बासु चटर्जी को कला फिल्मों का निर्देशक कहा जाता था, तो उन्हें ऐतराज होता था। यदि उन्हें कमर्शियल सिनेमा का डायरेक्टर कहा जाए, तो भी उन्हें आपत्ति होती थी। दरअसल वे साठ-सत्तर के दशक के मध्यमार्गी सिनेमा के हमसफर रहे हैं।
उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी, गुलजार और सई परांजपे की तरह मध्यमार्गी सिनेमा को आगे बढ़ाया है। इन तमाम निर्देशकों ने भारत के मध्यम वर्ग को अपनी फिल्मों का आधार बनाया। फलस्वरूप उन्हें मध्यम वर्ग के दर्शकों का भरपूर समर्थन भी मिला।
हास्य-व्यंग्य का तालमेल
बासुदा की फिल्मों में कॉमेडी के साथ सटायर का जोरदार तड़का भी है। इसके पीछे का राज यह है कि वे अपने करियर के आरंभ में कार्टूनिस्ट और इलेस्ट्रेटर रहे थे। हिन्दी-अंग्रेजी साप्ताहिक 'ब्लिट्ज' में उन्होंने इन दायित्वों को लगभग बीस साल तक कुशलतापूर्वक निभाया।
1966 में बी.के. करंजिया एंड कंपनी के सहयोग से फिल्म वित्त निगम की स्थापना हुई तो समानांतर, सार्थक, नई लहर के सिनेमा की पहली फिल्म 'सारा आकाश' बनाने का निमंत्रण उन्हें मिला। यह फिल्म हिंदी कथाकार राजेन्द्र यादव की कहानी पर आधारित थी।
सत्यजीत राय से प्रभावित होने के कारण बासुदा ने इस फिल्म के कलात्मक पक्ष पर अधिक ध्यान दिया। नतीजा यह रहा कि फिल्म तो उम्दा बनी मगर टिकट खिड़की पर मार खा गई। इस फिल्म ने बासुदा को एक बेहतर फिल्मकार के रूप में स्थापित किया। यही वजह रही कि अपने तीस साल के फिल्म करियर में बासुदा एक से बढ़कर एक फिल्में बनाते रहे।
भूख और बेरोजगारी पर फिल्म नहीं
बासुदा ने कार्टूनिस्ट होने के नाते अपने रेखांकनों के जरिये गरीबी़, भूखमरी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार पर खूब तीखे प्रहार किए लेकिन इन समस्याओं को अपनी फिल्मों के फ्रेम में कभी शामिल नहीं किया। उन्होंने मध्यम वर्ग के जीवन में सुख तथा सुकून देने वाले पलों को अपनी फिल्मों के माध्यम से तलाशा था।
वे बुराई में से अच्छाई निकालने के लिए हमेशा बेचैन दिखाई दिए। उनके पात्र गंदी बस्तियों में साधारण-सा जीवन जीते जरूर हैं मगर वे अपने हर हाल में खुश हैं। अभावों से घिरी जिंदगी में वे आनंद प्राप्त करने के रास्ते खोज लेते हैं। उनकी फिल्मों में खलनायक प्राय: नदारद रहता था।
अजमेर से मुंबई तक का सफर
10 जनवरी 1930 को राजस्थान के अजमेर में जन्मे बासु चटर्जी पचास के दशक में मुंबई आए और पत्रकारिता के पेशे से जुड़ गए। बाद में फिल्मकार बनने का विचार इसलिए आया कि उन्होंने मुंबई में फिल्म फोरम नाम से फिल्म सोसायटी की स्थापना की। सोसायटी आंदोलन के जरिये दुनिया भर के सिनेमा से उनका नजदीकी रिश्ता बना।
ब्रिटिश फिल्मकार अल्फ्रेड हिचकॉक और उनके सिनेमा से बासुदा काफी प्रभावित थे। दर्शकों को फिल्म देखते समय हास्य-व्यंग्य का एक जोरदार झटका देना उनकी अपनी स्टाइल रही है। इसके साथ ही अपनी फिल्म में किसी ऐरे-गैरे किरदार की वेशभूषा में वे पल-दो पल के लिए परदे पर आते रहे। हिचकॉक भी ऐसा करते थे। आगे चलकर शोमैन सुभाष घई ने भी यह फॉर्मूला अपनाया था।
रजनीगंधा फूल तुम्हारे
अमोल पालेकर को हिन्दी-मराठी सिनेमा का हीरो बनाने का श्रेय बासुदा को है। 'रजनीगंधा' में उन्होंने कुरते-पायजामे और कोल्हापुरी चप्पल के साथ अमोल को जब परदे पर पेश किया, तो मध्यम वर्ग के दर्शकों ने तालियों की गूंज से सिनेमाघर भर दिया।
'रजनीगंधा' में साधारण-सी प्रेम कहानी है, क्षणभंगुर घटनाएं हैं। वे कभी भी किसी के साथ भी घट सकती हैं और व्यक्ति के जीवन को कहीं से कहीं ले जाकर छोड़ सकती हैं। 'रजनीगंधा' खत्म होने पर दर्शक की कई जिज्ञासाएं जागती हैं और वह अनेक सवाल लेकर घर लौटता है।
बासुदा की तीन दर्जन से अधिक फिल्मों में पिया का घर, रजनीगंधा, चितचोर, छोटी सी बात, खट्टा मीठा, स्वामी, बातों बातों में, शौकीन, एक रुका हुआ फैसला, कमला की मौत और चमेली की शादी हमेशा याद रहेंगी।
रजनी और कक्काजी
बासुदा ने दूरदर्शन के लिए भी बेहतर काम किया था। 1985 में दूरदर्शन पर प्रसारित सीरियल 'रजनी' दर्शकों में इतना लोकप्रिय हुआ कि यह एक प्रकार से एक आंदोलन बन गया। प्रिया तेंडुलकर जैसी हिम्मत वाली नायिका के जरिए देश के तमाम उपभोक्ताओं को सावधान करने वाला यह धारावाहिक बेमिसाल था।
'रजनी' देख कर महिलाएं दुकानों से सामान खरीदती और क्वालिटी घटिया होने पर दुकानदारों को सबक सिखाने के लिए तैयार रहती थीं।
मनोहर श्याम जोशी लिखित 'कक्काजी कहिन' में राजनीतिक भ्रष्टाचार और नेताओं का दोगला चरित्र उजागर किया गया था। 'दर्पण' धारावाहिक भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ कहानियों का गुलदस्ता था। 'ब्योमकेक्ष बक्षी' जासूसी धारावाहिक था। बासुदा ने बांग्ला फिल्मों का भी निर्देशन किया।
बासुदा की फिल्मों के कथानक हमेशा ताजगी भरे रहे हैं। उनकी फिल्मों को जब चाहे तब और चाहे जितनी बार देखा जा सकता है क्योंकि वे कभी बासी नहीं लगती।