पिंक देखते समय 'नो वन किल्ड जेसिका' याद आती है। वकील के किरदार में अमिताभ बच्चन को देख 'दामिनी' वाले सनी देओल भी याद आते हैं। इन फिल्मों में महिलाओं के साथ हुए अन्याय के खिलाफ न्याय की बातें की गई थी। 'पिंक' भी यही बात करती है, लेकिन अलग अंदाज में। इस फिल्म में समाज में व्याप्त स्त्री और पुरुष के लिए दोहरे मापदंड पर आधारित प्रश्न ड्राइविंग सीट पर है और कहानी बैक सीट पर।
'पिंक' उन प्रश्नों को उठाती है जिनके आधार पर लड़कियों के चरित्र के बारे में बात की जाती है। लड़कियों के चरित्र घड़ी की सुइयों के आधार पर तय किए जाते हैं। कोई लड़की किसी से हंस बोल ली या किसी लड़के के साथ कमरे में चली गई या फिर उसने शराब पी ली तो लड़का यह मान लेता है कि लड़की 'चालू' है। उसे सेक्स के लिए आमंत्रित कर रही है।
यह फिल्म उन लोगों के मुंह पर भी तमाचा जड़ती है जो लड़कियों के जींस या स्कर्ट पहनने पर सवाल उठाते हैं। अदालत में अमिताभ बच्चन व्यंग्य करते हैं कि हमें 'सेव गर्ल' नहीं बल्कि 'सेव बॉय' पर काम करना चाहिए क्योंकि जींस पहनी लड़की को देख लड़के उत्तेजित हो जाते हैं और लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार करने लगते हैं। फिल्म में ये सीन इतना कमाल का है कि आप सीट पर बैठे-बैठे कसमसाने लगते हैं। कई बातें कचोटती हैं। ये उन लोगों के दिमाग के जाले साफ कर देती है जिनकी सोच रूढ़िवादी है और जो लड़कियों के आर्थिक स्वतंत्रता के हिमायती नहीं है।
'पिंक' में ये सारी बातें बिना किसी शोर-शराबे के उठाई गई है। फिल्म इस बात का पुरजोर तरीके से समर्थन करती है कि लड़कियों को कब, कहां, क्या और कैसे करना है इसके बजाय हमें अपनी सोच बदलना होगी। इस सोच ने लड़कियों की सामान्य जिंदगी को भी परेशानी भरा बना दिया है। वे अपने घर की बालकनी में भी चैन से बैठ नहीं सकती क्योंकि उन्हें घूरने वाले हाजिर हो जाते हैं।
कहानी को दिल्ली-फरीदाबाद में सेट किया गया है। यह जगह शायद इसलिए चुनी गई क्योंकि पिछले दिनों यही पर महिलाओं पर हुए अत्याचारों की गूंज पूरे देश में सुनाई दी थी। दिल्ली के नाम से ही कई महिलाएं घबराने लगती हैं। मीनल (तापसी पन्नू), फलक (कीर्ति कुल्हारी) और एंड्रिया (एंड्रिया तारियांग) अपने पैरों पर खड़ी लड़कियां है जो साथ में रहती हैं।
एक रात वे सूरजकुंड में रॉक शो के लिए जाती हैं, जहां राजवीर (अंगद बेदी) और उनके साथियों से मुलाकात होती है। मीनल और उसकी सहेलियों का बिंदास अंदाज देख वे अंदाज लगाते हैं कि इन लड़कियों के साथ कुछ भी किया जा सकता है। राजवीर हद पार कर मीनल को छूने लगता है। मीनल अपने बचाव में उसके सिर पर बोतल मार कर उसे घायल कर देती है। राजवीर एक ऐसे परिवार से है जिसकी राजनीति में गहरी दखल है।
मीनल से बदला लेने के लिए राजबीर और उसके दोस्त पुलिस में शिकायत दर्ज करा देते हैं कि मीनल ने उन पर जानलेवा हमला किया है। साथ ही वह कॉलगर्ल है। लड़कियों को मुसीबत में देख दीपक सहगल (अमिताभ बच्चन) उनकी ओर से केस लड़ने का फैसला करता है।
दीपक सहगल के किरदार के जरिये फिल्म में विचार रखे गए हैं जो थोपे हुए नहीं लगते क्योंकि वो फिल्म की कहानी से जुड़े हुए हैं। इंटरवल के बाद फिल्म कोर्ट रूम ड्रामा में बदल जाती है। पिछले महीने रिलीज हुई 'रुस्तम' में भी कोर्ट रूम ड्रामा था, लेकिन हकीकत में ये कैसा होता है इसके लिए 'पिंक' देखी जानी चाहिए।
फिल्म का निर्देशन अनिरुद्ध रॉय चौधरी ने किया है। उनके निर्देशन पर सुजीत सरकार का प्रभाव नजर आता है। गौरतलब है कि सुजीत इस फिल्म से जुड़े हैं। अनिरुद्ध की प्रस्तुति में खास बात यह रही कि उन्होंने उस एक्सीडेंट को दिखाया ही नहीं जिसके कारण मामला अदालत तक पहुंचा। उस घटना का जैसा वर्णन अदालत को बताया जाता है वैसा ही दर्शकों को पता चलता है। इस कारण दर्शक की अपनी कल्पना के कारण फिल्म में दिलचस्पी बढ़ती है। फिल्म के अंत में क्रेडिट टाइटल्स के साथ वो घटनाक्रम दिखाया गया है।
अनिरुद्ध अपनी बात कहने में सफल रहे हैं जिसके लिए उन्होंने फिल्म बनाई। यह फिल्म केवल महिलाओं या लड़कियों के लिए नहीं बल्कि पुरुषों के लिए भी है। मीनल के किरदार के जरिये अनिरुद्ध ने दिखाया है कि महिलाओं को कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
अनिरुद्ध ने कई बातें दर्शकों की समझ पर भी छोड़ी है। मसलन उन्होंने अमिताभ को मास्क पहने मॉर्निंग वॉक करते दिखाया है जो दिल्ली के प्रदूषण का हाल बताता है और राजनीतिक प्रदूषण की ओर भी इशारा करता है। फिल्म में एक किरदार मेघालय में रहने वाली लड़की का है जो बताती है कि उसे आम लड़कियों की तुलना में ज्यादा छेड़छाड़ का शिकार बनना होता है और यह हकीकत भी है।
फिल्म में दो कमियां लगती हैं। अमिताभ के किरदार के बारे में थोड़ा विस्तार से बताया गया होता तो बेहतर होता। साथ ही फिल्म को थोड़ा सरल करके बनाया जाता तो बात ज्यादा दर्शकों तक पहुंचती।
कुछ दिनों बाद अमिताभ बच्चन 74 वर्ष के हो जाएंगे, लेकिन अभी भी उनके पास देने को बहुत कुछ है। 'पिंक' में इंटरवल के बाद वे उन्हें ज्यादा अवसर मिलता है जब फिल्म अदालत में सेट हो जाती है। अमिताभ की स्टार छवि को निर्देशक ने उनके किरदार और फिल्म पर हावी नहीं होने दिया है और बच्चन ने भी अपने अभिनय में इसका पूरा ख्याल रखा है। फिल्म के दो-तीन दृश्यों में तो अमिताभ ने अपने अभिनय से गजब ढा दिया है। खासतौर पर उस सीन में जब वे किसी महिला के 'नो' के बारे में बताते हैं। वे कहते हैं कि नहीं का मतलब 'हां' या 'शायद' न होकर केवल 'नहीं' होता है चाहे वो अनजान औरत हो, सेक्स वर्कर हो या आपकी पत्नी हो।
तापसी पन्नू का कद 'पिंक' के बाद बढ़ जाएगा और उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में गंभीरता से लिया जाएगा। मीनल की दबंगता और झटपटाहट को उन्होंने अच्छे से पेश किया है। फलक के रूप में कीर्ति कुल्हारी प्रभावित करती हैं। एंड्रिया छोटे रोल में अपना असर छोड़ती है। पियूष मिश्रा वकील के रूप में अमिताभ के सामने खड़े रहे और जोरदार मुकाबला किया।
फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक उम्दा है और कई जगह खामोशी का अच्छा उपयोग किया गया है।
जरूरी नहीं है कि हर फिल्म मनोरंजन के लिए ही बनाई जाए। कुछ ऐसी फिल्में भी होती हैं जो अपनी शानदार स्क्रिप्ट और जोरदार अभिनय के कारण आपकी सोच को प्रभावित करती हैं, 'पिंक' भी ऐसी ही फिल्म है। जरूर देखी जानी चाहिए।