जलसा फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर
शनिवार, 19 मार्च 2022 (16:17 IST)
जलसा दो ऐसी महिलाओं की कहानी है जिनकी आर्थिक और सामाजिक दुनिया पूरी तरह से अलग है। पत्रकार माया मेनन (विद्या बालन) बेहद मजबूत महिला है जो सिंगल पैरेंट के बतौर अपने बेटे को न केवल पाल रही है बल्कि सच को सच कहने में भी उसकी ख्याति है। रूखसाना (शैफाली शाह) माया के घर खाना बनाने का काम करती है और माया के बेटे की देखभाल भी करती है। 
 
देर रात घर लौटते समय एक युवा लड़की माया के कार से टकरा जाती है। घबराकर माया वहां से भाग निकलती है। वह अपराधबोध से ग्रस्त है। उसे महसूस होता है कि उससे गलत हुआ है, लेकिन पुलिस और नौकरी खो जाने का उसे डर है। इस एक्सीडेंट से रूखसाना का भी कनेक्शन है और इससे इन दोनों महिलाओं के जीवन में भूचाल आ जाता है। 
 
प्रज्वल चंद्रशेखर और सुरेश त्रिवेणी ने मिलकर 'जलसा' की कहानी को लिखा है जिसमें आंतरिक द्वंद्व है। माया दुर्घटना वाली बात को छिपाना चाहती है, लेकिन उसके ही ऑफिस में ट्रेनी के बतौर काम कर रही रोहिणी जॉर्ज (विधृति बंदी) इस मामले की तहकीकात करती है। उसके हाथ कुछ फुटेज लगते हैं। पुलिस का भ्रष्टाचार, नेताओं के स्वार्थ जैसे ट्रैक भी फिल्म में साथ चलते हैं जो कहीं ना कहीं मूल कहानी को आगे ले जाते हैं। 
 
फिल्म के स्क्रीनप्ले में नैतिकता, पत्रकारिता के मूल्य, पुलिस भ्रष्टाचार, वर्ग विभाजन, एकल माँ होने की चुनौतियां, ऑफिस और घर के बीच संतुलन के लिए कामकाजी मां का संघर्ष आदि बातों को छुआ गया है। इसके लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किया गया है बल्कि किरदारों के जरिये ये बात समय-समय पर सामने आती रहती हैं। 
 
जलसा फिल्म की सबसे अच्छी बात यह है कि आगे क्या होने वाला है, इसको लेकर उत्सुकता अंत तक बनाए रखी है जिसके कारण दर्शक फिल्म से बंधा रहता है। फिल्म का क्लाइमैक्स रोमांच के शिखर पर ले जाता है। कई तरह के विचार दर्शकों के मन में आते हैं, लेकिन निर्देशक सुरेश त्रिवेणी ने एक अच्छा अंत फिल्म के लिए सोचा। 
 
फिल्म की कुछ बातें ऐसी हैं जो अधपकी लगती है। जैसे पुलिस का पैसे लेकर मामले को दबाने वाला प्रसंग और अच्छा लिखा जा सकता था। माया अपने पति से क्यों अलग हुई, इसकी जानकारी नहीं दी गई है। जिस लड़की का एक्सीडेंट होता है उसका साथी इस बारे में क्यों नहीं बोलता है? इस तरह के सवाल फिल्म देखते समय उठते हैं जिन पर लेखकों को ध्यान देना चाहिए था। 
 
निर्देशक के रूप में सुरेश त्रिवेणी का काम अच्छा है। उन्होंने ड्रामे में बिना संवादों के तनाव पैदा किया है। क्लाइमैक्स को उन्होंने जिस तरह से पेश किया है वो दर्शकों को बैचेन कर देता है। साथ ही उन्होंने अपने लीड एक्टर्स से भी अच्छा काम लिया है। 
 
विद्या बालन ने काम के दबाव, ग्लानि से पीड़ित महिला, झुंझलाहट आदि को अपने अभिनय से व्यक्त किया है। उन्हें देख लगता ही नहीं वे अभिनय कर रही हैं। शैफाली शाह को भी संवाद कम मिले और चेहरे के एक्सप्रेशन्स के जरिये उन्होंने अपना दर्द दिखाया है। क्लाइमैक्स में तो उनके चेहरे के भाव देखने लायक है। मानव कौल को क्यों फिल्म में लिया गया है और लिया गया है तो कुछ कर दिखाने का उन्हें मौका मिलना चाहिए था। इकबाल खान द्वारा बोले गए ज्यादातर संवाद अस्पष्ट हैं। 
 
'जलसा' एक ऐसी फिल्म है जो कई बातों को समेटे हुए है। भले ही कुछ ट्रेक प्रभावी न हो, लेकिन अंत तक जोड़कर रखती है। 

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