ऑटो की बजाय अब गाड़ी से कर रही हूं संघर्ष : रिचा चड्ढा

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एक सशक्त अभिनेत्री के रूप में रिचा चड्ढा ने अपनी पहचान बना ली है, बावजूद इसके उनका संघर्ष समा्प्त नहीं हुआ है। पेश है रिचा से बातचीत : 
क्या अब आपका संघर्ष खत्म हो गया है?
संषर्ष तो अब भी चल रहा है बस उसका रूप बदल गया है। पहले ऑटो से संघर्ष कर रही थी और अब अपनी गाड़ी से करती हूं। पहले फिल्म पाने के लिए भाग दौड़ कर रही थी, अब अपने काम को नया आयाम देने में श्रम लगा रही हूं। फिल्म इंडस्ट्री में होना मतलब लाइफ टाइम का संघर्ष। इसलिए ऐसा नहीं कह सकती कि कुछ फिल्मों की सफलता और प्रशंसा के बाद मेरा संघर्ष खत्म हो गया है। यहां हर फ्राइडे के बाद करियर का भविष्य निर्धारित होता है।
आपको सफलता टुकडों में मिली है। बीच के समय में हौसला कैसे बनाए रखा?
'ओए लकी लकी ओए' और 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' के बीच चार साल का गैप है। 2008 से 2010 तक का समय मेरे लिए काफी मुश्किलों भरा रहा। मेरे पास कोई काम नहीं था। उस दौरान मैंने अपने अंदर के कलाकार को जिंदा रखने के लिए थियेटर किए, नाटक किए। किसी काम को पाने का हौसला बनाए रखने के लिए जरूरी है कि उसमें आपकी रूचि लगातार बनी रहे। इसके अलावा आपकी हॉबिज और आपसे जुड़े लोगों की भी भूमिका महत्वपूर्ण होती है, जिससे आप निराशा में जाने से बच जाते हैं। मेरे मुश्किल दिनों में मेरे परिजनों का बड़ा सहयोग रहा। पैसे कम होने पर पैसे भेजे, मुझसे बातचीत में उन्हें कभी लगता था कि मैं   निराश हूं, तो वो मुंबई आ जाते थे।
 
 
ग्लैमर इंडस्ट्री में होकर भी ग्लैमरस हीरोइन की पहचान ना होने को लेकर कभी कसक होती है ?
हां, कभी-कभी ये कसक उठती है। इसकी वजह ये है कि ग्लैमरस रोल की फिल्में करने के कारण आपके पास कमाई करने के कई रास्ते आ जाते हैं। कई शोज, अपियरेंस के मौके मिलते हैं। ऐसा नहीं है कि मैं ग्लैमरस रोल की फिल्में बिल्कुल ही नहीं कर रही हूं। लेकिन उसको लेकर बहुत बेचैन नहीं हुई जा रही हूं। 'मसान' की सफलता के बाद कई लोगों ने मुझसे पूछा कि आप बड़े बजट की कमर्शियल फिल्में क्यों नहीं करतीं। मैं उन सभी से कहना चाहती हूं कि 'मसान' जैसी मीनिंगफुल अच्छी फिल्में और करना चाहूंगी।
 
जब पहली बार अभिनेत्री बनने का ख्याल आया, तो क्या वो ग्लैमर का आकर्षण था?
बचपन से ही मुझे लग रहा था कि मैं अभिनेत्री बनने के लिए ही बनी हूं। मेरे मन में आकर्षण ग्लैमर को लेकर ना होकर सिनेमा को लेकर था कि वो कौन सी बात है, जो बनावटी होते हुए भी इतना असरदायी है। ये बच्चे से लेकर बड़े तक सभी जानते हैं कि जो पर्दे पर दिख रहा है, वह बनाया हुआ है। फिर भी सभी उससे जुड़ जाते हैं।
 
फिल्म इंडस्ट्री में कभी ठगे जाने का अहसास हुआ?
हां, ये अहसास कई तरह के हैं। जैसे कुछ लोगों ने कोई काम देने का भरोसा देकर लटकाए रखा, लेकिन वो कोरा आश्वासन ही साबित हुआ। स्ट्रगल के दिनों में ऐसे कटु अनुभव होते रहते हैं, लेकिन यही अहसास हमें परिपक्व बनाते हैं। अब मैं लोगों पर अंधविश्वासी की तरह भरोसा नहीं करती हूं।
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