लता मंगेशकर की पहली पुण्यतिथि पर पेश है ऐसी बातचीत जो उन्होंने किसी से पहली बार ही की थी

Webdunia
सोमवार, 6 फ़रवरी 2023 (11:43 IST)
लता मंगेशकर का यह इंटरव्यू 1988 में किया गया था। ऐसी बातचीत उन्होंने किसी से पहली बार ही की थी। यह ‘फिल्म‍ विशेषांक’ से लिया गया है। 
 
हमारे अंधेरों और हमारी उदासियों को बेधकर एक महीन आवाज पिछले कई दशकों से कानों के जरिये हमारे खून में शामिल होती रही है- उसी आवाज का नाम है- लता मंगेशकर। दरअसल लता मंगेशकर एक नाम न होकर जीवित आश्चर्य था जिसमें हिंदुस्तान की कई पीढ़ियां अपनी आत्मा के अकेलेपन को खोजती हैं। उस अकेलेपन को जो पीड़ा की पवित्रता में छटपटाता रहता है। क्या आपको नहीं लगता, लता मंगेशकर को सुनते हुऐ कि सब कुछ ठहर गया है। सिर्फ एक स्वर चल रहा है, ठीक वहां उसे उठकर, जहां से शब्द अपना ‘अर्थ’ ग्रहण करते हैं। कम-ज-कम उनकी गाई हुई लोरियां सुनकर तो यही लगता है जैसे हम अपनी उम्र और अनुभवों को छोड़कर एक उनींदे बच्चे की देह में सिमट गए हैं। कदाचित्‍ आवाज की ऐसी ममतालु तरलता को पाकर ही पॉल वेलेरी ने लिखा होगा- ‘आवाज के भी हाथ होते हैं, जो हमारी आत्मा तक पहुंचते हैं।‘ बहरहाल, लता मंगेशकर का स्वर भावनाओं और संवेदनाओं की एक अमूर्त थपथपाहट है। इस स्वर में अतीत की स्मृतियों को पुनर्जीवित करने का अपरिभाषेय सामर्थ्य है और भविष्य के आकारों को गढ़ने की अद्भुित शक्ति। लता मंगेशकर को सुमम व लोकप्रिय संगीत की मोनालिसा कहा जा सकता है, इसलिए अद्वितीय भी। नई पीढ़ियां आएंगी और आती रहेंगी,और उन सबके बीच उनकी यह आवाज संगीत के संसार के एक अनश्वर नागरिक की तरह शताब्दियों तक हरदम बनी रहेगी।

लता जी का सुर संगीत के साथ तो सप्तम की सीमा पर पहुंचता है लेकिन बोलती हैं तो उनके शब्द एक धीमी गुनगुन आहट की तरह आपको अपनी आत्मीयता से घेर लेते हैं। इतनी मृदुल, मितभाषी और व्यस्ततम कलाकार से लंबी बातचीत सतर्कता की परीक्षा भी थी। मुंबई पहुंचकर उनके आवास पर यह बातचीत हुई। इसका बातचीत का संयोजन किया सर्वश्री सुरेश गावडे, श्रीराम ताम्रकर और अभय छजलानी ने। 
 
दीदी फिल्मी दुनिया में प्रवेश किए आपको इतने साल हो चुके हैं। समय के लंबे इस दौर में कितनी ही गायक, गायिका, संगीतकार और गीतकार आए और पर्दे के पीछे चले गए। यह हमारा सौभाग्य है कि परिवर्तन के इस दौर की आप साक्षी हैं। संगीत का जीता जागता है इतिहास हैं आप। हम जानना चाहते हैं कि जब आपने फिल्मी दुनिया में कदम रखा तब कैसा माहौल था और कैसे थे लोग?
दरअसल फिल्मों में मेरा प्रवेश 1942 में हुआ है। उस समय तक मेरे पिताजी थे। उनके एक दोस्त थे जिनका नाम सदाशिवराव नेवरेकर था। उन्होंने मेरा गाना सुना था। मैं उन दिनों अपने पिताजी के साथ स्टेज पर क्लासिकल म्यूजिक के प्रोग्राम किया करती थी। जब मेरी उम्र 9 साल की थी तब गाना शुरू किया और मैं स्टेज पर गई। यह बात सबको मालूम थी कि मैं गाती हूं। सदाशिव राव ने जो कि मेरे पिताजी के साथ नाटकों में काम किया था उन्होंने आकर मेरे पिताजी को कहा कि लता उनके लिए एक गीत गाए।

वह पहला गीत आपका प्लेबैक था या अपने अभिनय करते हुए गीत गाया था?
यह मुझे ठीक से याद नहीं है कि वह मेरा प्लेबैक था या मुझे काम भी करना था। यह बात मार्च 1942 की है। पिताजी ने बड़ी मुश्किल से इस बात की इजाजत दी क्योंकि वे लड़कियों के फिल्म या स्टेज पर काम करने के बहुत खिलाफ थे। वह बहुत कंजरवेटिव थे। उस वक्त तक हमारे घर में इस स्नो या पाउडर वगैरह मना था। उन्होंने सिर्फ एक गाने की इजाजत दी। वसंत जोगलेकर की फिल्म थी ‘किती हसाल’। उस फिल्म में मैंने पहला गाना गाया था। उसके बाद पिताजी की मृत्यु हुई तो बात वहीं रुक गई।

विनायक मास्टर जो अभिभावक की तरह आपके जीवन में आए उन से किस प्रकार संपर्क हुआ?
जब पिताजी जीवित थे उसी दौरान मास्टर विनायक को मैंने अपना गाना सुनाया था। यह बात मेरे पिताजी को बहुत खराब लगी थी। पिताजी के साथ काम करने वाले जोशी नामक एक व्यक्ति थे। यह पिताजी को बगैर बताए चुपके से मुझे मास्टर विनायक के यहां ले गए थे। उन्होंने गाना सुन कर कहा था कि हमारी फिल्म में काम करो। यह बात जब पिताजी को मालूम हुई तो वे बहुत नाराज हुए थे। उनकी मृत्यु के बाद फिर मुझसे पूछा गया और मजबूरन मुझे पिक्चर साइन करना पड़ी। मेरी पहली फिल्म थी नवयुग प्रिंस की ‘पहली मंगलागौर’। स्नेह प्रभा प्रधान इसकी हीरोइन थी और शाहू मोडक हीरो थे। फिल्म में स्नेहा प्रभा प्रधान की बहन का मैंने रोल किया था। यह मेरी एक्टिंग का पहला कदम था और दो-तीन गाने भी मैंने गाए थे। इसके बाद विनायकराव ने यह कंपनी छोड़ दी और वह कोल्हापुर आए। कोल्हापुर में उन्होंने प्रफुल्ल पिक्चर्स नाम से संस्था शुरू की उस कंपनी में मैं जनवरी 1943 में आई थी। एक तरह से वह हमारी नौकरी जैसी थी क्योंकि कंपनी की जितनी फिल्में बनती थीं उनमें हम सबको छोटे-छोटे रोल करना होते थे।

उन दिनों आप का मुख्य लक्ष्य गाना था या फिल्मों में अभिनय करना?
मेरा मुख्य आकर्षण तो गाना ही था। एक्टिंग तो तब भी पसंद नहीं थी और अब भी नहीं है। मैंने जितनी भी एक्टिंग की है सब मजबूरी में की है। वह सारा समय हमारे परिवार के लिए बहुत बुरा गुजरा है। मुझे मलेरिया हो गया। दो-तीन साल तक बीमार रही। बीमारी की हालत में मैं काम भी करती थी। मेरे परिवार ने इसके पहले बहुत अच्छे दिन देखे थे। 80 रुपये महीने में जैसे तैसे हम लोग गुजारा करते थे। हम 5बजे भाई बहन और मेरी मां का परिवार था। इस दौरान भाई भी काफी बीमार रहा।

कोल्हापुर से मुंबई आने के क्या कारण रहे?
मास्टर विनायक ने कोल्हापुर में अपनी फिल्म कंपनी बंद कर दी और वह मुंबई आ गए। 1944 के आखिर में हम लोग भी उनके पीछे-पीछे मुंबई चले आए। मुंबई आकर विनायक ने सुभद्रा तथा मंदिर जैसी दो तीन फिल्में बनाई। उन्होंने शांताराम जी की भी एक फिल्म जीवन यात्रा डायरेक्ट की थी जिसमें मैंने रोल किया था। मंदिर फिल्म के समय से विनायक बीमार रहने लगे थे। उसके पहले उन्होंने मुझे बाहर जाने की इजाजत दे दी थी। बसंत जोगलेकर की फिल्म थी आपकी सेवा में उसमें मैंने दो गाने गाए थे। विनायक की मृत्यु के दसवे दिन मुझे काम मिला संगीतकार हरिश्चंद्र बाली के निर्देशन में। मैंने पहली बार प्लेबैक दिया। इसके पहले श्री रामचंद्र की फिल्म शहनाई में मैंने गाया भी था।

लेकिन फिल्मों में जिसे ब्रेक देना कहते हैं वह आपको संगीतकार गुलाम हैदर साहब से मिला?
जी हां जब मैं हरिश्चंद्र वाली साहब के यहां गाना गा रही थी तो वहां किसी ने मुझे सुना और गुलाम हैदर साहब को जाकर बताया कि एक नई आवाज है बहुत अच्छा गाती है। मास्टर गुलाम हैदर ने मुझे बुलाया। जब मैं उनसे मिलने गई तो उस समय उनकी फिल्म शहीद चल रही थी। उन्होंने मेरा गाना सुना उन्हें बहुत अच्छा लगा। दूसरे दिन आवाज टेस्ट करने के लिए बुलाया। उन दिनों आवाज टेस्ट करने का मतलब रिकॉर्ड करना था। आवाज रिकॉर्ड कर सुनी तो उन्हें अच्छी लगी। लेकिन फिल्मीस्तान के शशधर मुखर्जी साहब को आवाज अच्छी नहीं लगी और उन्होंने शायद यह कहा कि आवाज बहुत पतली है। नहीं चलेगी।

मुखर्जी साहब ने ऐसा शायद इसलिए कहा होगा कि उन दिनों मोटी आवाजों का चलन था जोहरा बाई नूरजहां सुरैया अमीरबाई का जमाना था वह।
नूरजहां तो चली गई थी उस वक्त तक। मगर जोहराबाई शमशाद भाई वगैरह ऐसे गीत गाती थी। इसलिए उन्होंने कहा कि यह आवाज तो बहुत पतली है। यह सही भी था क्योंकि मेरी उम्र भी बहुत छोटी थी। वैसे भी मेरी आवाज बहुत पतली थी। जो हीरोइन के लिए नहीं चलती। मास्टर गुलाम हैदर साहब ने लोकल ट्रेन के एक स्टेशन पर मुझसे गवाया और 555 सिगरेट के टीन पर उन्होंने ठेका दिया। यह किस्सा मैं कई बार बतला चुकी हूं और बहुत से लोगों को मालूम भी होगा।

कौन सा था वह पहला गाना?
मास्टर गुलाम हैदर साहब के लिए पहला गाना मैंने फिल्म मजबूर के लिए गाया था- दिल मेरा तोड़ा मुझे कहीं का ना छोड़ा, यह फिल्म 1948 में रिलीज हुई थी। इसके बाद मुकेश भैया मेरे पास आए और कहा कि नौशाद साहब तुम्हें लेना चाहते हैं। मैंने मुकेश भैया से साफ कहा था कि मैं गाना नहीं सुनाऊंगी।  हर जगह ट्रायल देना मुझे पसंद नहीं है। मुकेश जी ने पलटकर कहा था कि तुम्हारी ट्रायल कौन लेगा। उन्होंने शायद नौशाद साहब को यह बात बता दी होगी। दूसरे दिन नौशाद साहब से मुलाकात हुई। उन्होंने बड़ी खुशी जाहिर की और कहा कि अच्छा हो आप दो लाइन हमें भी सुना दे। हम आपकी आवाज सुनना चाहते हैं। मैं समझ गई थी कि यह ट्रायल ही है। मैंने कुछ कहा नहीं और एक गाना सुना दिया। फिर उन्होंने गजल सुनाने को कहा। शायद यह देखना चाह रहे थे कि उर्दू के मेरे उच्चारण कैसे हैं। मैंने उन्हें वह गजल सुनाइ जो श्याम सुंदर जी के लिए फिल्म लाहौर में गा रही थी। उसके बाद नौशादजी ने मुझे अपनी फिल्म के लिए गाना गाने का निमंत्रण दिया। उनके लिए पहला गाना मैंने फिल्म चांदनी रात के लिए गया था। वो युगल गीत था। जब गाना रिकॉर्ड हो रहा था तो नौशाद साहब बीमार पड़ गए। उनके असिस्टेंट थे गुलाम मोहम्मद साहब। उन्होंने गाना रिकॉर्ड किया। उसके बाद मैंने दुलारी पिक्चर में गाने गाए और फिर अंदाज में। इसी बीच लाहौर बाजार में श्याम सुंदर जी के साथ, खेमचंद प्रकाश जी के साथ जिद्दी और आशा नामक फिल्म में भी मैंने गाने गाए। हुस्नलाल भगत राम के लिए फिल्म बड़ी बहन में यह गाने गाए थे चले जाना नहीं नैन मिलाके और चुप चुप खड़े हो जरूर कोई बात है।

सफलता का यह सारा सिलसिला तेजी से एक संयोग बनकर आप से जुड़ गया। इसे किस तरह स्वीकार किया आपने?
जी हां, एक सफलता एक साथ सफलता का यह सिलसिला शुरू हुआ। पहले मजबूर रिलीज हुई। उसके बाद अंदाज और बरसात का नंबर आ गया। शंकर जयकिशन से मुलाकात हुई। अनिल विश्वास जी के साथ भी गाने शुरू किए। गर्ल स्कूल उनके साथ पहली फिल्म थी। उसके दो गाने रिकॉर्ड हुए थे कि निर्माता से अनिल जी का झगड़ा हो गया। उन्होंने यह पिक्चर छोड़ दी। उसके बाद खिड़की फिल्म आई। यहां तक आते-आते लगभग सभी संगीत निर्देशकों के साथ मैं गाने लगी थी, लेकिन अंदाज रिलीज होने के साथ ही मेरा नाम खूब हुआ और बरसात से तो मैं चोटी पर चली गई। इस सफलता को पाने में ज्यादा देर नहीं लगी। 1947 में विनायक की मृत्यु हुई किंतु 1949 तक पूरा देश मुझे पहचानने लग गया। गानों के ऑफर इतने मिलने लगे कि सुबह यहां, दोपहर को वहां, शाम को और कहीं। मैं सुबह घर से छह बजे निकलती थी और रात को 3-4 बजे घर पहुंची थी। ज्यादातर ट्रेन में बैठ कर जाना पड़ता था कभी-कभार किसी से लिफ्ट ले लिया करती थी।

दीदी यह बताइए कि उन तमाम संगीतकारों का क्या हुआ जो आपकी आवाज को पतली बताते थे और कहते थे कि हीरोइन को सूट नहीं होगी?
वह सब के सब तेजी से बदल गए। मेरी आवाज सबसे अलग थी इसमें कोई शक नहीं। शायद आवाज की ताजगी को संगीतकारों ने महसूस किया होगा। वैसे उस समय के गाने वालों की अपनी शैली थी। जैसे गीता दत्त की आवाज बड़ी टिपिकल थी। सब से नुकीली आवाज शमशाद बाई की थी। हर गाने का उनका अपना ढंग था। जोहरा बाई की आवाज काफी मोटी थी। इन सब ने मेरी आवाज बिल्कुल अलग थी।

यदि यह कहा जाए कि हीरोइन आपकी आवाज से पहचानी जाने लगी और आपकी आवाज एक स्टैंडर्ड बन गई तो कैसा लगेगा आपको?
यह तो आप लोगों पर निर्भर है कि आप क्या सोचते हैं। मगर मेरे आने के बाद काफी कुछ जो परिवर्तन हुआ वो यह संगीतकार मेरे लिए अलग से गाने बनाने लगे। जैसे शंकर जयकिशन के संगीत का बहुत बड़ा रेंज था। उन्होंने हर टाइप के गाने दिए। संगीत में अलग-अलग स्टाइल को अपनाया। सिर्फ राज कपूर की फिल्में ही नहीं उनके अलावा उन्होंने जितनी फिल्मों में संगीत दिया एक से बढ़कर एक था। उनका संगीत सचमुच में अनोखा था। अनिल विश्वास अपना अलग प्रकार का संगीत लेकर आए थे। नौशाद साहब के संगीत में क्लासिकल टच के अलावा लखनवी नजाकत भी मिलती है। वसंत देसाई सलील चौधरी बर्मन दादा रोशन मदन मोहन जयदेव जी जैसे तमाम संगीतकारों के संगीत का अपना ढंग और अपनी शैली थी।

लेकिन दीदी आज तो सब कुछ बदल गया है। नए चेहरे आ गए हैं। नए वाद्य यंत्र और नई नई शैलियां चल पड़ी है। क्या आप भी इस बदलाव को महसूस करती हैं?
आज मैं तो यह महसूस करती हूं कि संगीतकारों के दायरे सीमित हो गए। 2-4 म्यूजिक डायरेक्टर ही ऐसे हैं जो पुरानी परंपराओं को कायम रखे हुए हैं। कुछ वेस्टर्न म्यूजिक पर चल रहे हैं। कोई है जो शंकर जयकिशन जैसा लगे या बर्मन दादा जैसा? गायकों में भी यही स्थिति है। मुकेश रफी किशोर जैसा भी कोई नहीं। मैं तो यह मानती हूं कि ईश्वर किसी को बनाता है तो एक ही बनाता है। यदि हजार मुकेश निकले तो फिर मुकेश को कोई पूछेगा नहीं। रफी साहब जैसे गाने वाले आजकल बहुत हैं पर रफी कोई नहीं है। कोई अगर कहता है कि रफी साहब उन्नीस गाते थे तो कोई ऐसा भी आ सकता है जो बीस या इक्कीस हो। मगर उन्नीस कोई नहीं आएगा। यही जाकर हम ईश्वर को मानते हैं।

आप लोग मुंबई में बैठकर ओरिजिनल धून बनाते हैं। गीत गाते हैं। बार-बार रिहर्सल करते हैं। लेकिन दिल्ली में बैठे नए गायक गायिका उनकी गीतों तथा धुनों की नकल कर कवर वर्शन के नाम पर संगीत को प्रदूषित कर रहे हैं।इससे श्रोताओं की नई पीढ़ी गुमराह हो रही है। आप लोग मिलकर इसे रोकने की कोशिश क्यों नहीं करते?
मैं आपको असल बात बताऊं। ऐसे प्रयासों से कुछ लोगों ने हमारे म्यूजिक को बहुत ही गंदा कर दिया है। उसने पायरेसी से बहुत पैसा कमाया। पैसा कमाना बुरी बात नहीं है पर आप किसी का नुकसान कर जब पैसा कमाते हैं तो वह पैसा आज अगर फल भी रहा हो तो आगे फलेगा नहीं। आप अगर देवी के भक्त हैं तो आप वही काम कीजिए जो एक भक्त को शोभा देता है। व्यवसाय के ऐसे तरीकों ने एचएमवी का नुकसान किया है। नुकसान हमारा भी हुआ है लेकिन मेरा नुकसान बहुत बड़ा नुकसान इसलिए नहीं है कि मैं और भी फिल्मों में गाती हूं। पर जो छोटे-छोटे आर्टिस्ट है उनका तो नुकसान हुआ है। उनका सत्यानाश किया है इन लोगों ने। हम इन से लड़ाई क्या लड़ सकते हैं जब कोई रोकने वाला ही नहीं है। ऐसे व्यवसाई इतना ओपनली कहते हैं कि अच्छा आप हमारे यहां नहीं गाएंगे तो हम आप के बाहर के गानों की पायरेसी करके उसे बेचेंगे। एचएमवी यदि आप का रिकॉर्ड रुपये 80 में बेचती है तो हम एकदम कम मूल्य में बेचेंगे। यानी देखिए कितने नीचे आदमी आ सकता है इससे मालूम होता है। यह लोग हमारे साथ यह कर रहे हैं कि गाना कोई भी आर्टिस्ट गा रहा है कैसेट के ऊपर में फोटो मेरी है। मेरे पास ऐसे कैसेटो के सबूत हैं। ऐसे व्यवसायियों के लिए मैंने भी गाया है पर हमने गाने नए बनाकर गाएं हैं।

दीदी जैसा कुछ देर पहले आपने कहा कि रफी होंगे तो एक ही होंगे या मुकेश होंगे तो एक ही होंगे आपके बारे में भी तो यह बात कही जा सकती है कि भगवान ने आपको आवाज का उपहार दिया बदले में आप ने आवाज को उपहार बनाकर भगवान को अर्पित कर दिया इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगी?
मैं तो यह मानती हूं कि जो आवाज भगवान ने मुझे दी है। वह उनकी नियामत है जो आवाज बख्शी है मुझे। उसके जरिए तो मैंने पैसा कमाया है फिल्मों में गाने गाए हैं। कभी चीप गाने भी गाए होंगे कभी अच्छे गाने भी गाए होंगे पर मैं अपनी तरफ से कोशिश यह करती हूं कि जो उसने मुझे यह उपहार बख्शा है उसके जरिए मैं उसको भी कभी-कभी याद करूं। मुझे वाकई भजन गाने में ज्यादा अच्छा लगता है। जब मैं गाना गाती हूं तो यह नहीं देखती कि मुझे पैसे कितने मिलेंगे। पहले पैसे लाओ फिर गाना गाओ यह मैंने आज तक कभी किया नहीं और मैं यह समझती हूं कि यह सब उसने मुझे दिया है। जब उसकी इच्छा होगी सब एक साथ वसूल कर लेगा। इसलिए मैं अपना कोई बड़प्पन नहीं समझती। मैं तो कुछ नहीं हूं। जब तक उसकी इच्छा है वह मुझसे गवाएगा। जिस दिन उसकी इच्छा नहीं होगी यह बात नहीं रहेगी। रहेगा हमेशा उसका नाम मेरा नहीं। लोग आगे भी यही कहेंगे कि भगवान ने लता को आवाज का उपहार दिया था। मैं अपने मां बाप का आशीर्वाद समझ सकती हूं। उनकी वजह से मैंने दुनिया देखी है या भगवान की भी इच्छा रही होगी कि मैं इतना काम करूं या इससे भी ज्यादा काम। मैं यह मान कर कर रही हूं कि मैं कुछ नहीं हूं।

सन 1945 से लेकर 1965 तक इन 20 सालों में हिंदी फिल्मों का गीत संगीत अच्छा चलता रहा। उसमें मेलोडी बनी रही। भाव भी कायम रहे। इसके बाद के वर्षों में इलेक्ट्रॉनिक रिवॉल्यूशन हुआ। नए वाद्य यंत्र आए। ऑर्केस्ट्रा का विकास हुआ। इससे गायक गायिकाओं की स्थिति में बदलाव आया। उन्हें कम महत्व दिया जाने लगा। इसके साथ ही फिल्म संगीत का स्तर भी गिरता चला गया। गीतों की संख्या कम हो गई। अच्छे गायक भी नहीं रहे। रेडियो टीवी या एचएमवी कंपनी भी उन्हीं 20 सालों के गाने ज्यादा बाहर ला रही है या गीत-संगीत का स्वर्ण युग इसी दौर में सिमट कर रह जाएगा?
जी हां या मेरा भी अनुभव है। मैं जहां कहीं बाहर जाकर प्रोग्राम करती हूं श्रोताओं की जो फरमाइश आती है वह सब पुराने गीतों की होती है। पुराने गाने हम गाते हैं तो लोग एक बार नहीं 10 बार सुनना पसंद करते हैं। नए गानों की बहुत कम फरमाइश होती है। लेकिन संगीत की दुनिया में जो पहले नहीं हुआ है वह अब हुआ है। मैं इसके लिए किसी को दोष नहीं देती। किसी संगीतकार को दोष नहीं देती क्योंकि उनको भी सब करना पड़ता है। उन्हें कहा जाता है कि भाई हमें ऐसा चाहिए तो वह ऐसा दे देते हैं। संगीतकार भी बहुत कम हो गए। अच्छे संगीतकार जो थे वे अब इस दुनिया में नहीं है। जो है उनके पास काम भी नहीं है। मैंने हाल में सुना कि किसी म्यूजिक डायरेक्टर ने नौशाद साहब के बारे में बहुत खराब बातें कही है। मुझे बड़ा दुख हुआ। उन्होंने यह कहा कि नौशाद साहब तो एक गाना रिकॉर्ड करने के लिए 15 या 20 दिन लगाते थे। तब गाना बनता था और हम हैं कि आज 20 दिन में 20 पिक्चरों का म्यूजिक कर लेते हैं और वो यह कहते समय यह भूल गया कि नौशाद साहब का एक गाना जो होता था वह 20 साल तक लोग सुनते थे और इनकी जो 20 फिल्में बनती है वह लोग 20 दिन भी नहीं सुनते बल्कि 20 मिनट भी सुनना पसंद नहीं करेंगे। नौशाद साहब के म्यूजिक या अनिल बिश्वास, सलिल चौधरी, मदन मोहन या बर्मन दादा जैसे जो भी बड़े संगीतकार थे वो लोग अपनी आत्मा के संगीत में डालकर संगीत रचना करते थे और यह लोग दूसरे लोगों के रिकॉर्ड लाकर उन्हें सुनते हैं और कॉपी करते हैं।

आपने तेज गति वाले गीत कम गाए हैं। मसलन फिल्म दामन में चकोरी का चंदा से प्यार या फिर सीमा में- बात बात पर रुठ ना या टैक्सी ड्राइवर में यह मेरी जिंदगी। इनके सुरीलेपन के बारे में दो राय नहीं हो सकती। फिर इस शैली को आपने जारी क्यों नहीं रखा?
नहीं ऐसी बात नहीं है। फास्ट सॉन्ग तो मैंने कई गाए हैं। यह बात अलग है कि इन गानों की शब्दावली ऐसी थी जो लोगों की जुबां पर हमेशा के लिए चढ़ी। शंकर जयकिशन के संगीत में आपने सुना होगा जिया हो जिया कुछ बोल दो वह बहुत फास्ट सॉन्ग था और ऐसे गीत मैंने बहुत गए हैं। कुछ गाने अपनी ट्यून के कारण भी लोगों को बहुत अपील करते हैं।

फिल्म अनुराधा में पंडित रविशंकर जी का संगीत था। उनके निर्देशन में आपने गीत गाए थे। इतनी महान हस्ती के साथ गाते हुए आपके मन में कहीं कुछ भय जैसा महसूस हुआ?
रविशंकर जी इतने बड़े कलाकार हैं कि उनसे भय जैसा तो कुछ नहीं लगा परंतु जब मैं रिहर्सल के लिए गई तो यह भय लग रहा था कि वह कैसे मुझे बताएंगे। क्या वह जो कहेंगे उसे गाने में मुझे तकलीफ तो नहीं होगी। थोड़ा सा अंदर डर तो था मगर उनसे मिलकर और रिहर्सल करने के बाद वह डर भी दूर हो गया। उन्होंने इतने प्यार से सिखाया। उनके रिहर्सल करने की स्टाइल थी। वे खुद गले से गाकर बतला रहे थे। अच्छा गाते हैं। मुझे वह सब अच्छा लग रहा था। मैंने कोशिश भी यही कि कि जैसा वह बतला रहे हैं वैसा ही मैं गांऊं। भगवान की कृपा से और मेरे पिताजी के आशीर्वाद से तथा रवि शंकर जी के आशीर्वाद से वह गाने मेरे अच्छे हुए और चले भी। आज भी मैं वह गाने सुनती हूं तो मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।

फिल्म बसंत में पन्नालाल जी घोष की बांसुरी के साथ स्वर मिलाकर आपने गीत गाए हैं। बांसुरी कोमल सुर का वाद्य है। गायक को स्वर विस्तार में काफी कठिनाई होती है। आपके अनुभव क्या रहे हैं?
यह तो वैसे फिल्म का गाना था। पन्ना दा ने मेरे साथ दो-तीन गानों में बांसुरी बजाई थी। मुझे लड़की कहते थे। उन्हें मुझसे बहुत प्यार था। अनिल दा की बहन पारुल उनकी पत्नी थी। पारुल जी का गाना मुझे बहुत पसंद था। जब भी प्लेबैक देती थी तो मैं उनको बहुत पसंद करती थी। पन्नालाल जी मुझे हमेशा बेटी कहते थे इसलिए उनके साथ गाने में मुझे कभी कोई मुश्किल नहीं गई। पर उस्ताद अली अकबर जी के साथ सुनो छोटी सी गुड़िया की लंबी कहानी गीत के समय उन्होंने सरोज बजाया था तो मुझे बड़ा डर लग रहा था। मैं पहली बार उनकी संगत में गा रही थी। तो गाना कैसा होगा यह सोच रही थी। भगवान की दया से वह गाना भी बहुत अच्छा हुआ। फिर उनके म्यूजिक डायरेक्शन में मैंने गाया। उन्हें मैं राखी बांधती थी और उनके साथ कभी कोई मुश्किल नहीं हुई। यह सब लोग जो मिले बहुत ही संत किस्म के थे। जितने हमारे पुराने म्यूजिक डायरेक्टर थे यह हमारे क्लासिकल गाने या बजाने वाले लोग थे। वह लोग कुछ अलग थे। उनके बजाने में इतना सुरीलापन था तो ऐसा लगता था जैसे उनके हाथ में भगवान बैठे हैं या गले में भगवान बैठे हैं। उनकी आत्मा भी बड़ी पवित्र थी। मैं मानती हूं कि यह लोग इतना प्यार करते थे और इतनी इज्जत देते थे हम लोगों को जबकि हम उनके सामने क्या थे। कुछ भी नहीं थे। एक इंदौर के अमीर खान साहब थे जब भी मिलते बड़े प्यार से मिलते थे। मैंने कुछ महीने अमानत खां से सीखा। वे देवास के थे। मुझे हमेशा बेबी कहकर बुलाते थे। बिठाकर प्यार से सिखाते थे। अमान अली साहब भिंडी बाजार वालों से भी सीखा था। वह तो मेरे लिए कागज में लपेट कर आमलेट और ब्रेड लाते थे। पास बैठा कर खिला करते थे। इतना प्यार करते थे। उसी तरह उस्ताद बड़े गुलाम अली खान साहब बेटी कह कर अपने पास बुलाते थे। यह लोग ऐसे थे जिनमें पवित्र प्यार था। अली अकबर जी, रवि शंकर जी और विलायत खां तो मुझे बहन बहन का कर बुलाते थे। इन सब लोगों को मैं भगवान के लोग मानती हूं। आज जैसे जसराज जी हैं। वह भी भले और अच्छे आदमी हैं। जितने भी लोग मिले हैं उन्होंने मुझे बहुत प्यार दिया है। इसी प्रकार म्यूजिक डायरेक्टर में नौशाद साहब, अनिल दा, मदन मोहन जी, जय देव जी जैसे तमाम लोग इंसान के रूप में मिले हैं। मजहरू साहब हैं हमारे, जो गाने लिखते हैं, वह भी हमेशा मुझे बेबी-बेबीकहकर ही बुलाते थे। बड़े गुलाम अली खान साहब के शिष्य थे पंडित तुलसीदास जी शर्मा, उनसे में नियमित सीखती थी।

बचपन में आपको गिल्ली डंडा खेलने का शौक था जो आज क्रिकेट के शौक में बदल गया है। और कौन-कौन से खेलों में आपकी रूचि रही है?
गिल्ली डंडा तो हम बचपन में बहुत खेलते थे और इस वजह से हमने मार भी बहुत खाई है मां की। पिताजी तो कभी मारते नहीं थे। मगर मां ने बहुत पीटा है मुझे। एक गिल्ली डंडा और दूसरे अंटी बहुत खेली है हमने। क्रिकेट के शौक के बारे में आपको पता है। हमारी कंपनी में क्रिकेट की एक टीम थी। मेरे पिताजी भी क्रिकेट खेलते थे। कभी-कभी हजारे साहब, नायडू साहब भी आते रहते थे। यह सब मैंने सुना है अपनी आंखों से देखा नहीं है। मेरे फूफा भी खेलते थे। हमारी कंपनी के सामान के साथ क्रिकेट का एक बक्सा भी चला करता था। मेरी मां को भी क्रिकेट का बहुत शौक था। सिर्फ देखने का। जब भाई हृदयनाथ बड़ा हुआ तो उसे भी शौक लगा। मगर पांव की बीमारी के कारण वह खेल नहीं सका। जब हम बड़े हुए तो घर आने वाले क्रिकेट सितारों से मिलते जुलते थे। यह सब लोग हमारे घर आते थे। विनू मांकड, इंदौर के मुश्ताक अली साहब, निंबालकर साहब, अजीत वाडेकर, मांजरेकर सब आते थे। वीनू तो मुझे हमेशा दीदी दीदी कह कर पुकारते थे। क्रिकेट का शौक इस तरह शुरू से रहा। जब मेरी हालत अच्छी नहीं थी यानी मैं मास्टर विनायक के यहां नौकरी करती थी तब मैं स्टेंड में बैठकर क्रिकेट मैच देखा करती थी। मैंने लगभग सभी क्रिकेटरों को देखा है खेलते हुए।

इंदौर से मंगेशकर परिवार के शुरू से आत्मीय संबंध रहे हैं। इंदौर की जनता चाहती है कि मंगेशकर परिवार की कोई स्थाई धरोहर मसलन नाटक घर आदि इंदौर में कायम हो। आपका सहयोग और आशीर्वाद किस रूप में मिल सकता है इंदौर को?
देखिए इंदौर में मेरा जन्म हुआ है इंदौर मुझे हमेशा ही अच्छा लगता है। इंदौर में मेरी मौसी भी थी। मैं उनके यहां हमेशा आया करती थी। मौसी के निधन के बाद मेरा इंदौर आना बंद जैसा हो गया। वरना मैं हर साल आती थी और इंदौर मुझे बहुत पसंद था। अब तो इंदौर बहुत बड़ा शहर हो गया है। पुरानी जगह वैसी नहीं रही है। इससे मुझे बड़ा दुख होता है। मैं आपको यह सच्ची बात कह रही हूं। फिर भी ऐसा कहते हैं कि जहां इंसान का जन्म होता है वह जगह उसे अच्छी लगती है। वहां जाकर उसे सुकून भी मिलता है। अगर कभी मेरे पिताजी के नाम से कोई भी चीज बनाने का प्रस्ताव आया तो मैं सबसे आगे रहूंगी। मुझसे जो भी होगा वह मैं करने के लिए हमेशा तैयार हूं।
कुछ ऐसे भी गीत आपने गाए होंगे जो गा तो दिए लेकिन आज उनके गाने पर अफसोस होता है कि ऐसे गीत नहीं गाना चाहिए थे।
ऐसे गीत बहुत हैं। क्या होता है कि कई बार म्यूजिक डायरेक्टर का ध्यान रखना होता है। उन्हें एकदम से ना नहीं कह सकते। यदि बोल खराब नहीं हो और ट्यून थोड़ी खराब भी हो तो हम लोग गा देते हैं। मेरा एक गाना ऐसा है जो पहले भी पसंद नहीं था और आज भी पसंद नहीं है। वह है ‘मैं का करूं राम मुझे बुड्ढा मिल गया’। ना मुझे इसके बोल पसंद आए और ना गाना पसंद आया। पर मैंने गाया। उस वक्त राज कपूर साहब से मेरा झगड़ा भी हो गया था। मैंने उनसे कहा था कि यह गाना आप मुझसे क्यों गवा रहे हो? उन्होंने कहा था कि सिचुएशन ऐसी है। गाना तो गा दिया मगर मुझे कभी पसंद नहीं आया इस गुस्से में मैंने आज तक संगम भी नहीं देखी है।

आपके बारे में अक्सर ऐसा कहा जाता है कि आपका जीवन और सारी कोशिशें आधुनिक मीरा की इमेज देती है। इस पर कभी आपने कोई टिप्पणी नहीं की है। हम चाहते हैं कि आप कुछ कहे।
मैं तो अपने आप को आधुनिक मीरा नहीं मानती हूं क्योंकि मीरा तो महान थी। मैं ऊँचे दर्जे की की संत ही नहीं संत शिरोमणि थी। उनकी हम क्या बराबरी कर सकते हैं। एक बात है कि हर इंसान की अपनी एक पसंद होती है। वैसे मेरा भगवान श्री कृष्ण या संतो में बहुत सारे संत हैं जिनकी तरफ मेरा मन बहुत खिंचता है। मीरा मुझे बहुत पसंद है। मगर मैं मीरा बनने की कभी कोशिश नहीं करती क्योंकि मुझे मालूम है कि वह मैं बन नहीं सकती

आपने जब होश संभाला तब लड़कियों और महिलाओं को आजादी नहीं थी। उन्हें घर में दबाकर रखा जाता था। आज तो सभी प्रकार की आजादी सबको है। इस बदले हुए माहौल पर आपके क्या विचार हैं?
आजादी अच्छी है। लड़कियों के लिए पर बहुत आजादी जो होती है उसके मैं पक्ष में नहीं हूं। हालांकि हमारे घर में अब बच्चे हैं। हमने भी उन्हें आजादी दी है। पर मुझे किसी हद के बाहर जो कुछ होता है वह अच्छा नहीं लगता। मैं थोड़ी ऑर्थोडॉक्स हूं। मैं चाहती हूं कि एक मर्यादा रहे। हमारे यहां पहले बहू को बहुत सताया जाता था। तंग किया जाता था। हस्बैंड भी मारपीट करते थे। कई घरों में ऐसा जो होता था। वह भी अच्छी बात नहीं थी। आज जो चल रहा है कि जैसी लड़की की मर्जी हुई वैसा वह कर लेती है। यह भी मुझे अच्छा नहीं लगता।

पुराने समय में फिल्मी कलाकारों के बजाय कंपनियां प्रधान होती थी। हर कंपनी का अपना ट्रेंड था। उन दिनों एक्टर के लिए सिंगर होना भी जरूरी था। लेकिन धीरे-धीरे सब दृश्य बदल गए हैं। यह कैसा अनुभव रहा आपके लिए?
संगीत में जो परिवर्तन आए हैं उनके बारे में मेरी बात सुनिए। जब हम छोटे थे तो गाने आते थे- मैं बन की चिड़िया बन बन डोलू रे, एक अलग ही ढंग था गाने का। प्रभात फिल्म कंपनी थी- सुनो सुनो बन के प्राणी, जैसे गीत आते थे। न्यू थियेटर था तो उसके संगीत में पूरा बंगाली माहौल था। महाराष्ट्र की प्रभात में पूरा मराठी प्रभाव था। मुंबई के म्यूजिक में बंगाली मराठी पंजाबी का मिक्स म्यूजिक था। मैं उसको बहुत अच्छा म्यूजिक नहीं मानती हूं। उन दिनों एक और मुश्किल थी कि जो काम करते थे वही गाते थे। यह जरूरी नहीं है कि जो अच्छा आर्टिस्ट हो वह अच्छा सिंगर भी हो। देविका रानी जैसी सिंगर थी। वह अपने हिसाब से गाती थी। शांता आप्टे, सज्जन, जुबेदा जैसे कई नाम थे जो गा रहे थे और सब चल रहा था। जब अनिल विश्वास जी आए तो उन्होंने अलग ढंग का म्यूजिक शुरू किया। जैसे औरत, किस्मत बसंत। इन सबसे हटकर जो संगीत आया था वह था गुलाम हैदर साहब का। खजांची खानदान जैसी उनकी जो फिल्में आई तो उन्होंने पंजाब के म्यूजिक को पेश किया। वह म्यूजिक एकदम से लोकप्रिय हुआ और म्यूजिक की दुनिया ही बदल गई। फिर नौशाद साहब ने रतन, अनमोल घड़ी, अंदाज में कमाल दिखाया। बीच में बसंत देसाई ने अपने संगीत की धारा बहाई। सी रामचंद्र, भगत रामल चंद्र प्रकाश, सज्जाद, मदन मोहन जैसे कई संगीतकारों का योगदान था। सलिल चौधरी, बर्मन दादा जैसे लोगों ने मिलकर फिल्म संगीत को अपने-अपने ढंग से नई दिशाएं दी।

शंकर जयकिशन साहब के साथ संगीत के साथ राज कपूर का नाम भी जोड़ा जाना चाहिए क्योंकि राज साहब की संगीत की समझ अद्भुीत थी। वह उनसे कई धुनें या संगीत के टुकड़े बनवाया करते थे।
यह मैं मानती हूं और मैंने भी यह बात कही है। पर क्या है कि राज कपूर की म्यूजिक की जो समझ थी वह उनकी पिक्चरों तक ही सीमित थी। शंकर जयकिशन ने उनकी फिल्मों के अलावा जो म्यूजिक दिया है वह उनसे भी अच्छा है। उन्होंने हटके संगीत दिया है। 

महान कलाकारों की तालिका में आप एकमात्र हस्ती हैं जिनके प्रधानमंत्रियों और उनके परिवारों से आत्मीय संबंध रहे हैं। कृपया इसकी वजह भी बताइए और यह भी बताइए कि आपने इतने मधुर संबंधों को किस प्रकार जीवंत बना रखा है?
देखिए उनके हाथ में तो देश की बागडोर है। हम तो बहुत छोटे हैं। बतला नहीं सकती। शुरू से ही परिवार के प्रति असीम प्यार रहा है। 1942 के आंदोलन के दिनों से इन सब लोगों की गतिविधियों को हमारा परिवार ध्यान से फॉलो करता रहा है। गांधी जी, पंडित जी का जीवन हमेशा प्रेरक रहा है हमारे लिए। पंडित जी से अपनी पूरी जिंदगी में तो सिर्फ मैं तीन बार मिली हूं। तीन बार में से एक बार तो वह बहुत जल्दी जल्दी में निकल गए। दूसरी बार बड़े प्यार से मिले और मेरा वह गीत सुना ए मेरे वतन के लोगों। तीसरी बार मुंबई में उनसे मुलाकात हुई। मुझे उनसे और उस परिवार से एक लगाव है। उस समय के जितने क्रांतिकारी हुए हैं उन सब से एक प्रकार का प्यार था। जयप्रकाश जी से भी मैं यूं ही मिली थी। इंदिरा जी से तो कई बार मिली हूं मैं। मेरे साथ बहुत ही प्यार से बातें करती थीं। हमेशा मुझे यही रहा कि जो लोग हमारे देश का शासन चला रहे हैं। देश के लिए, उनके लिए हम कुछ काम आ सके तो मुझे बहुत खुशी होगी। हमारा जो काम है उसी के जरिए हम कुछ कर सकते हैं। हम लोग तलवार लेकर तो लड़ नहीं सकते, कोई सभा में भाषण भी नहीं दे सकते हैं पर हमारा काम गाना है। उसके जरिए हम कुछ देश की सेवा कर सकते हैं। बांग्लादेश युद्ध के समय मैंने इंदिरा जी को एक पत्र लिखा था कि आप हमारे देश की बहुत बड़ी हस्ती हैं। आपके हाथ में हमारे देश का भाग्य है। आप अगर मुझे इस योग्य समझे कि मैं कुछ कर सकती हूं तो आप मुझे जरुर याद करें। उस वक्त मेरी आंखों में पानी आ गया था जब उस पत्र के 6 महीने बाद उनका फोन आया। मैं कोल्हापुर में थी। बीमार थी। फोन पर कहा गया कि 12 दिसंबर को बांग्लादेश युद्ध को लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान में इंदिरा जी भाषण कर रही हैं। वह चाहती थी कि मैं दिल्ली आकर 1-2 देशभक्ति के गीत गाऊं। जब मैं वहां पहुंची और सत्यमेव जयते तथा सरफरोशी की तमन्ना गीत गाए। तो उनको कितना याद रहता था कि जब जरूरत हुई तो याद कर लेते थे। उनके सिर पर वैसे ही कितने प्रकार के बोझ रहते थे। उसके बावजूद उन्होंने मेरी बात याद रखी। इंदिरा जी ने अपना भाषण खत्म करने के मेरा हाथ थाम कर पूछा तबीयत कैसी है। आपका बहुत प्यारा पत्र मुझे मिला था उसे पढ़कर ही आज आपको याद किया है। आप आई मुझे बहुत खुशी हुई। इतना कह कर वो चली गई। यह जो आत्मीयता होती है वह बिरलों को ही मिल पाती है। इसी तरह राजीव जी से भी मैं दो तीन दफा मिली हूं। उनसे भी मैंने कहा था कि कभी भी मुझे याद कीजिए। मुझे बहुत खुशी होगी। उनसे भी मिलकर मैंने यही पाया कि वे जब भी मिलते हैं बड़े प्यार और आत्मीयता से मिलते हैं। यहां मुंबई आए थे तो काफी दूर बैठी थी। मगर उन्होंने दूर से देखकर ही हेलो किया तो मुझे बहुत अच्छा लगा। 

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