या सिखाना चाहेंगे?
अगर वो खुद के युवा संस्करण से मिलें तो क्या सिखाएंगे? “धैर्य, आत्मीयता, सौंदर्य की समझ और अनुशासन। किसी भी क्राफ्ट में डूबकर काम करने का अपना असर होता है और वही व्यक्ति की गहराई बनाता है।”
एक पिता की आत्मस्वीकृति
तीन बच्चों, मुराद, समा, और शाद अली (निर्देशक), के पिता मुज़फ़्फ़र अली एक कसक भी साझा करते हैं, “मेरे बच्चों की शिकायत रही कि मैंने उन्हें समय नहीं दिया। मैं जो दे रहा था, वही उनके लिए सही नहीं था। फिर भी, माफी का स्थान हर रिश्ते में होता है। मुराद को मुझसे कविता का प्रेम मिला, समा मेरे कपड़ा डिज़ाइन के काम को आगे बढ़ा रही है और शाद में संगीत और हास्य की जबरदस्त समझ है।”
मुज़फ़्फ़र अली का जीवन सिर्फ फिल्मों का नहीं, बल्कि संस्कृति, कला, परंपरा और संवेदना का जीवंत दस्तावेज़ है। उनके विचार हमें न केवल भारतीय सौंदर्यशास्त्र की गहराई से रूबरू कराते हैं, बल्कि यह भी सिखाते हैं कि सच्ची कला वह होती है जो जोड़ती है, तोड़ती नहीं।