मां रिव्यू: काजोल-रोनित रॉय ने चौंकाया, पर कहानी ने किया निराश, जानिए कहां चूकी ये हॉरर फिल्म

समय ताम्रकर
शुक्रवार, 27 जून 2025 (14:41 IST)
शैतान और मुंज्या जैसी हॉरर मूवी की कामयाबी से बड़े बैनर और कलाकार भी इस जॉनर की ओर लौटे हैं। स्त्री 2 का नाम भी इसमें जोड़ा जा सकता है जिसमें हॉरर और कॉमेडी का मिश्रण है। ‘मां’ में हॉरर के साथ पौराणिकता भी है, हालांकि जिस तरह से फिल्म को प्रचारित किया गया है, दर्शक डरने का इंतजार ही करते रहते हैं। 
 
सब जानते हैं कि औलाद पर बन आती है तो मां देवी बन जाती है और काली का रौद्र रूप राक्षसों का खात्मा कर देता है। निर्देशक विशाल फुरिया, जिनकी ‘छोरी’ सीरिज की फिल्में इसी ट्रैक पर आधारित थी, ‘मां’ में एक ऐसे विषय को छूने की कोशिश करते हैं, जो भारतीय मानस में गहराई से बसा है, मां की ममता और देवी काली का रौद्र रूप।
 
अंबिका (काजोल) अपने पति शुभंकर (इंद्रनील सेनगुप्ता) और बेटी श्वेता (खेरिन शर्मा) के साथ खुशहाल जिंदगी जी रही है। शुभंकर पश्चिम बंगाल स्थित चंद्रपुर गांव का रहने वाला है, जिससे उसने सारे संबंध तोड़ लिए। अपने‍ ‍पिता की मौत के कारण उसे गांव जाना पड़ता है। हालात कुछ ऐसे घटते हैं कि अंबिका और श्वेता को भी गांव आना पड़ता है, जहां उनका स्वागत जॉयदेव (रोनित रॉय) करता है। हवेली की दीवारों और जंगल की झाड़ियों में छुपे अतीत के अंधेरे रहस्य धीरे-धीरे सामने आने लगते हैं। एक मूक नौकर (दिब्येंदु भट्टाचार्य), खून से सनी अतीत की कहानियां और एक राक्षस 'रक्तबीज' की दहशत धीरे-धीरे अंबिका की दुनिया को खौफनाक बनाने लगती है। 
 
फिल्म की सबसे बड़ी ताकत उसका विचार है, जिसमें मां की ताकत, पितृसत्ता के खिलाफ विद्रोह और काली के रूप में स्त्री का रूपांतरण हाईलाइट किया गया है। फिल्म में मासिक धर्म जैसे विषय को भी सहजता से दिखाया गया है, जो आज भी कई लोगों के लिए वर्जित है। लेकिन इन सब विचारों को पर्दे पर उतारने में जिस तरह से कहानी बुनी गई और उसे स्क्रीन पर दिखाया गया है वो बहुत कमजोर है। खासतौर पर फर्स्ट हाफ इतना ढीला है कि दर्शक डरने का इंतजार ही करते रह जाते हैं, और जब डर आता है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है।
 
दूसरे हाफ में फिल्म गति पकड़ती है, लेकिन क्लाइमेक्स तक पहुंचते-पहुंचते सब कुछ इतना जल्दबाजी में दिखता है कि भावनात्मक जुड़ाव टूटने लगता है। कुछ सीन ऐसे हैं जो चौंकाते हैं, जैसे अंबिका और श्वेता का चंद्रपुर पहुंचना, इंटरवल के बाद कार वाला सीन, क्लाइमैक्स की फाइट, लेकिन इस तरह के दृश्यों की संख्या कम है। 

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लेखक स्क्रीनप्ले को मनोरंजक नहीं बना पाए और दर्शकों को किरदारों से जोड़ नहीं पाए। उनकी नीरस लेखन दर्शकों को फिल्म से दूर करता है। मां-बेटी की केमिस्ट्री वो इमोशनल प्रभाव नहीं छोड़ती, जिसकी फिल्म को ज़रूरत थी।
 
फिल्म का सबसे बड़ा निगेटिव पॉइंट इसके वीएफएक्स हैं। निर्माता ने इस मामले में कंजूसी दिखाई है, जबकि हॉरर फिल्मों में वीएफएक्स कितने महत्वपूर्ण होते हैं सभी जानते हैं। राक्षस का ग्राफिक्स टेलीविजन सीरियल जैसा लगता है और उसका डरावनापन उतना प्रभावी नहीं बन पाता। कई बार तो डरावने सीन कमजोर वीएफएक्स के कारण हंसी का पात्र बन जाते हैं। 
 
काजोल सशक्त अभिनेत्री हैं और ‘मां’ में यह बात उन्होंने फिर साबित की है। रोनित रॉय इस फिल्म का बड़ा सरप्राइज़ हैं। खेरिन शर्मा ने अपने किरदार को अच्छी तरह से ‍निभाया है, जबकि इंद्रनील सेनगुप्ता अपने छोटे रोल में असर छोड़ जाते हैं। 
 
फिल्म के प्रोडक्शन डिजाइन में हवेली, जंगल और काली पूजा जैसे दृश्य विजुअली आकर्षक हैं। लाल-सफेद साड़ियों में नृत्य करती स्त्रियों की झलकें और थालियों में जलती लौ दर्शनीय हैं, लेकिन ये दृश्य भी कहानी की कमजोरी को छुपा नहीं पाते।
 
अमर मोहि‍ले का बैकग्राउंड स्कोर उस स्तर का नहीं है, जो इस तरह की फिल्मों में जरूरी होता है। पुष्कर सिंह की सिनेमैटोग्राफी कुछ शानदार फ्रेम्स देती है।
 
कुल मिलाकर मां एक औसत फिल्म के रूप में सामने आती है। काजोल और रोनित रॉय की अदाकारी जानदार है, लेकिन कमजोर लेखन और वीएफएक्स फिल्म को ले डूबते हैं। 

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