एसटीडी-पीसीओ, डिलीवरी बॉय का काम करते-करते हीरो बन गया : हर्षवर्धन राणे

पलटन साइन करने के तीन घंटे बाद शूटिंग शुरू कर दी

रूना आशीष
'मेरा 'पलटन' की टीम को जॉइन करना किसी मोर्चे पर जाने से कम नहीं था। मैं मुंबई के पास बसे वसई में कैंपिंग कर रहा था और वहां कोई नेटवर्क नहीं है। मुझे भूख लगी थी तो हाईवे पर आना पड़ा और जैसे ही नेटवर्क में आया तो मुझे एक के बाद एक मैसेज आने लगे। उसमें से एक मैसेज था कि जेपी सर के ऑफिस में पहुंचो। ऐसा मौका मैं कैसे छोड़ता? मैंने बात की और अगले ही दिन ऑफिस पहुंच गया। वहां जाकर निधि मैम ने कहा कि मुझे फिल्म के लिए कास्ट किया गया है। मैंने किसी और एक्टर को रिप्लेस किया है। अब मुझे जेपी सर की फिल्म मिल रही है, वो भी दूसरी फिल्म के तौर पर, तो इससे बड़ी क्या बात हो सकती है? लेकिन इसके बाद मुझे निधि मैम ने कहा कि अब एक बड़ा बॉम्ब आप पर गिराया जा रहा है। आपको 3 घंटे के अंदर आउटडोर शूट के लिए निकलना होगा। आप अपने घर वालों को बता दो। मैंने निधि मैम को जवाब दिया कि 'ना तो गर्लफ्रैंड है, ना घरवाले, मैं तो ढाई घंटे में ही पहुंच जाऊंगा।'
 
हर्षवर्धन राणे जिन्हें आप 'सनम तेरी कसम' में पहले ही देख चुके हैं, वे अपनी दास्तान-ए-सिलेक्शन शेयर कर रहे हैं 'वेबदुनिया' संवाददाता रूना आशीष से...
 
घरवाले नहीं हैं मतलब?
मैं घर से भाग गया था और दिल्ली पहुंचकर मैंने एक एसटीडी-पीसीओ बूथ पर काम करना शुरू किया था। वहां मैं रजिस्टर संभालता था कि किसने कितनी देर तक कहां बात की? एक दिन एक साइबर कैफे के मालिक ने पूछा कि कितना कमाते हो? तो मैंने कहा कि 10 रुपए हर दिन का। उन्होंने कहा कि मैं 20 रुपया दूंगा, तो मैं साइबर कैफे में काम करने लगा। मेरी तो अंग्रेजी भी बहुत ही बुरी थी उस समय। फिर भी वहां 3 साल काम किया।
 
और क्या क्या काम किया आपने?
मैं एक डिलीवरी बॉय हुआ करता था। सामान पहुंचाता था। एक बार एक बाइक की कंपनी ने कहा कि हेलमेट पहुंचाना है। मैंने पार्सल लिया और दिए गए होटल के पते पर पहुंच गया और देखा कि ये जॉन अब्राहम का हेलमेट था। मैं जॉन से तब पहली बार मिला। यह सन् 2004 की बात है। सच कहूं तो मैं हीरो बनने के लिए ही भागा था घर से।
 
कोई तैयारी करनी पड़ी?
मैं तो बचपन से ही इस फिल्म की तैयारी कर रहा हूं। मेरे दादाजी ग्रेनेडियर थे, तो मैं ग्वालियर में केन्टोमेंट इलाके जाफना हाउस के सामने रहा करता था। हमारे घर में गन्स या हथियारों में काम आने वाले जो टूटे-फूटे औजार थे, वो पड़े रहा करते थे। हम उसी से खेला करते थे। मैं जिनका रोल निभा रहा हूं, वो तो जीवित नहीं हैं लेकिन उनकी भतीजी आई थीं मिलने, तो उन्होंने कुछ बातें बताईं। मुझे मालूम पड़ा कि वो बहुत एनर्जेटिक थे, तो मैंने भी कोशिश की कि मैं अपनी चाल-ढाल में उतनी ही एनर्जी डाल सकूं।
 
तो बचपन के माहौल का कोई फर्क पड़ा?
बचपन से हमने फायरिंग सीखी है, गन्स चलाई है। हमारे घर में मशीनों की भरमार थी। मुझे याद है कि हमारे घर में हमेशा ग्रीस की गंध भरी रहती थी। हम लोग मराठा हैं, तो शस्त्रों की पूजा भी करते हैं। 'पलटन' की कहानी 2 ग्रेनेडियर की कहानी है। जब हमने शूट शुरू किया तो मैंने अपनी बुआ को फोन लगाकर पूछा कि दादाजी किस ग्रेनेडियर में थे? तो बुआ ने बताया कि वो 9 ग्रेनेडियर में थे।
 

जब पहली बार वर्दी पहनी थी तब कैसा लगा था?
फौज में एक तरीके का ओवरकोट की तरह होता है पारखे। बहुत ऊंची क्वालिटी की ऊन होती है उसमें। हमारी दादी हर साल संदूकों से उसे निकालतीं, धोतीं और फिर सुखाने डाल देती थीं। हम सारे भाई-बहन इस काम में उनकी मदद करते थे। जब पारखे सूख जाते तो नैप्थलिन की बॉल डालकर उन्हें फिर सहेजकर रख दिया जाता। तब हम सोचते थे कि कब वो दिन आएगा कि हम इतने बड़े हो जाएंगे कि पारखे पहनेंगे। वो आकर्षण हम सब में था। जब लद्दाख में शूट करते समय यूनिफॉर्म पहनी तो बड़ा अच्छा लगा था। कामोफ्लाज तो हमेशा पहनी लेकिन जिस दिन मैंने पग पहनी अपने सिर पर तो बड़ा अनोखा लगा। ऐसा लगा कि मैंने ताज पहना हो। मुझे लगा कि जो रोल मैं अदा कर रहा हूं, उसे मैं सही तरीके से जी सकूं।
 
आपने कई तरह के काम किए कभी डिलीवरी बॉय, तो कभी पीसीओ वाले, कोई और काम बचा है?
मैंने फर्नीचर भी बनाया है। जब मैं साउथ में काम कर रहा था तो एक फिल्म के बाद कहा गया कि विलेन बन जाओ और मैं हमेशा से ऐसे रोल करने का ख्वाब देखता रहा हूं, जो लोगों को प्रेरणा दे। विलेन प्रेरणा नहीं देगा, तो मैं अगली फिल्म मिलने का इंतजार करने लगा और इसी बीच मैं कारपेंट्री करने लगा। नामपल्ली से लकड़ी या फर्नीचर का ढांचा लाता और उस पर काम करके उसे मैं बेचने लग गया। मैंने बहुत सारे काम किए हैं।

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